Friday, December 2, 2016

सोशल मीडिया: किधर है भविष्य?



 हर युग किसी खास घटना,व्यक्तित्व या विचारधारा से प्रभावित होता है और उस युग का नामकरण भी उसी अनुरूप कर दिया जाता है. सोशल मीडिया का जिस हिसाब से प्रचार-प्रसार और प्रभाव बढ़ा है, कुछ लोग इसे सोशल मीडिया युग भी कहने लगे हैं. आज के युग में जो कोई सोशल मीडिया पर नहीं है, उसके असितित्व पर ही कई बार शक कर लिया जाता है! सोशल मीडिया की ताकत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि वह कई बार मुख्यधारा की मीडिया या पारंपरिक मीडिया को भी प्रभावित करने की स्थिति में आ जाता है.  
 
ऐसे में सवाल यह उठता है कि इससे आगे इसकी दिशा क्या है और इसका कितना प्रभाव बढ़ेगा. इस प्रश्न का एक संभावित जवाब पाने से पहले आइये हम कुछ अन्य बातों पर विचार करें.
सोशल मीडिया ने आमजन को एक आवाज दी है. यहां हर कच्चा से कच्चा विचार अपना स्थान पा जाता है, जिसका आमतौर पर कोई दूरगामी असर नहीं होता लेकिन हर वो विचार भी जगह पा जाता है जो सिस्टम को बदलने या किसी ठोस बदलाव की दिशा में महत्वपूर्ण हो जाता है. कई ऐसी बातें जो कई बार निहित स्वार्थों/दबावों की वजह से मुख्यधारा की मीडिया में नहीं आ पाती, सोशल मीडिया में आकर विमर्श को प्रभावित करने में सफल हो जाती हैं. हाल के समय में कई ऐसे अपराध, भ्रष्टाचार या कई कुरुतियों के खिलाफ सोशल मीडिया में अभियान चलाए गए और उसका अपेक्षित नतीजा भी निकला. सरकार और सत्तातंत्र को उसे सुनना पड़ता है. चाहे बिहार में रॉकी यादव की गिरफ्तारी, शहाबुद्दीन को जेल या तीन तलाक का मसला, चाहे वन रैंक वन पेंशन की बात हो या फिर हाल ही में एक बड़े मीडिया हाऊस को सरकार द्वारा एक दिन के लिए बैन करने का मसला-सोशल मीडिया में हर विषय पर घनघोर बहस हुई है और उन बहसों ने जनमत को प्रभावित किया है. नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल या अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत में सोशल मीडिया की एक प्रभावी भूमिका से कोई इनकार नहीं करता.

अगर फेसबुक की बात करें जिसका फलक ज्यादा व्यापक है तो दुनिया में करीब 1.6 अरब लोग फेसबुक पर हैं, तो भारत में इसके 16.6 करोड़ मासिक यूजर हैं. भारत में प्रतिदिन करीब 8.5 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं और प्रति दिन करीब 55 मिनट तक इस पर व्यतीत करते हैं. जिस हिसाब से मोबाइल फोन की संख्या और मोबाइल इंटरनेट की संख्या में इजाफा हो रहा है, यह संख्या कई गुणा बढ़नेवाली है.

कुल मिलाकर सोशल मीडिया संगठित सत्ता और पारंपरिक मीडिया की सत्ता को गहरे चुनौती दे रहा है. यह सूचना का लोकतंत्रीकरण है जिसमें हर किसी का ओपनियन सामने आ रहा है भले ही कितना ही कच्चा क्यों न हो. हां, उसमें ये खतरा जरूर है कि तथ्यों की गड़बड़ी, अफवाह और असंपादित विचार भी सामने आ रहे हैं जो कई बार सूचना के दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं होते और जिस वजह से सोशल मीडिया की विश्वसनीयता अभी तक संदेह के घेरे में है. अभी ये बहस भी जोरों पर है कि क्या फेसबुक गलत सूचनाओं को प्रतिबंधित करने जा रहा है? क्योंकि कुछ जानकार कह रहे हैं कि अगर फेसबुक ने 'कृत्रिम खबरों' को प्रतिबंधित किया तो उसे राजस्व का भारी नुक्सान होगा.
जो भी हो, सोशल मीडिया ने इसने इतना तो किया ही है कि संगठित सत्ता और संगठित मीडिया के वर्चस्व को तगड़ी चुनौती दे दी है.

जिस तरह से फेसबुक ने लाइव वीडियो(फेसबुक लाइव) शुरू किया है, आनेवाले समय में वीडियो कंटेंट की महत्ता और बढ़ जाएगी और न्यूज में विविधता आएगी. अब सिर्फ एक मोबाइल और ठीकठाक कनेक्टिविटी से कहीं से भी किसी भी घटना को लाइव दिखाना संभव हो पाएगा. यह सोशल मीडिया की नयी ताकत है. साथ ही ये भी कि जिस तरह से फेसबुक ने वीडियो को 'मोनेटाइज' करना शुरू किया है, आनेवाले समय में यह गूगल के लिए एक बड़ी चुनौती बनेगा और उसके बाजार में सेंधमारी करेगा.

सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा हिट वीडियो के आते हैं, फिर तस्वीर और फिर टेक्स्ट पढ़ा जा रहा है. यानी भविष्य वीडियो का है और उसमें पैसा भी आनेवाला है. इस क्षेत्र में रुचि रखनेवालों को इन बातों का खयाल रखना चाहिए.

दूसरी तरफ सोशल मीडिया खासकर फेसबुक अत्यधिक मोबाइल-केंद्रित होता जा रहा है और मातृभाषा-सहज है. इसका मतलब ये है कि जनभावना को ज्यादा से ज्यादा प्रकट करने का कोई मंच है तो वो सोशल मीडिया है. ऐसे आंकड़े सामने आ रहे हैं कि लोग ज्यादा से ज्यादा सोशल मीडिया का इस्तेमाल मोबाइल पर करने लगे हैं और सोशल मीडिया ने भी उसके अनुरूप अपने आपको ज्यदा से ज्यादा ढ़ालना शूरू कर दिया है. भारत में मोबाइल फोन की संख्या करीब 90 करोड़ तक पहुंचने वाली है और ज्यादा से ज्यादा लोग उस पर इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं जो साक्षरता और बेहतर आर्थिक स्थिति के साथ बढ़ती ही जा रही है. 

