Wednesday, May 29, 2013

'जिन्हें ज़िन्दगी से कुछ नहीं चाहिए था... कुछ भी नहीं'... वो सट्टेबाज़ हो गए ;)

हालिया आई एक फिल्म का नायक, दौलतमंद पिता की इकलौती औलाद है और पेशे से गायक है। उसके पास दुनिया में मौज़ूद हर वो सुख-सुविधा है जिसकी चाहत किसी को हो सकती है। लेकिन वो दौलत-शोहरत, चमक-दमक से ऊब चुका है। ये ऊब, खाए-पिए-अघाए हुए दौलतमंद शख़्स की ऊब है, जिसे ज़िन्दगी से कुछ नहीं चाहिए। फिल्म देखते वक़्त बार-बार ये ख़्याल आता रहा कि क्या इस तरह की सोच भी किसी की हो सकती है?  क्या ऐसा भी कोई हो सकता है, जिसे ज़िन्दगी से कुछ नहीं चाहिए? लेकिन अभी-अभी ख़त्म हुए आईपीएल ने फिल्मी नायक के उस सोच को सही क़रार दिया।एक, दो, नहीं कई-कई ऐसी शख़्सियतें सामने आईं, जिनके बारे में देश के ज़्यादातर लोग कुछ भी नहीं जानते थे या कम जानते थे या फिर कुछ और जानते थे। लेकिन हैरान करने वाली बात तो ये है कि ये तमाम शख़्सयितें खाए-पिए-अघाए लोगों की उसी क़ौम से ताल्लुक़ रखते हैं जिन्हें ज़िन्दगी से यक़ीनन कुछ नहीं चाहिए और जिन्हें अपनी, अपने परिवार और अपने विरासत की भी कोई फ़िक्र नहीं। जिनके लिए गाली और तारीफ़ का मतलब एक है, जिन्हें इज्ज़त और बेइज्ज़ती में कोई फ़र्क नज़र नहीं आता। मेरे इस दावे के पीछे पुख़्ता वज़ूहात हैं।
सबसे पहले तो ये कि जितने लोग भी इस गोरखधंधे में शामिल रहे उनके पास दौलत और शोहरत कमाने के तमाम रास्ते थे जिनके ज़रिए बेशुमार दौलत-शोहरत बटोरी जा सकती थी। लेकिन फिर भी सिर्फ एक सनक को पूरी करने के लिए या फिर ख़ुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए इन लोगों ने जो कुछ भी किया उससे पूरे देश का ही नहीं बल्कि उस खेल का, खेल-प्रेमियों का और उनके परिवार की इज्ज़त मिट्टी-पलीद हुई।सबसे पहले देश के नामी रेसलर स्वर्गीय दारा सिंहजी के पुत्र बिन्दु की बात कीजिए। उसके पास रहने को आलीशान घर, पिता का दिया हुआ बैंक बैलेंस, पूर्वज़ों की ज़मीन-ज़ायदाद और फिल्म इंडस्ट्री में बग़ैर संघर्ष काम सब कुछ था (है?)। लेकिन न जाने कौन सी हवस कलेजे में समाई हुई थी कि आईपीएल में सट्टा लगाने के साथ स्पॉट फिक्सिंग, मैच फिक्सिंग और खिलाड़ियों को लड़कियां सप्लाई तक करने लगा। पहलवान का बेटा दलाल सुनने में कितना अज़ीब लगता है न? लेकिन हक़ीक़त को झुठलाया नहीं जा सकता। कई बार ख़ुद से पूछता हूं क्या पैसा इस क़दर इंसान को पागल कर सकता है? क्या सिर्फ ख़बर में बने रहने के लिए आदमी कुछ  भी कर गुजरने को तैयार हो सकता है?
इंडिया सीमेंट लिमिटेड के मालिक और बीसीसीआई चीफ एन श्रीनिवासन के दामाम गुरूनाथ मयप्पन के पास क्या नहीं था लंबा-चौड़ा कारोबार, आईपीएल में सबसे दमदार टीम की मिलकियत और कॉरपोरेट वर्ल्ड की बैकिंग। एक कारोबारी के लिए इससे ज़्यादा क्या चाहिए होता है। लेकिन नहीं, हर चीज़ को दांव पर लगा कर डी-कंपनी की तर्ज़ पर धंधा करने में लग गए।श्रीसंथ, अजीत चंदीला और अंकीत चव्हाण देश के मिडल क्लास के नुमाइंदे थे। क्रिकेट के ज़रिए इन्होंने ख़ुद के लिए एक मुक़ाम हासिल की। इसमें भी कोई शक नहीं कि इनलोगों ने मेहनत की तब जाकर इनका सेलेक्शन हुआ। लेकिन अपनी जगह बनाए रखने के लिए ज़रूरी एहतियात इन्होंने नहीं बरते और अंततः डी-कंपनी के मामूली गुर्गे बनकर रह गए।ये तो चंद नाम भर हैं, पूरी लिस्ट में तो न जाने कितने ऐसे फिल्मी नायक होंगे जिन्हें ज़िन्दगी में कुछ नहीं चाहिए... कुछ नहीं । बस एक सनक .. एक पागलपन को पूरा करने की ज़िद पाले चले जा रहे थे... बग़ैर अंजाम की परवाह किए... अरे मूरख फिल्म ही देख ली होती...  कम-से-कम ख़ुदकुशी तो नहीं करनी पड़ती ना... अब तो इसके सिवा कोई रास्ता भी नहीं ;)


