Monday, November 29, 2010

ये कैसा देशबंधु है?


मेरा एक दोस्त देशबंधु नाम के अखबार में काम कर रहा है. सब एडिटर है. उसने मुझे बताया कि वो पिछले दो महीने से अपने रूम पर नहीं जा रहा है. वजह, मकान मालिक किराये के लिए पूछता है. और मेरे पास फूटी कौडी नहीं है. उसने बताया कि उसे पिछले 4 महीने से वेतन नहीं मिल रहा है.

दिल्ली एनसीआर से पिछले 2008 से निकलने वाले अखबार देशबंधु कई बार मीडिया की सुर्खियों में रहा. अपने गुणवत्ता की वजह से नहीं. अपने कर्मचारियों को पिछले चार महीनों से वेतन नहीं देने की वजह से. उक्त अखबार के एक कर्मचारी ने अपने नाम न छापने की शर्त पर चाय दुकान को बताया कि पिछले 2 महीने से अपने घर पर नहीं गया है. (दिल्ली में अपने कमरे पर) कभी किसी दोस्त के घर में तो कभी अपने परिचितों के पास रुका हुआ है. यह कहां का न्याय है? आप कर्मचारियों से अच्छा काम और आउटपुट की उम्मीद कर रहे हैं तो उनकी आधारभूत जरूरतों को भी पूरा करना जरूरी है. हद तो तब हुआ जब एक कर्मचारी की मां ने अखबार के मालिक को फोन कर डांट दिया. मगर अबखार का मालिक एक अनजान आदमी की तरह बैठा हुआ है. मीडिया में इतना भयंकर शोषण बाहरी लोगों को क्या पता. लोग मीडिया को इतना ग्लेमर की नजर से देखते हैं. युवा पीढी को तो मीडिया में नौकरी करने का क्रेज है. देशबंधु के एक कर्मचारी की बहन की शादी पर जाने के लिए पैसा मांगा तो कुछ महीनों के कुछ पैसे दिए गए. दो-तीन महीने का पैसा तो सबका लटका हुआ रहता है. इस अखबार के रायपुर हेडक्वार्टर में भी कई बार वेतन को लेकर कहासुनी हो चुकी हैं. इतना होने के बावजूद मालिक के उपर कोई असर नहीं हो रहा है. अखबार के संपादक खुद को इस शोषण से मुक्त करके निकल गए. बाकी लागों का क्या होगा, पता नहीं. वैसे अधिकतर कर्मचारी नौकरी छोडने का मन बना चुके है. इससे अच्छा तो अपने गांव वापस जाकर चाय की दुकान खोलना ज्यादा ठीक रहेगा.

Sunday, November 28, 2010

टाटा, टेप और भोपाल

रतन टाटा टेप मामले में सुप्रीम कोर्ट चले गए हैं. नीरा राडिया फोन-टैप लीक मामले में. अब तक देश की जनता इन्हें ईमानदार मानती रही है. लेकिन इनकी एक कहानी और भी है जिससे इनकी ईमानदारी, नियत पर शक होता है . हम भारतीयों की आदत है. पैसे वालों का लाख गुनाह हमें दिखता नहीं. और गुनहगार रतना टाटा जैसा आदमी हो तो बिल्कुल भी नहीं. टेप कांड में फंसे टाटा की एक और कहानी आप सुनिए. मीडिया में इसकी चर्चा जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हुई है. ये कहानी है टाटा के उन पत्रों की जो उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखे थे. भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े डाओ के मामले में. रतन टाटा आज से 4 साल पहले एक पत्र मनमोहन सिंह, तात्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को भेजते है. इस सुझाव के साथ कि भोपाल गैस कांड से प्रभावित स्थल के साफ-सफाई के लिए 100 करोड रूपयें का एक फंड या ट्रस्ट टाटा कंपनी और अन्य भारतीय उद्योगपति मिल-जुल कर तैयार कर सकते है. टाटा का तर्क था कि चूंकि डाओ केमिकल्स एक बहुत बडी कंपनी है और वह भारत में बहुत बडे पैमाने पर निवेश करना चाहती है इसलिए डाओ को 100 करोड रूपये जमा कराने की जवाबदेयता से मुक्त किया जाना चाहिए. गौरतलब है कि रतन टाटा के द्वारा उक्त पत्र लिखे जाने तक भी डाओ के 100 करोड रुपये देने का मामला अदालत में विचाराधीन था. अदालत में इस बात का तय होना बाकी था कि रुपया जमा कराने के लिए डाओ बाध्य है या नहीं. जाहिर है, रतन टाटा के इस प्रस्ताव के पीछे डाओ को 100 करोड रूपया जमा कराने की जवाबदेही से मुक्त कर देने की मंशा ही काम कर रही थी. ध्यान देने की बात है की जब रतन टाटा ने उक्त पत्र लिखे थे तब वो इंडो-यूएस सीईओ फोरम के को चेयर मैन भी थे. मतलब साफ़ है की वो यह काम कहीं न कहीं अमरीकी दबाव में भी कर रहे थे. टाटा के उक्त सुझाव के पीछे जो तर्क दिया है, उससे भी यह साबित होता है कि इन उद्योगपतियों के दिलो दिमाग पर पैसा किस कदर हावी है. जाहिर है, अभी का टेप कांड भी अपने-आप में कई कहानी को छुपाए हुए है जिसका सार्वजनिक होना नितांत आवश्यक है. ताकि मुखौटे पर मुखौटा चढ़ाए रतन टाटा जैसे लोगो की कहानी आम आदमी को पता लग सकें. उस आम आदमी को जो नैनो खरीद कर टाटा जैसो का बैंक बैलेंस बढाता है.