सबसे बड़ी बात ये है कि इंग्लिश की तुलना में देसी भीषाओं में लोग ज्यादा से ज्यादा फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल कर रहे हैं. एक आंकड़े के हिसाब से भारत में अंग्रेजी में ऑनलाइन कंटेंट की बृद्धि दर करीब 45 फीसदी सालाना है तो देसी भाषाओं में ये करीब 100 फीसदी है. ये देसी भाषाओं के लिए स्वागत की बात है हालांकि अभी पक्के तौर पर ये नहीं कहा जा सकता कि इससे भाषाओं का विकास होगा या बाजार अपनी सहूलियतों के लिए ऐसा कर रहा है. लेकिन जो भी हो, हिंदी या अन्य राष्ट्रीय भाषाएं ज्यादा से ज्यादा उपयोग में लाई जा रही हैं ऐसा फेसबुक का आधिकारिक बयान है. 

जहां तक मीडिया हाऊसों का सवाल है तो हाल तो ये है कि वेबसाइट्स की ट्रैफिक का 30 से 40 फीसदी हिस्सा तक फेसबुक से आ रहा है. यानी पारंपरिक न्यूजसाइट सिर्फ कंटेंट प्रोवाइडर बनते जा रहे हैं और सोशल मीडिया असली करियर बनता जा रहा है. जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है, फेसबुक पर फिलहाल दुनिया के 1.6 अरब लोग हैं. आप अंदाज लगाइये कि फेसबुक कि इस दुनिया में किसी छवि को संवारने में या बिगाड़ने में क्या हैसियत हो गई है!
 
अब प्रश्न ये है कि इससे आगे का रास्ता क्या हो सकता है? फेसबुक ने जिस तरह से सोशल मीडिया में और इंटरनेट की अन्य कंपनियों को पछाड़ या है, अब आगे का क्या रास्ता है? फिलहाल, फेसबुक ने सिर्फ वीडियो मोनेटाइजेशन किया है और फेसबुक लाइव शुरू किया है-यह यूट्यूब को एक तगड़ी चुनौती है जो पहले से ऐसा करता आ रहा है. लेकिन कल को अगर कोई कंपनी इससे भी एक कदम आगे बढ़कर ज्यादा समय व्यतीत करनेवाले और विज्ञापन पर क्लिक करनेवाले यूजर्स को राजस्व में हिस्सेदारी देने लगे तो क्या होगा

ये अभी काल्पनिक सवाल हैं. हो सकता है आनेवाले दिनों में ऐसा हो. क्योंकि हर कंपनी की एक लाइफ साइकिल होती है और अगर उस दरम्यान वो कंपनी अपने आपको नए तरीके से नहीं ढालती या नवाचार नहीं करती तो वो मौत की तरफ बढ़ जाती है. आनेवाला समय दिलचस्प होगा.

Friday, February 19, 2016

चिन्तन – आत्महत्या (02)

आईआईटी कानपुर उमंग नाम से यूथ फेस्टिवल का आयोजन हर साल करता है. कॉलेज के दिनों में फिल्म एवं डाक्युमेंट्री मेकिंग कैटेगरी के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की टीम में इन पंक्तियों के लेखक को भी शामिल होने का सौभाग्य मिला. साल 2007 में हुए इस कॉम्पेटिशन में तक़रीबन पचास से ज़्यादा टीमों ने हिस्सा लिया, जिनमें से लगभग चालीस टीमों ने सुसाइड पर अपनी फिल्म या डाक्युमेंट्री बनाई थी. नतीजा चाहे जो रहा, लेकिन इतनी बड़ी तादाद में एक ही विषय पर बनी फिल्मों ने चौंकाया ज़रूर. आपको जानकर हैरानी होगी कि आईआईटी जैसे संस्थानों में पढ़नेवाले मेधावी छात्रों में आत्महत्या की प्रवृति सबसे ज़्यादा हावी है.
जिस तरह का दबाव वर्दीधारी सैनिक और सिपाही अपने काम को लेकर महसूस करते हैं कमोबेश वैसा ही दबाव पढ़ाई और करियर को लेकर हमारे छात्र-छात्राओं के ऊपर होता है. स्कूल के दिनों में नंबर बेहतर लाने का दबाव. पढ़ाई के साथ-साथ खेल-कूद और एक्स्ट्रा कर्रिकुलर एक्टिविटी में अच्छा-बेहतर करने का दबाव. नंबर बेहतर ला दिया और बढ़िया परफॉर्म भी कर दिया, उसके बाद अपनी पोजीशन को बनाए रखने का दबाव. हर तरह के मनवांछित नतीजे देने के बाद, आख़िर में बेहतर करियर यानी हाथ में एक बेहतर नौकरी होने का दबाव. मतलब एक अप्राकृतिक दबाव चौबीसो घंटे, आठो पहर, सालो-साल युवा मस्तिष्क पर बना ही रहता है.
युवाओं में आत्महंता की प्रवृति कैसे कम हो?  कैसे जिन्दा रखी जाए उनकी जीजीविषा? उनका उत्साह बनाए रखने के लिए कौन-सा तरीक़ा इज़ाद किया जाए?  ये यक्ष प्रश्न है. कुछ रास्ते हैं जो कि बेहद जाने-पहचाने हैं. हर कोई उन्हें जानता है लेकिन कोई भी शत-प्रतिशत उनका पालन नहीं करता. मसलन बच्चों में स्पोर्ट्समैनशिप डिवेलप करवाना उसके लड़ने की क्षमता को तो बढ़ाएगा ही है साथ ही ज़िन्दगी में हार-जीत को सकारात्मकता से लेने का सलीका भी सिखाएगा. पिछले कुछ दशक में क़िताबों के बोझ ने बच्चों को खेल से दूर कर दिया है. इसी तरह पढ़ाई के अलावा दूसरे तमाम विषयों जैसे संगीत, नृत्य, नाटक, पेंटिंग, फोटोग्राफी, इत्यादि क्षेत्रों में भी उनकी रूचि को बढ़ावा देने से उनमें जीवन के प्रति सकारात्मकता बढ़ेगी.
ऊपर उल्लेखित तमाम उपायों का कोई मतलब नहीं होगा अगर बच्चों के साथ उनके माता-पिता का व्यवहार दोस्ताना नहीं हो. बच्चे ख़ासकर युवा होते किशोर युवक-युवतियों को रोमांच में मज़ा आता है. इस रोमांच की वज़ह से वे झूठ बोलने से लेकर नशा करने की लत के शिकार हो जाते हैं. बाद में नशाखोरी उन्हें डिप्रेशन की ओर ले जाती है और अंततः उन्हें आत्महंता बना देती है. युवाओं में आत्महत्या या ख़ुदकुशी रोकने का सबसे बेहतरीन रास्ता है कि माता-पिता उनके दोस्त बनकर रहें. उनसे हर सुख-दुःख की बातें शेयर करें. उनकी मनःस्थिति को जानने-समझने की कोशिश करने के साथ एक अभिभावक की चौकन्नी नज़र भी उनपर हमेशा बनाए रखें. रिश्ता मज़बूत हो लेकिन किसी भी क्षण में बोझिल न बने. इस तरह के दोस्ताना माहौल में पले-बढ़े बच्चे मानसिक रूप से बेहद सुदृढ़ होते हैं. किसी भी हार या निराशा की वज़ह से नकारात्मकता उनपर हावी नहीं होती.

