Friday, July 11, 2014

आदमक़द

पिता उसके लिए किसी रिश्ते का नाम न होकर महज़ एक शब्द था। वैसे ही जैसे दुनिया के तमाम वर्णमालाओं को कंठस्थ कराने के लिए, हर वर्ण के साथ एक शब्द चस्पां कर दिया जाता है। रिश्ता, दायरा, मर्यादा, समाज, दुनिया कहने पर शायद ही कोई तस्वीर इन शब्दों के पढ़नेवालों के ज़ेहन में उभरती हो, लेकिन शब्द के मायने ज़रूर समझ में आते हैं। ठीक वैसे ही पिता के साथ जुड़े भाव के अभाव में वो बस पिता को एक शब्द समझता। आजकल वो पिता के बारे में सोच रहा है।

उसके जन्म के तीसरे ही साल पिता गुज़र गए थे। मां ने परवरिश ऐसे की थी कि कभी पिता की कमी महसूस ही नहीं होने दिया। बेहद मुश्किल भरे दौर में भी, मां के साए में, उसे किसी चीज़ की कमी नहीं खली। ऊंची से ऊंची शिक्षा के साथ बेहद अच्छे संस्कारों के साथ बड़ा किया था, उसे। उसको देखकर लोग बरबस ही कह उठते कि आदमी बने तो ऐसे। पिता होते तो क्या ऐसा हो पाता?’ – वो सोच रहा है।

उसे याद है कि कैसे शुरुआत के फांकी के दिन बीते ?  कुछ सुधार हुआ, फिर दो वक़्त की रोटी मिलने लगी। और सुधार हुआ, उसके बाद चार शाम के खाने का इंतज़ाम होने लगा। और फिर दुनिया को खिलाने की कुव्वत हो गई। उसने हर दिन, एक सार्थक क़दम बढ़ाते हुए अब तक ज़िन्दगी जी थी। पिता की कमी किसी वक़्त नहीं महसूस हुई। उस वक़्त भी नहीं जब दोस्तों के पिता उन्हें मैट्रिक की परीक्षा का फॉर्म भरवाने स्कूल के हेडमास्टर के पास आए थे या फिर मैट्रिक का एक्ज़ाम दिलवाने एक्ज़ामनेशन सेंटर तक पहुंचे थे या फिर कॉलेज में दाखिला दिलाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था। वह इन सब वाकयों को देखकर भी उस भाव से अनजान था। नहीं समझ सका था सिर पर पिता के साए का मर्म। कोई भाव कभी नहीं रहा, न कभी जन्मा। पिता के होने के असल मायने, वो अब जानना चाहता है।

जिसे जब ज़रूरी होता जितनी मदद की वो पीछे नहीं हटता। जो नहीं कर सकता या नहीं कर पाता सीधे-सीधे कह देता। दोस्तों के पिताओं के साथ भी वो दोस्तों जैसे ही बातचीत करता। दोस्तों के साथ उनके पिताओं का मज़ाक बनाता। लोग कोशिश करके बिन्दास-बेलौस बनते हैं, यहां एक रिश्ते की कमी ने उसे बेलौस-बिन्दास बना दिया था। हां इतना ज़रूर रहा कि वो कभी बदतमीज़ या बेहूदा नहीं लगा। ख़ुद के पिता ज़िन्दा होते, तो आज वो जैसा है, वैसा ही होता या इससे अलग ? इनदिनों अपनी सोच में वो, एक तलाश पर है।

सोच की तलाश, जब थकान के दहलीज़ पर जा पहुंची तो उसकी सोच ने जाने कहां से एक गली ढूंढ़ निकाली और आगे बढ़ गई। अब तलाश की जगह एक कमी ने ले ली। मतलब पहली बार अब्बू को याद करने की कोशिश शुरू की। अम्मी छोटे भाई के घर गई थी। बेग़म दिनभर अपने कामों में व्यस्त होतीं और वो अपनी सोच में किसी अनजान गली में मुड़कर आगे बढ़ता जा रहा है। अलमारी खोला, पुराने एल्बम्स से अब्बू की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें निकाली और बड़े ग़ौर से उन तस्वीरों को देखा। फिर तस्वीरें एल्बम्स में और एल्बम्स अलमारी में वैसे ही सहेज कर रख दिया। ख़ुद आईने के सामने खड़े होकर, अपने पिता की तस्वीर को याद कर, अपने चेहरे में उनके अक्स ढ़ूंढने की कोशिश की। बड़ी देर तक आदमक़द आईने के सामने खड़ा रहा।