Friday, November 26, 2010

सुशील मोदी, मोतीहारी के वीरेंद्र सिन्हा से मिल लें



सुशील मोदी को पर्यावरण सुधारने की जिम्मेदारी दी गयी है. मोदी जी, आपका काम आसान हो सकता है. बशर्ते आप मोतीहारी के वीरेंद्र सिन्हा से एक बार मिल ले. मोतीहारी के बेलबनवा मोहल्ला के निवासी वीरेंद्र सिन्हा ने एक ऐसे प्रदूषण निरोधी यंत्र का आविष्कार किया है, जो जेनरेटर या किसी भी इंजन से नकलने वाले धुएं (कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड) और ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करता है. इस यंत्र को छोटे-बड़े सभी तरह के जेनरेटर सेट या धुआं उगलने वाली किसी भी इंजन सेट के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है.

बीआईटी मेसरा ने उनके इस अविष्कार की सघन जांच के बाद कहा है कि यह यंत्र इंजन से निकलने वाले कार्बन कण को अपने अंदर संग्रहित कर वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा को ब़ढाता है और ध्वनि प्रदूषण को 70 फीसदी तक कम कर देता है. इस यंत्र को छोटे-बड़े सभी तरह के जेनरेटर सेट या धुआं उगलने वाली किसी भी इंजन सेट के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है.

आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर पद्मश्री अनिल कुमार गुप्ता के अनुसार विरेंद्र कुमार सिन्हा का यह आविष्कार वायुमंडल को प्रदूषित होने से तो बचाता ही है, इस यंत्र में जमा कार्बन कणों का बाद में जूता पॉलिश बनाने, पेंट बनाने जैसे व्यवसायिक कार्यों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. नेशनल इनोवेशन फांउडेशन, गुजरात ने सिन्हा के इस आविष्कार का पेटेंट भी करवाया है. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आज़ाद ने सिन्हा के इस प्रयास की सराहना की है और वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने उन्हें पुरस्कार से नवाजा, लेकिन खुद उनके राज्य यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और स्थानीय प्रशासन की तऱफ से अब तक सिन्हा को न तो कोई सहायता मिली है और न ही सराहना. इसका एक प्रमाण यह है कि जब नेशनल इनोवेशन फांउडेशन ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस आविष्कार के बारे में सूचित किया और सिन्हा को सहायता देने की बात कही तो जवाब मिला कि सरकार के पास इस तरह की सहायता के लिए कोई प्रावधान नहीं है, जबकि मुख्यमंत्री यदि चाहे तो अपने कोष से ही मदद देकर सिन्हा के इस अविष्कार को कम से कम बिहार में प्रचारित-प्रसारित तो करवा ही सकते हैं, लेकिन बिहार की धरती ही कुछ ऐसी है, जहां की सरकार अपनी प्रतिभा को समय रहते पहचान पाने में अब तक नाकाम रही है.