Wednesday, February 17, 2016

चिन्तन – आत्महत्या (01)

दिनांक – 16 फरवरी, 2016, दिन - मंगलवार, देर रात दिल्ली हवाई अड्डे के सुरक्षा विंग में तैनात सीआईएसएफ के एक ऑफिसर ने अपने सर्विस रिवाल्वर से कथित रूप से खुदकुशी कर ली. अधिकारियों ने बताया कि यह घटना उस वक्त हुई जब अट्ठावन साल के असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर राज सिंह को करीब रात 8 बजे सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स कैंप में उसका सर्विस रिवाल्वर जारी किया गया।
आत्महत्या या ख़ुदकुशी, सुनकर कैसा लगता है?  शर्तिया तौर पर कहा जा सकता है कि अगर आपने अपने आसपास कोई वाकया नहीं देखा है, तो आप इसे महज़ एक शब्द मानते हुए, उदासीनता से आगे बढ़ जाएंगे. यहां आपकी समझ या संवेदनशीलता पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है, बस ये बताने की कोशिश की जा रही है कि आत्महत्या यानी ख़ुद की हत्या भले ही संविधान के मुताबिक़ एक अपराध हो, लेकिन इसे अंजाम देने वाले शख़्स की मानसिक तक़लीफ का स्तर हमारे-आपके समझ से परे होती है. ज़रा कल्पना कीजिए उसके अंदर के दर्द को, डर को कि बिना किसी रिश्ते-नाते की चिन्ता किए एक शख़्स कैसे ख़ुद को फंदे से लटका कर या जला कर या ज़हर पीकर या गोली मारकर या ऊंची इमारत से कूद कर या फिर किसी और नायाब तरीक़े से मार देता होगा.
आत्महत्या या ख़ुदकुशी कोई भी करे, ये है ग़लत. लेकिन इस ग़लती पर अंकुश नहीं लग पा रहा है. वज़ह अनगिनत हैं. सबसे अहम तो ये है कि ख़ुदकुशी की करने वाले अलग-अलग लिंग, आयु, धर्म, जाति, समाज और वर्ग से होते हैं, इस वज़ह से किसी एक पैटर्न को ध्यान में रखकर नियम या सावधानी नहीं बरती जा सकती है, जिससे इसमें कमी आ सके. फिर भी हालिया ख़बरों पर नज़र डाले तो ऐसा ज़रूर लगता है कि कुछ ख़ास वर्गों में थोड़ी कोशिश से आत्महत्या की प्रवृति को कम किया जा सकता है। अगर मोटे तौर वर्गीकरण किया जाए तो वर्दीधारी सिपाही या सैनिक, किसान, छात्र, नवयुवक-युवतियां जैसे कुछ वर्गों में ख़ुदकुशी करनेवालों की तादाद ज़्यादा है. 
सैनिको और सिपाहियों में कई सकारात्मक पहलू होते हैं, मसलन उनका जूझारूपन, कर्मठता, विषम परिस्थितियों में रहने की आदत, मानसिक मज़बूती आदि, फिर आख़िर ऐसी कौन-सी बात है जो हमें हर दूसरे दिन किसी सैनिक और सिपाही की आत्महत्या और ख़ुदकुशी की ख़बरें पढ़ने को मिलती है. दरअसल पिछले कुछ सालों में सेना, पारा मिलिट्री फोर्सेज़ और पुलिस की नौकरी में आत्महत्या की घटनाएं बेहद आम होती जा रही हैं. और वज़ूहात किसी से छिपे नहीं हैं. इस तरह की घटनाओं के पीछे सर्वविदित कारण हैं काम का अत्यधिक दबाव, काम के वक़्त का तय नहीं होना, छुट्टी नहीं मिलना या कम मिलना, मिहनत के हिसाब से सुविधाओं में कमी, पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियां इत्यादि. लेकिन हक़ीक़त ये भी है कि इनमें से ज़्यादातर वज़हों को दुरूस्त किया जा सकता है.
देश हो या राज्य, हर जगह ख़र्चे को कम रखने की कोशिश में पर्याप्त तादाद में सैनिक और सिपाही की बहाली नहीं की जाती नतीजतन सैनिक और सिपाही के काम करने के घंटे तय नहीं हो पाते या उनसे ज़रूरत से लंबी ड्यूटी करवाई जाती है. अगर पर्याप्त तादाद में सैनिक और सिपाही हो और किसी को भी आठ घंटे से ऊपर की ड्यूटी न दी जाए तो उनकी आत्महत्या की प्रवृति में आश्चर्यजनक गिरावट देखी जा सकती है. इसी तरह अनिवार्य छुट्टी के नियम को सख़्ती से लागू करके और उनकी सुविधाओं में गुणात्मक सुधार लाकर वर्दीधारी सैनिकों में आत्महत्या की प्रवृति को कम किया जा सकता है. इन सबके अलावा रेगुलर काउंसलिंग को भी उनके जॉब का अपरिहार्य हिस्सा बनाना ज़रूरी है.