सट्टेबाज़ नहीं... देशद्रोही हैं.. देशद्रोही


बेटिंग यानी सट्टा को क़ानूनी मान्यता दिलवाने की मुहिम शुरू हो गई है। सट्टा से जुड़े लोगों के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। चलिए होना भी चाहिए ताकि अपराधियों की संख्या में इज़ाफ़ा न हो। अरे भाई, अपने यहां इतनी जेलें कहां है? और तो और अब देश की कमान अंग्रेजों या पुर्तगालों के हाथों में कहां है जो देश की जेलों को भरने के बाद गिरफ़्तार लोगों को मॉरिसस या मकाऊ भेजा जा सके? इसलिए सट्टेबाज़ी को क़ानूनी मान्यता की वक़ालत तमाम जुआरी टाईप नेता इस दलील के साथ करने लगे हैं कि अमेरिका, ब्रिटेन समेत तमाम विकसित देश में इसे मान्यता प्राप्त है।
सट्टेबाज़ी की सिफारिश करनेवाले नेताजी को देश की ज़मीनी हक़ीक़त इसलिए भी नहीं पता है क्योंकि उनकी महफ़िलें प्रायोजित होती हैं वो भी फाइव-स्टार्स और सेवेन स्टार्स होटलों में जिन्हें लोकल ट्रेनों में तो क्या मेट्रों रेल में भी सफ़र नहीं करनी पड़ती। उन्हें क्या पता कि सट्टेबाज़ी का प्रसंस्कृत स्वरूप लॉटरी को कई राज्यों ने सिर्फ इसलिए बंद कर दिया कि ग़रीब क़र्ज़ ले-लेकर लॉटरी लगाते थे और अंततः अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते थे। और सट्टेबाज़ी को एक बार क़ानूनी मान्यता मिल गई तो रक़म उगाही करने वालों को रोक पाना भारत जैसे देश में दुष्कर काम होगा। ख़ैर, ये तमाम उलझाऊ चीज़े नीति-निर्णायक लोग जानें।
जिन लोगों को भी अभी सट्टेबाज़ी या स्पॉट फिक्सिंग या मैच फिक्सिंग में धरा गया है, उनमें से ज़्यादातर के तार दुबई और दाउद से जुड़े होने की बात सामने आ रही है। यहां लाख़ टके का सवाल तो ये है कि क्या गिरफ़्तार हुए लोगों पर केवल ग़ैर-क़ानूनी सट्टेबाज़ी से जुड़े क़ानून के तहत कार्यवायी होगी? और क्या जब सट्टेबाज़ी को देश में क़ानूनी मान्यता मिल जाएगी तो उन्हें बरी कर दिया जाएगा?
सबसे अहम सवाल ये है कि पूरा मामला क्या महज़ सट्टेबाज़ी तक सिमटा है? हक़ीक़त तो ये है कि स्पॉट फिक्सिंग और मैच फिक्सिंग के तार डी-कंपनी से जुड़े होने की वज़ह से ये मामला देशद्रोह का बनता है और इस नाते गिरफ़्तार तमाम लोगों पर देशद्रोह का मुक़दमा दायर कर कार्यवायी होनी चाहिए। इस पूरे मामले में कोई हील-हवाई नहीं होनी देनी चाहिए ताक़ि आनेवाली नस्ल लालच और हवस से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझे। यदि अभिनेता संजय दत्त को महज़ हथियार रखने का दोषी पाए जाने पर पांच साल क़ैद-ए-बामुशक़्क़त की सज़ा दी जाती है तो इस मामले में गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी ही चाहिए। यक़ीन मानिए न्यायपालिका के इस क़दम से समाज में सुरक्षा की भावना मज़बूत होगी। 