सी पी ठाकुर अगले डिप्टी सीएम!


भाजपा के विधायक जो सवर्ण है. ठाकुर के स्वजातीय है. अच्छी संख्या में विधान सभा पहुच चुके है.
तो क्या अगले छह महीने या एक साल के भीतर सीपी ठाकुर अपने लिए डिप्टी सीएम का पद मांग सकते है? वैसे मुझे तो इस बात की संभावना दिखा रही है.
आपको दिख रही है क्या?

Thursday, November 25, 2010

फेसबुक चाटवाला

कमाल का आइि‍डया है भइयाजी. एक चाट दुकान जो कि‍स्‍मत बदल दे. हां जी. यह कौनू फोन का प्रचार-व्रचार नहीं एकदम सच्‍ची मुच्‍ची बात है. अबहीं हालही में तो हॉलीवुड का एक झकास सनीमा द सोशल नेटवर्क भारत मां रि‍लीज भवा है. फिल्म मा एक कॉलेज का स्टूडेंस अपनी गर्लफ्रेंड पर नजर राखें के खाति‍र और दोस्तन की जासूसी करन वास्‍ते एक सोशल नेटवर्क डेवलप करता है. बाद में यही बेवसाइट के जरिए वो कार्पोरेट वर्ल्ड की एक बड़ी लड़ाई में शामिल हो जाता है. खैर ये तो हुई फिरंगी बकैती, लेकिन आपको चाय दुकान का देसी स्वाद इस फिल्म में नहीं बल्कि फेसबुक चाटवाले की दुकान से मिली. इस हाइटेक इंडियन स्पाइसी ठेले में आपको इंटरनेट के सभी सोशल साइट के फ्लेवर मिलि‍हें. यकीन नहीं आवत तो खुद ही देख लो फुटुवा में.

अभी इसे नकल कहें या फिकरामस्ती, लेकिन आइडिया ससुरा जबरदस्त है. भगवान जाने, कब यह फेसबुक चाटवाला भारत का अगला अग्रवाल, बीकानेर या हल्दीराम बन जाए. फिलहाल तो यह अपने चाय जासूस के स्कैनर में है.

Tuesday, November 23, 2010

जीत मुबारक, लेकिन.....





नीतीश जी...यह जीत ऐतिहासिक है. बाकी राज्यों के लिए. हिंदुस्तान के लिए. क्योंकि जाति और धर्म की दीवार गिरी. लेकिन...एक दीवार अभी भी गिरनी बाकी है. यह दीवार बाधा है बिहार विकास के सम्पूर्ण विकास के रास्ते में. यह दीवार है अपराध की. अपराधियों की. बाहुबलियों की. जेडी (यूं) के ज्यादातर दागी उम्मीदवार(खुद बाहुबली या उनके रिश्तेदार) चुनाव जीत कर वापस आ रहे है. कानून-व्यवस्था के नाम पर मिले वोट की लाज रखा पाना नीतीश कुमार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. .बिहार के सम्पूर्ण विकास के लिए इन अपराधियों का सम्पूर्ण नाश करना होगा. जनता को आपसे उम्मीदे है. इसीलिए यह ऐतिहासिक जीत मिली है. और हां, याद रखियेगा, आपसे पहले जो शख्स यहां गद्धीनशीं था, उसे भी अपने खुदा होने का यकीं था.........एक बार फिर से मुबारकबाद.....

Monday, November 22, 2010

अब येदियुरप्पा की बारी....


येदियुरप्पा हटें या नहीं, कर्नाटक में भाजपा की सरकार जाए या बचे, लेकिन अच्छी बात यह है कि लंबे समय बाद सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्‌दा बन कर उभरा है. पिछले कुछ समय से ऐसा लगने लगा था जैसे भ्रष्टाचार को हम अपनी नियति मान चुके हैं. घोटालों और रिश्तखोरी की खबरें आती थीं और फिर गायब हो जाती थीं. लेकिन ताजा घटनाक्रमों ने यह बता दिया है कि यह मुद्‌दा अभी मरा नहीं है और आम लोग अभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने का दम रखते हैं.