Tuesday, February 16, 2016

चिन्तन – ‘ध्वनि प्रदूषण ‘

हमारी सबसे बड़ी ताक़त (या कमी?) है कि हम हमेशा तात्कालिक चीज़ों का ख़्याल रखते हैं. तात्कालिक से मेरा तात्पर्य उन चीज़ों से है जिनका हमें फ़ायदा तुरंत मिले या फिर तात्कालिक हल उन चीज़ों के ढूंढ़ते हैं जिनसे हमें नुक़सान होना शुरू हो चुका हो. ऐसी ही एक समस्या है प्रदूषण. प्रदूषण कहने के साथ ही सामान्य तौर पर हम सब गंदगी ख़ास तौर अपने आस-पास फैले प्रदूषण मसलन जल और वायु प्रदूषण ही समझते हैं. वज़ह है कि इन प्रदूषणों से हमें नुक़सान होना शुरू हो चुका है. लेकिन इन सबसे कई गुणा घातक प्रदूषण है - ध्वनि प्रदूषण. और इसके लिए हम जब तक जागेंगे तब तक हमारी अगली पीढियों पर असर शुरू हो चुका होगा.
जिस तरीक़े से बढ़ती आबादी के साथ ध्वनि प्रदूषण बढ़ रही है, वो दिन दूर नहीं जब बहरापन एक महामारी की शक़्ल अख़्तियार कर लेगा. जिस बे-परवाही से हम इस अहम प्रदूषण के नुक़सान का आकलन नहीं कर पा रहे हैं उसका ख़ामियाज़ा हमें आनेवाले दिनों में उठाने के लिए तैयार रहना होगा. हम और हमारी चुनी सरकारें कितनी अदूरदर्शी हो चुके हैं. हमें वाहन से निकलता धुआं तो दिखता है, लेकिन उसके हॉर्न और इंजन से निकलने वाला शोर नहीं सुनाई दे रहा है. हमने कहने को इन कल-कारखाने के ज़रिए निकलने वाले कचरे और धुएं पर चिन्ता करना शुरू कर दिया है, लेकिन इन कल-कारखानों से होने वाले शोर को कम करने की सोच नहीं पैदा हो रही है.
यहां सबसे अहम ये कि सिर्फ ज्ञात स्रोतों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण ही क्यों हर तरह के ध्वनि प्रदूषण को कम करने की कोशिश होनी चाहिए, लेकिन अफ़सोस हम रोज़मर्रा के कामों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग करने लगे हैं. मंदिर-मस्ज़िद-गिरजा-गुरूद्वारे, शादी-समारोह, पर्व-त्योहार, सभा-जलसा, धरने-प्रदर्शन की कौन कहे, अब तो स्कूल-कॉलेजों में माइक/लाउड स्पीकर के बग़ैर कोई काम नहीं होता. दिल्ली में जितने भी सरकारी स्कूल हैं, वहां बेहतर या अच्छी पढ़ाई भले न होती हो, लेकिन सुबह होने वाली असेंबली में प्रार्थना और राष्ट्रगान ध्वनि विस्तारक यंत्र के ज़रिए ही गवाई जाती है। ताकि, सरकार के साथ-साथ आम लोगों को भी पता चले कि सरकारी टीचर काम कर रहे हैं. क्या मज़ाक है?  कितना अच्छा होता यदि आडम्बरों की जगह ये सरकारी शिक्षक पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारने की कोशिश करते. लेकिन नहीं इन शिक्षकों को भी पता है कि ये शिक्षक बाद में पहले वोटबैंक हैं. और काम दिखाने का सबसे बेहतर साधन है माइक/लाउड स्पीकर.
ध्वनि अपरिहार्य है, लेकिन कृपया शोर को अपरिहार्य मत बनने दीजिए. ट्रेन-हवाई जहाज के शोर भले ही शहर से दूर होते हों, लेकिन वो दिन दूर नहीं जब हर शहर में ध्वनि संतृप्तता बढ़ जाएगी, उसके बाद तो हर तरह की आवाज़ शोर साबित होने लगेगी. इससे पहले कि हर तरह की आवाज़ हमें शोर लगने लगे, हम जग जाएं, हमारी सरकारें जग जाएं. एक ठोस क़दम ध्वनि प्रदूषण कम करने के लिए भी बढाई जाए. इसकी शुरूआत तमाम शिक्षण संस्थानों से की जाए. उर्जा से भरपूर बच्चे और किशोर बिना लाउड स्पीकर के भी बेहतर प्रार्थना और राष्ट्रगान गा सकते हैं और हर दिन की एक अच्छी शुरूआत कर सकते हैं. देश की राजधानी दिल्ली इसका उदाहरण बने, इससे बेहतर बात भला और क्या होगी?