Sunday, May 12, 2013

बच्चों की कब्रगाह बनता पूर्वांचल : तो फिर एम्स जैसा अस्पताल रायबरेली में क्यों?

बच्चे यानी देश का भविष्य, लेकिन हर साल दम तोड़ते इन हज़ारों-लाखों 
बच्चों की चिंता किसी को भी नहीं है. न तो उत्तर प्रदेश सरकार को और 
न ही केंद्र सरकार को, क्योंकि अगर चिंता होती, तो एम्स की 
तर्ज पर प्रस्तावित अस्पताल गोरखपुर में स्थापित करने का निर्णय 
लिया जाता, न कि सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र 
रायबरेली में! आख़िर बच्चों की लाश पर अस्पताल की 
यह राजनीति क्यों?

वर्ष 1978 से बच्चों के मरने का सिलसिला आज भी जारी है. बच्चे हर साल मर रहे हैं. पहले तो 
डॉक्टरों को बीमारी का पता ही नहीं चला और जब पता चला, तो सी स्वास्थ्य सुविधाएं ही उपलब्ध 
नहीं थीं, जो इन बच्चों को बचा सकें. हर साल मां की गोद सूनी हो रही है, 
बीमारों एवं बीमारियों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है, लेकिन इसकी फिक्र न तो सूबे 
की सरकार को है और न ही केंद्र सरकार को. पूर्वांचल के बच्चे आज एक ऐसी बीमारी से लड़ रहे हैं, जो या तो 
उनकी जान ले लेती है या फिर उन्हें विकलांग बना देती है. इस बीमारी का नाम है, इंसेफेलाइटिस.
 सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक़, 1978 से अब तक 13 हज़ार बच्चे इस बीमारी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं. 
क़रीब इतने ही शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपंग हो चुके हैं. ग़ौरतलब है कि यह सरकारी रिकॉर्ड है, 
जबकि ज़मीनी सच्चाई इससे कहीं अलग है. यहां सवाल यह उठता है कि पिछले 
34 सालों से जब यह महामारी इस इला़के में हर साल फैल रही है, तो इससे बचने के लिए सरकार ने क्या किया? 
ज़ाहिर है, अगर सरकार ने कोई ठोस क़दम उठाए होते तो, हर साल इतनी मौतें न होतीं. 
बहरहाल, हाल ही में केंद्र सरकार ने देश के अलग-अलग हिस्सों में एम्स (ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज) की 
तर्ज पर छह जगहों पर अस्पताल स्थापित करने का निर्णय लिया. बाद में दो और जगहों पर भी ऐसे ही
अस्पताल खोलने की बात कही गई, जिनमें से एक जगह है रायबरेली. रायबरेली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का 
लोकसभा क्षेत्र है. सवाल यह है कि जब एम्स की तर्ज पर एक अस्पताल उत्तर प्रदेश के हिस्से में आना है, 
तो वह रायबरेली में ही क्यों, जबकि इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इला़के को है,
 क्योंकि वहां सही इलाज न होने के कारण हर साल हज़ारों की तादाद में बच्चे मौत की गोद में समा जाते हैं.
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