पहले शशि थरूर, फिर अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाडी और इसके बाद ए राजा. क्या अगला नंबर कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा का है? लग तो यही रहा है कि जमीन घोटालों के आरोपों से घिरे येदियुरप्पा को भी जाना ही होगा. हालांकि, उन्होंने बगावती तेवर अपना लिए हैं और भाजपा उन्हें हटाने के मामले में किसी तरह की जल्दबाजी नहीं करना चाहती, लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी जिस तरह भ्रष्टाचार के मामलों पर केंद्र की यूपीए सरकार पर एक के बाद एक हमले कर रही है, येदियुरप्पा के सामने बचाव के रास्ते कम ही बचे हैं. भाजपा के साथ समस्या यह है कि उसके पास कर्नाटक में उनका कोई विकल्प नहीं है. मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में जिन नेताओं के नाम आ रहे हैं, वे या तो पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं या फिर उन्हें पार्टी विधायकों का समर्थन हासिल नहीं है. येदियुरप्पा यदि अपनी बात पर अड़े रहे तो भाजपा को दक्षिण भारतीय राज्यों में अपनी पहली सरकार की बलि भी देनी पड़ सकती है. पार्टी ऐसा होने नहीं देना चाहती और इसीलिए कोई भी फैसला लेने से पहले पूरी तरह संतुष्ट हो जाना चाहती है, लेकिन मौजूदा हालात में इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. यदि येदियुरप्पा नहीं हटे तो भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की मुहिम एक ढकोसला बन कर रह जाएगा.

Friday, November 19, 2010

गद्दी छोड़ो की राहुल बाबा आते है


अभी-अभी सोनिया जी का बयान आया है.."देश की अर्थव्यवस्था बढी....नैतिक मूल्य गिरे...देश में भ्रष्टाचार उफान पर है....सरकार को ज्यादा प्रभावी होने की जरूरत है".
मतलब.........सोचिये.........
मेरा मन इस बयान का अर्थ तो यही समझ रहा है की...........बस बहुत हुआ मनमोहन सिंह जी....गद्दी छोड़ो की राहुल बाबा आते है......इससे बेहतर मौका फिर मिले न मिले.....आपका मन क्या कहा रहा है....