Sunday, February 14, 2016

रेलवे टिकट

विश्व की सबसे व्यस्ततम रेलवे रूट कौन-सी है? जवाब है  नई दिल्ली-पटना रेलवे रूट. मैं यक़ीनी तौर पे कह सकता हूं कि जितनी राजधानी ट्रेनें इस रूट से होकर गुज़रती है, शायद ही किसी और रास्ते या रूट से होकर गुज़रती होंगी। लेकिन इस रूट की सबसे बड़ी ख़ासियत ये नहीं है जो आपने अभी-अभी पढ़ा है, बल्कि इस रेलवे रूट की ख़ासियत ये है कि किसी भी मौसम में आपको इस रूट की तमाम ट्रेनों में रिज़र्वेशन के लिए लंबी क़तारों में इंतज़ार करना पड़ेगा. होली, गर्मी छुट्टी, दिवाली-छठ और दूसरे मौकों पर तो रिज़र्वेशन चार महीने पहले जिस दिन खुलता है, उसी दिन बंद भी हो जाता है, यानी नो रूम लिखा आ जाता है. और तो और ज़रा सी देर की नहीं कि आपने इंतज़ार सूची में भी आने का हक़ खो दिया.
ख़ैर, पिछले कई हफ़्तों से एक दिन के लिए घर जाने की कोशिश में लगा हुआ हूं. हाथ-पैर जोड़कर ऑफिसवालों को मना लेने में क़ामयाब हो जा रहा हूं, लेकिन ट्रेन में बर्थ पाने में नाक़ामयाबी ही हाथ आ रही है. मेरी हालात का तनिक अंदाज़ा तो लगाइए, पिछले दो बार से पूरी तैयारी कर चुकने के बाद जब पत्नी को ये बताता हूं कि टिकट कंफर्म नहीं हुआ, तो घर में क्या होता होगा? इस मुद्दे पर पत्नी को समझा-मना पाने में असमर्थ रहा हूं. पिछले साल भी, नवंबर में होनेवाले छठ के लिए जुलाई में टिकट बुक कराई थी. माने या न माने मेरी टिकट वेटिंग की वेटिंग में ही रही. बड़ी मुश्किल से कई दूसरे माध्यमों और जर्नी ब्रेक करते हुए घर तक पहुंचा था (बीवी के हाथों टॉर्चर होने से बेहतर यही लगा).
सूत्रों की मानें, तो इन सब के पीछे रेलवे टिकट बेचनेवाले दलालों का हाथ है जो अच्छी तादाद में टिकटों की फर्ज़ी बुकिंग कर लेते हैं और फिर मांग के मुताबिक़ रेलवे बुकिंग ऑफिस की मदद से ऑरिजनल नाम पर टिकट अपने ग्राहकों को ऊंची दरों पर बेचते हैं. एक तरफ तो रेलवे दलालों से टिकट की ख़रीददारी करने से मना करती है, जेल भेजने का डर दिलाती है. वहीं, दूसरी तरफ इसके कुछ कर्मचारी दलालों को वो सुविधा दे रहे हैं, जो यक़ीनी तौर पर प्रधानमंत्री मोदीजी स्टार्ट-अप कंपनियों को भी कभी नहीं दे पाएंगे. मुझे पता है, इन सब बातों को लिखने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि जितनी फज़ीहत होनी है, वो झेलनी भी है. दुआ कीजिए कि अगली यात्रा की टिकट भले ही वेटिंग की मिले, पर जाने से पहले कंफर्म ज़रूर हो जाए.

Friday, February 5, 2016

चिन्तन – ‘शहर’

शहर... शहर कहते ही हमारे दिमाग में न जाने कितनी तरह की तस्वीरें उभरती हैं... कुछ देखी-अनदेखी... कुछ जानी-पहचानी... कुछ ख़्वाहिशों के मानिन्द... कुछ चाहतों की तरह... कुछ कोशिशों-सी... कुछ कही-सुनी... कुछ अनकही-अनसुनी... कुछ दौड़ती... कुछ चलती ... कुछ रेंगती ...कुछ स्थिर... कहीं रौशनी से नहाई हुई... बेनज़ीर... कहीं अंधेरे में डूबी हुई... बेज़ार... कहीं उजाड़-सी... वीरान ... कहीं भीड़ की शक़्ल लिए... बेसबब... कहीं तन्हाई लपेटे हुए... बेचैन... कहीं गुफ़्तगू-दिल्लगी करते हुए... बेख़ुद... कभी शोर.. कभी सन्नाटा... कभी चीख... कभी चीत्कार... कभी हंसी.. कभी गुनगुनाहट-सी... पता है... ये तमाम तस्वीरें... यूं ही नहीं उभरती हैं हमारे ज़ेहन में... ये इसलिए उभरती है क्योंकि हम जिस शहर में रह रहे हैं... वो हक़ीक़त में एक बहुरूपिया है... एक ऐसा बहुरूपिया जो अपनी ज़रूरत... अपनी औक़ात... अपनी चाहत... अपने हौसले के हिसाब से अपना रंग-रूप बदल लेता है... अपने हर हिस्से को अपने ही तरह मुक़म्मल बनाते हुए... अपने अंदर कई-कई शहर बना लेता है.. और फिर हर शहर में नज़र आता है... एक-दूसरे का अक़्स।

 हमारे-आपके शहर का नाम भले ही अलग-अलग हो... भले ही उनका इतिहास और भूगोल भी जुदा हो... लेकिन यक़ीन जानिए... उन शहरों के धड़कने... सांस लेने.. और जीने का सलीका .. एक ही है। हर शहर ने अपने अंदर कई-कई शहर बसा रखे हैं... एक वो शहर है... जिसमें रहने वाले लोग बेहद नाज़ुक से... बेहद नज़ाकत वाले होंगे... जिनके बोलने...चलने... खाने... पीने.. उठने... बैठने.. यहां तक कि सांस लेने का भी एक सलीका होगा.. किसी परिन्दे की नज़र से देखने से... शहर बेहद व्यवस्थित नज़र आता होगा...  एक वो शहर जिसमें शहर रहने वाले बेहद रूखे... बेहद असभ्य... बेढब होंगे... और परिन्दे की नज़र में... शहर बेतरतीब – बिख़रा हुआ दिखता होगा... एक और शहर होगा ... जिसमें इन दोनों शहरों के कुछ-कुछ लोग रहते हैं... कुछ संवरे से... कुछ बिखरे से... और इन तीन शहरों के बीच पसरा होगा असंख्य शहरों का काफ़िला जो एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था होने के बावज़ूद... संवरने की कोशिश में जुटा होगा... आप जब शहर के ऊपर उड़ रहे... उस परिन्दे के कंधे पे सवार होकर शहर को (उसकी नज़र से) देखने की कोशिश करेंगे... तो यक़ीन मानिए... आपके ज़ेहन में जितने भी शहरों की तस्वीरें होंगी... बारी-बारी से.. या एकबारगी ही सही... उन सबकी झलक आपको ज़रूर मिलेगी।

एक शहर जो...अलसुबह जाग उठता है और शाम होते ही..सो भी जाता है... एक वो शहर है, जो शाम में ही जागता है और रात भर नहीं सोता... एक शहर जो दिन में जागता है... इस तरह रात और दिन के आठ-आठ पहर में जागने और सोने वाले शहरों की तादाद हर गुज़रते दिन के साथ बनती... बिगड़ती रहती है... लेकिन मिटती कभी नहीं है... और सबसे अहम ये बात कि ये तमाम शहर बसे होते हैं एक शहर के ही भीतर... एक नाम के अंदर... शहर के अंदर शहर... उसके अंदर शहर और फिर उसके अंदर भी शहर.... ऐसा लगता है मानों आमने-सामने रखे दो आईने के बीच में रख दिया गया हो...एक शहर को... यक़ीन जानिए... किसी एक वक़्त में एक शहर अपने भीतर मौज़ूद कई शहरों के साथ भले जी रहा हो... लेकिन उस ख़ास वक़्त में आप चाह कर भी एक से ज़्यादा शहर में अपनी मौज़ूदगी नहीं दर्ज़ करा सकते... आप बहुत संज़ीदा होंगे तो उनको महसूस कर पाएंगे... लेकिन आपके झांकने तक पर पाबन्दी होगी... यहीं से शुरू होता है... शहरों के बासिन्दों के लिए शर्त और शर्तों की लड़ी...