Thursday, November 18, 2010

संपादक की सोच और इत्तेफाक


लेख की शुरुआत एक खबर से। पटना से दिल्ली आ रहा था। मगध एक्सप्रेस से। रास्ते में टाइम पास करने के लिए एक अखबार खरीद लिया। प्रभात खबर खरीदा। सोचा हरिवंशजी का कुछ बेहतरीन पढ़ने को मिलेगा। मैं निराश नहीं हुआ। जापान के बारे में उन्होंने लिखा था। लेख में बताया गया था कि किस तरह एक जीर्ण-शीर्ण सा देश विकसित बना। प्रभात खबर के संपादक हरिवंशजी ने जापानियों की जीवटता का बेहतरीन जिक्र किया। एक किस्सा कुछ यूं था कि वहां ट्रेनें डॉट में चलती हैं मतलब सेकेंड्स पर. मसलन, 10 बजकर 20 मिनट 15 सेकेंड पर खुलेगी तो वह इसी टाइम पर खुलेगी। एक बार कुछ तकनीकी खराबी की वजह से एक ट्रेन 11 से 12 मिनट लेट हो गई। देशव्यापी मुद्दा बन गया। हमारे यहां भ्रष्टाचार भी देशव्यापी मुद्दा नहीं बन पाता। खैर, ट्रेन लेट होने की वजह की सफाई मंत्री समेत रेल बोर्ड के अधिकारियों को देना पड़ा। वह खुद राष्ट्रीय चैनल पर आए और इस देरी के लिए देश से माफी मांगी और जिम्मेदारी लेते हुए सभी ने इस्तीफा दे दिया। यह है जापानी जनता, नेता और अधिकारियों का अनुशासन। इसी अनुशासन ने जापान को जापान बनाया। अब बात खुद की यात्रा की। जब मैं घर से चला था तो मेरी गाड़ी 6 बजकर दस मिनट पर थी। बमुशि्कल से 10 मिनट पहले मैं स्टेशन पहुंचा। हालांकि, घर से तीन घंटा पहले चला था। मुझे काफी देर भी होती तो तकरीबन 5.30 तक पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन नहीं। दरअसल, लालगंज से हाजीपुर और हाजीपुर से पटना के बीच उम्मीद से अधिक ट्रैफिक का सामना करना पड़ा। उस वक्त मैं घबरा तो बिल्कुल नहीं, रहा था कि गाड़ी छुट जाएगी। पर हां, यह जरूर सोच रहा था कि बिहार में वाकई काफी पैसा आया है। पिछले दिनों धनतेरस के मौके पर रिकॉर्ड गाड़ियों की खरीदारी हुई थी। तो ट्रैफिक तो बढ़ना ही था। खुशी इस बात से हुई कि अफरा-तफरी भरे ट्रैफिक को संभालने के लिए पुलिस लगी थी जो पहले नहीं होता था। पहले मंजर यह होता कि हर कोई अपनी मर्जी से चला जा रहा है। कोई किसी को रोकने वाला नहीं है। इससे बहुत बड़ा कोओस हो जाता था। नौबत तो मारपीट तक की आ जाती थी। पर, अब ऐसा नहीं है। इसके लिए आप बदलते बिहार को शुक्रिया कह सकते हैं, साथ में सीएम नीतीशजी को भी। हां तो काफी मशक्कत से पटना स्टेशन पहुंचा। जल्दबाजी में इधर-उधर भागता हुआ पहुंचा तो पता चला जिस ट्रेन से जाना है वह 10-15 मिनट नहीं, दो घंटे देर से खुलेगी। यह सोचकर काफी झुंझलाहट हो रही थी कि अब इतना वक्त मैं कैसे बिताऊंगा। तभी यह अखबार खरीदा-प्रभात खबर। उसमें हरिवंशजी ने एक देश के महान बनने की कहानी का उदाहरण भी ट्रेन के समय से दिया था। जहां एक तरफ ट्रेनों का लेट होना बेहद मामूली बात है तो दूसरी ओर इसकी वजह से मंत्री तक को इस्तीफा देना पड़ता है। यहां तो अरबों का घोटाला करने वाले मंत्री भी इस्तीफा देने से पहले सरकार गिराने की धमकी देते हैं और गठबंधन धर्म के नाम पर प्रधानमंत्री खामोश रहते हैं। यह है अंतर। बताता चलूं कि मेरी ट्रेन 4 घंटा 12 मिनट देर से खुली। और जिसे दिल्ली सुबह 11.30 तक पहुंचाना था तो वह शाम 6.30 सात घंटा देर से पहुंची। जय हिंद।

ये लोकतंत्र के राजा है








चौथी दुनिया संवाददाता और आरटीआई कार्यकर्ता शशि शेखर ने जब उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा आरटीआई के ज़रिए जुटाया तो प्राप्त सूचना के विश्लेषण से पता चला कि कैसे आम आदमी की गाढ़ी कमाई इन राज्यों के मुख्यमंत्री आवासों पर बेहिसाब ख़र्च की जा रही है.


राजतंत्र नहीं रहा, उसकी जगह प्रजातंत्र आ गया. अब एक राजा की जगह कई राजा मिल कर आम आदमी का शोषण करते हैं. आरटीआई से मिली सूचना के मुताबिक़, इन राजाओं की प्यास बुझाने के लिए आम आदमी को अपनी करोड़ों की कमाई गंवानी पड़ रही है. अपना घर अंधेरे में रखकर राजाओं के आलीशान महलों (मुख्यमंत्री आवास) को रोशन कर रहा है आम आदमी. ख़ुद के सिर पर छत नहीं, लेकिन वह इन राजाओं के महलों की पेंटिंग पर ही लाखों रुपये ख़र्च कर रहा है.