एक देश में रहने के लिए आपको वहां की नागरिकता चाहिए होती है... कुछ देशों में आप दोहरी नागरिकता भी रख सकते हैं... यानी एक वक़्त में आप उन दो देशों के नागरिक होंगे...लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि किसी एक वक़्त में आप, एक शहर के एक अंदर मौज़ूद असंख्य शहरों में से किसी एक ही में रह और जी सकते हैं... फिर आप चाहे कितने भी धनवान... कितने ही बलवान या कितने ही बुद्धिमान क्यों न हो.. शहर आपको किसी ख़ास वक़्त में किसी भी ख़ास वज़ह से एक से ज़्यादा शहर में जीने और रहने की आज़ादी नहीं दे सकता... आपकी हर ज़रूरत के लिए शर्त है.. यक़ीन नहीं आता तो कभी कोशिश करके देखिएगा... इसी तरह हर शहर अपना बासिन्दा बनाने के लिए... अलग-अलग लोगों के सामने अलग-अलग शर्तें रखता है... ये शर्तें सामान्य और असामान्य किसी भी तरह की हो सकती हैं... मुमक़िन ये भी है कि आपके लिए शर्त... कुछ और हो... और आपसे जुड़े किसी शख़्स के लिए कुछ और... आप इन शर्तों को जाने-अनजाने पूरा करते हैं... तभी बन पाते हैं... किसी ख़ास शहर के बासिन्दे... जिस शहर में आपका पैदा हुए.... पले-बढ़े... वहां की आबो-हवा को जज़्ब किए... हो सकता है वहां आपको शर्तों की कोई घुटन न महसूस हो... लेकिन थोड़े से संवेदनशील होते ही.. आप समझने लगेगें कि शहर में मुफ़्त... कुछ भी नहीं है... कुछ नहीं!

Wednesday, December 9, 2015

और बढ़ेंगी कारें... और बढ़ेगा प्रदूषण

ऑड-इवन नंबर प्लेट्स के खेल के ज़रिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बता दिया है कि फैसला लेने में उनकी सरकार किसी दूसरी सरकार से अलग नहीं है। आम आदमी के नाम पर चल रही सरकार पूरी तरह से कॉरपोरेट जगत की हिमायती है और धनी लोगों के हितों का ख़्याल रखने वाली है। दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर यक़ीनन जानलेवा हो चुका है... लेकिन प्रदूषण के इस जानलेवा स्तर से भी ज़्यादा जानलेवा है ऑड-इवन नंबर प्लेट्स वाली गाड़ियों का ऑड-इवन डेज़ में चलाने का फैसला। भले ही ये फैसला प्रायोगित तौर पर किया गया है, लेकिन इस तरह के प्रयोग से दिल्ली में प्रदूषण के स्तर को कम नहीं किया जा सकता है।

एक पखवाड़े में मौसम किस करवट बैठता है, ये तो ख़ुद मौसम विभाग के विशेषज्ञों को भी नहीं पता है (अगर ऐसा होता तो चेन्नई में हालात इतने बदतर नहीं होते जितने आज हैं)। यकीन मानिए अगर 1 तारीख से पहले बारिश हो गई और तो प्रदूषण का वर्तमान स्तर आश्चर्यजनक तरीके से नीचे चला जाएगा और फिर सरकार इस बात का क्रेडिट अपने इस तुगलकी फैसले को देते हुए... प्रायोगिक तौर पर शुरू किए गए इस फैसले को स्थायी रूप देने में लग जाएगी। और अगर 15 जनवरी 2016 तक कोई बारिश नहीं हुई तो प्रदूषण का स्तर ऑड-इवन जैसे लाख प्रयोगों के बाद भी ज्यों का त्यों बना रहेगा या बढ़ जाएगा। उसके बाद सरकार को क्या करना है या करना चाहिए.. ये तो शर्तिया तौर पर केजरीवालजी को भी नहीं पता है।

आगे बढ़ें इससे पहले इन पंक्तियों के लेखक के दावे का अन्वेषण भी ज़रूरी है कि आख़िर ऑड-इवन के फॉर्मूले से कैसे बढ़ेगा प्रदूषण?  चलिए आपकी इस शंका का समाधान किए देते हैं। मान लीजिए एक मध्यम वर्गीय परिवार को एक सेडान लेनी है जिसका बजट उन्होंने 8 से 10 लाख रूपए का बना रखा है। सरकार के नए नियम के स्थायी हो जाने की स्थिति में परिवार एक सेडान की जगह दो छोटी गाड़ियां ख़रीदने को बाध्य होगा । इसी तरह जिन लोगों के पास अभी एक गाड़ी है, वो अपनी बाक़ी ज़रूरतों को दरकिनार कर पहले दूसरी गाड़ी की जुगत में जुट जाएंगे। इसी तरह उच्च मध्यम वर्ग जिनका बजट जैसा है वो उतने ही बजट में दो गाड़ियां खरीदेंगे। दिल्ली में गाड़ियां आपके स्टेट्स को डिनोट करती हैं ऐसे में ऑटोमोबाइल कंपनियों की चाँदी हो जाएगी (आम आदमी की सरकार को अगले इलेक्शन के लिए मोटा फंड ऑटोमोबाइल सेक्टर से मिल जाएगा)। इतना ही नहीं ऑड-इवन के इस खेल से परिवहन विभाग में करप्शन अपने चरम पर पहुंच जाएगा क्योंकि लोगों को अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ ऑड या इवन नंबर की ही गाड़ियाँ चाहिए होंगी।

कैसे होगा प्रदूषण कम?

प्रदूषण का स्तर कैसे कम हो? ये यक़ीनन चिन्तनीय विषय है... लेकिन जिस तरह के समाधान सुझाए जा रहे हैं.. प्रयोग किए जा रहे हैं उससे इसका हल नहीं हो सकता है। सरकार डीजल की गाड़ियों को बैन नहीं करवा सकती है... क्योंकि ऑटोमोबाइल सेक्टर से मिलने वाले चन्दे बंद हो जाएंगे। पैसे वाले इनके आका नाराज़ हो जाएंगे। फिर चाहे केन्द्र की सरकार हो या राज्य की सब इस हमाम में नंगे हैं। पुलिस महज सौ-दौ सौ की वसूली कर जिस तरह हर तरह की गाड़ियों की एंट्री दिल्ली में हो जाती है उसे बंद करके भी दिल्ली का उद्धार किया जा सकता है (यहां महज सौ-दो सौ को महज ना समझें क्योंकि सौ-दो सौ प्रति वाहन के दर से दिल्ली में हर रोज़ दाखिल होने वाहन करोड़ों में चढ़ावा चढ़ाते हैं जो पूरे महकमे में बंटता है)। दस साल से पुराने हो चुके वाहनों को बैन करने का नियम सैद्धान्तिक तौर पर तो लागू है लेकिन इसे पूरी तरह से अमली जामा आज तक नहीं पहनाया जा सका है। आख़िर क्यों? इतना ही नहीं दिल्ली के अंदर डीजल से चलने वाले जेनेरेटर और दूसरे उपकरण के प्रयोग पर सैद्धांतिक रूप से रोक है लेकिन आम आदमी की सरकारी व्यवस्था में तमाम इलाके में धड़ल्ले से इनका प्रयोग हर कहीं होता है।

ख़ैर डीजल के बाद आइए बात की जाए पेट्रोल से चलनेवाले वाहनों की। क्या आपने कभी सोचा है क्यों बढ़ी रही है गाड़ियों की संख्या दरअसल सरकार की पॉलिसी में ही ख़ामी है। तमाम सरकारी ग़ैर सरकारी महकमे में टैक्स बचाने के लिए सैलरी को कैटेगेराइज़्ड किया जाता है । मुख्य वेतन के अलावा कई आनुषांगिक वेतन भी दिए जाते हैं मसलन एचआरए, मेडिकल, कन्वेयांस, आदि-आदि। इन्हीं में से एक सेगमेंट है कंवेयांस यानी यातायात साधन का जिसके तहत तमाम प्राइवेट-पब्लिक सेक्टर कंपनियों में कार्यरत कर्मचारियों ख़ासकर अधिकारियों को कुछ शर्तों के साथ व उनके रैंक के हिसाब से पेट्रोल का ख़र्चा दिया जाता है। अब ज़रा इनके नियमों को देखिए यदि किसी अधिकारी के पास कोई वाहन नहीं है तो उसे एक पूर्वनिर्धारित छोटी राशि दी जाती है, यदि उसके पास दुपहिया वाहन है तो उसे एक तय सीमा में पेट्रोल ख़रीदने की राशि दी जाती है वहीं यदि उस अधिकारी के पास चार पहिया वाहन है तो उसे इस सेगमेंट में सबसे ज़्यादा तय राशि दी जाती है। अब भला बताईए जहां इस तरह के नियम हों वहां कोई कम में ही क्यों संतोष रखे। यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि अधिकारी जैसे-जैसे ऊंचे ओहदे पर बढ़ता जाता है उसे मिलने वाली पेट्रोल की राशि भी उसी हिसाब से बढ़ते जाती है। इस तरह की कंपनियों में नौकरी पाने के बाद तमाम अधिकारियों की पहली कोशिश होती है एक कार ताकी उसे ज़्यादा से ज़्यादा लाभ हो सके।

पूरे देश में इस समय 1 करोड़ से ज़्यादा लोग इस तरह की कंपनियों में काम कर रहे हैं और इस तरह का लाभ ले रहे हैं। देश की राजधानी होने की वज़ह से दिल्ली में ऐसे कर्मचारियों अधिकारियों की भरमार है। क्या इस नियम को उलटा करने का वक़्त नहीं आ गया है?  क्या ऐसा नहीं किया जा सकता कि जिन अधिकारियों के पास वाहन नहीं है उसे कंवेयांस के तहत मिलने वाली राशि सबसे ज़्यादा हो और जिनके पास दुपहिया या चार पहिया वाहन हो उसे क्रमशः उसी अनुपात में कम धनराशि मिले। लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन? क्योंकि इस तरह के फैसले का सीधा असर ऑटोमोबाइल सेक्टर पर पड़ने की संभावना है। लेकिन इन पंक्तियों का लेखक आप को और आप की सरकार को ये आश्वस्त करना चाहता है कि बिना देरी किए प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर में उपरोक्त नियम को उलटा करना चाहिए। ऐसा करने का कोई कुप्रभाव ऑटोमोबाइल सेकटर पर नहीं पड़ेगा। कंवेयांस के तहत मिलने वाली राशि में पब्लिक ट्रांसपोर्ट्स के इस्तेमाल करने वालों को अधिक लाभ की सुविधा देकर लोगों को पर्यावरण के प्रति सचेत और जागरूक करने का समय आन पड़ा है। सिर्फ भाषणबाज़ी से देश की जनता नहीं मानने वाली। किसी सुविधा की शर्त पर प्रदूषण से निपटने का जज़्बा सरकार में ही नहीं है, तो जनता में कहां से होगी? याद रखिए सीढ़ी की सफाई ऊपर से होनी चाहिए नीचे से नहीं वर्ना समय और संसाधन दोनों की बर्बादी तय है। केन्द्र सरकार से गुज़ारिश है कि यथाशीघ्र इस पर काम करे ताकि दिल्ली ही नहीं पूरे देश में पर्यावरण की हालात ठीक हो और प्रदूषण न्यूनतम स्तर आ सके।

जय हिन्द

Monday, November 2, 2015

Why Bihar is prestige issue for BJP?

This time Mr Modi… sorry… Mr Prime Minister is not alluring Bihar and its populace by offering “Achchhe Din” rather he and his colleagues are alluring them with all such issues which really affect the State and its masses. Reservation, Development, Corruption, Scams, Employment, Casteless Society, etc., are the real issues which have been already addressed by the current ruling party. Though Bihar has the lowest literacy rate but people here are much more politically aware than any other state of the country. And, BJP and its alliance has no other choice than above mentioned issues as they know this fact very well. Most Important, alluring them with fake promises and issueless speeches are not going to yield results.

Though they have promised “Achchhe Din” to the whole country but they hardly deliver anything yet. Now they have used all sorts of tricks and pranks to motivate voters of Bihar, right from presenting scary picture of future of Bihar to what Centre can do for them. Fortunately or unfortunately voters understand these things in much better way than they considered being.

Here, one major question arises in everyone’s mind why BJP is so anxious for Bihar victory?  Do they really want to change the condition of Bihar? Do they really concern with the backwardness of Bihar? Do they really want to make Bihar a casteless Society? Do they just need hold over State? The answer of all such question is No… a Big No. Central Government could not make any major decision and could not perform even as per their plan since its formation. Because they have not adequate number of MPs in the Upper house of the Parliament and hence their only hope is Bihar. If NDA wins in Bihar their positions in Upper House may strengthen soon. This is the major reason behind BJP’s anxiety. And later on they can integrate their victory in the Parliamentary Election to be held in 2019.

Though BJP has been proclaiming a mandate and major victory in the State but nervousness could be seen in the top leadership. BJP’s campaign has been very aggressive and extensive in Bihar as compared to the recent held Maharashtra and Haryana State Elections’ campaign.  Alone Mr Prime Minister has address more than 150 rallies in the State and everywhere he put his potential to counter the ruling party because there is no issue left with him at all to counter the current Chief Minister of State. They are fighting with the best team in this election but they themselves doubt their victory with their confusing statements and body languages.

Monday, May 4, 2015

कहां जा रहे हैं हम...

कुछ एक साल पहले तक कहनेवाले ये कहा करते थे कि भारत ,एक ऐसा देश  है, जो एक साथ कई शताब्दियों में जीता है। किन्तु, नियंता बनकर कुछ लोगों ने इस सत्य को झूठ में बदल देने की क़ामयाब कोशिश की और कर रहे हैं। इस उपक्रम में सतह से लेकर जड़ तक प्रभावित हुए हैं। और भारत, विवश हो गया है, एक शताब्दी में जीने को। भारत के लोग खुशी-खुशी या मजबूरन एक जैसे दिखने को विवश हुए हैं। कृषि पर निर्भरता ,उतनी नहीं घटी, जितना गांव से शहर की ओर पलायन हुआ है।
और फ़ायदा! फ़ायदा पता नहीं किसे हुआ और किसे नहीं? पर वे लोग ज़रूर चुप हैं, जो भारत को एक साथ कई शताब्दियों में जीने वालों का देश बताया करते थे। उनकी खुलेआम की आलोचना ने एक बड़ा परिवर्तन ला दिया है। एक ऐसा परिवर्तन, जिसमें पिता अपने बच्चे को पढ़ाना चाहता है, बच्चा डिग्री लेना चाहता है, डिग्रीधारक अपने डिग्री के मुताबिक़ नौकरी की चाह रखता है और खेत जो सुबह जुतने का इंतज़ार करता था, इंतज़ार कर रहा है।
मंत्र पढ़ने-पढ़ानेवालों को भी हवा का रूख़ रास आया, अब तो वे आधुनिकता के साथ प्रपंचों का मणि-कांचन संयोग कर लोगों को अभिभूत कर रहे हैं। चरसी बाबा का रूपान्तरण फोर जी इंटरनेटा बाबा के रूप में हो गया। और फ़ायदा कहीं ज़्यादा बढ़ा है। इतना ज़्यादा कि असर सेंसेक्स तक दिखाई पड़ रहा है।
ख़ैर इस बदलाव ने सिर्फ़ भविष्य की दशा-दिशा बदलने का काम नहीं किया है बल्कि इस बदलाव ने हर चीज़ों पर अपना नियंत्रण बनाया है ऐर जो नियंत्रण में पहले से थे उनपर अपनी पकड़ मज़बूत की है। उच्च वर्ग और मध्यम उच्च वर्ग को हर कुछ करने की आज़ादी उनकी नज़र में भले ही दे दी गई है किन्तु शैली और आज़ादी के उपभोग का तरीक़ा फिर भी नियंता के हाथ में ही है। मध्यम वर्ग की रसोई में कब क्या और कितना पकेगा से लेकर निम्न वर्ग को किन-किन चीज़ो से वंचित रखना है हर कुछ नियंत्रित है। फिर कहने को सभी आज़ाद भारत के नागरिक हैं! भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और तेजी से उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति भी!

Wednesday, February 11, 2015

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं


अपना गुज़रा हुआ कल अभी ज़्यादा पीछे नहीं गया है

फिर उसी सिफ़र से शुरू करते हैं

नाम-रंग-जाति-धर्म हर कुछ

जिन-जिन का वास्ता है क़िस्मत के साथ

उन सबको बदलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


मैं कुछ भी नहीं सोचूंगा... तुम सोचना

मैं कुछ भी नहीं बोलूंगा.... तुम बोलना

मैं किसी से नहीं लडूंगा... तुम लड़ना

मैं कुछ नहीं चाहूंगा... तुम चाहना

तुम सपने देखना... तुम ही उन्हें पूरा करना

हां तुम्हारी शर्तों पर ही ये खेल खेलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


तुम मेरी ज़िन्दगी बस एक बार जी लो

मैं तुम्हारी हर ज़िन्दगी बग़ैर शिक़ायत किए जी लूंगा

चलो तुम्हारी मनचाही मुराद पूरी करते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


चलो एक और वादा करता हूं

मैं नहीं चिढ़ाउंगा तुम्हें हर हार पर

जैसे तुम और बाक़ी लोग चिढ़ाया करते थे

मैं नहीं जलील होने दूंगा तुम्हें सबके सामने

और हां आईने में शक़्ल देखने से भी नहीं रोकूंगा


क़बूल कर लो कि अब ये मेरी भी ख़्वाहिश है

आओ एक-दूसरे की ज़िन्दगी जीते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...