राजनीति पेशा है या समाजसेवा का ज़रिया, इसका जवाब इस साल संसद के मानसून सत्र को देखकर पता लग जाता है. सत्र के दौरान सांसदों ने जिस तरीक़े से अपना वेतन और भत्ता बढ़ाने की मांग की, उससे यह साफ हो गया कि इन माननीयों के लिए राजनीति समाजसेवा का ज़रिया तो कतई नहीं हो सकती. उनके लिए राजनीति पेशे से भी एक क़दम आगे की चीज है. यानी भरपूर सुख-सुविधा भोगने का एक ज़रिया. चाहे इसके लिए जनता को कोई भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े. लेकिन यह हाल स़िर्फ सांसदों का ही नहीं है, राज्य के मुख्यमंत्री भी जनता की जेब ढीली कर सुख-सुविधा भोगने में पीछे नहीं हैं. वह भी तब, जब दिल्ली जैसे शहर में 80 हज़ार से ज़्यादा लोगों के सिर पर छत नहीं है. विदर्भ में अब तक 2 लाख से ज़्यादा किसान असमय मौत को गले लगा चुके हैं. उत्तर प्रदेश में हर साल सैकड़ों बच्चे इंसेफ्लाइटिस की वजह से दम तोड़ देते हैं, लेकिन इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जीवनशैली पर नज़र डालें तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देती है. चमक-दमक से भरपूर तस्वीर. बिल्कुल इंडिया शाइनिंग की तरह. जिस देश की एक बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं, वहीं इन राज्यों में से एक के मुख्यमंत्री आवास का पानी का बिल 62 लाख रुपये आए तो इसे आप क्या कहेंगे? उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के कितने गांवों तक बिजली पहुंची है. और अगर पहुंचती भी है तो कितने घंटों के लिए, यह रिसर्च का मामला हो सकता है, लेकिन इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने आवास को रोशन करने के लिए महीने में 20 लाख रुपये से ज़्यादा बिजली पर ख़र्च कर देते हों तो इसे आप क्या कहेंगे? प्रधानमंत्री भले ही अपने मंत्रियों को विदेश दौरे न करने, सरकारी ख़र्च घटाने की सलाह देते रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री अपने आवास की रंगाई-पुताई पर पांच सालों में 86 लाख रुपया पानी की तरह बहा देते हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती की शाही आदत के मुताबिक़ ही उनके आवास के रखरखाव पर बेशुमार पैसा ख़र्च किया जा रहा है. और यह सब कुछ हो रहा है एक ऐसे देश में, जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. 70 फीसदी आबादी की रोज की आय 20 रुपये से भी कम है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. लेकिन इस सबसे बेपरवाह हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मज़ा ले रहे हैं.

Tuesday, November 2, 2010

विज्ञापन खेल में नंबर वन नीतीश


हिटलशाही के दौर में एक कहावत बहुत मशहूर हुई थी. एक झूठ को सौ बार बोलो, वो सच हो जाएगा. और बकायदा झूठ को प्रचारित करने के लिए हिटलर ने एक मंत्री की भी नियुक्ति की थी. ताजा उदाहरण बिहार सरकार है. विकास और सुशासन की छवि, जो यहां बनी नहीं बनाई गई है, उसमें भी इसी फॅर्मूले का इस्तेमाल किया गया है. यानि, जितना विकास हुआ नहीं उससे कहीं ज्यादा इसके बारे में लोगों को बताया जा रहा है. और, बार-बार बताया जा रहा है. जाहिर है, इसके लिए मीडिया का सहारा लिया गया और जम कर विज्ञापन बांटे गए. सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चार साल के कार्यकाल में करीब 65 करोड रूपये से भी ज्यादा के विज्ञापन विभिन्न अखबारों और न्यूज चैनलों को बांटे गए. जाहिर है, बुलबुल भी वैसी ही नाचेगी जैसे पैसा देने वाला चाहता है. हुआ भी ऐसा ही. करोडों का विज्ञापन लेने के बाद मीडिया ने भी बिहार की ऐसी छवि बनाई मानो सचमुच बिहार अब भूखमुक्त, भयमुक्त, भ्रष्टाचरमुक्त हो गया है.

दरअसल, नीतीश सरकार ने मीडिया की कमजोरी को पहचान लिया है. और, यह कमजोरी है, विज्ञापन की. अफरोज आलम ने बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से आरटीआई के तहत राज्य सरकार द्वारा जारी की गई विज्ञापन के बारे में सूचनाएं मांगी थी. प्राप्त सूचना से पता चलता है कि सरकार का काम पर कम, विज्ञापन करने पर ज़्यादा ध्यान रहा है. सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से साल 2005 से 2010 के बीच(नीतीश कुमार के कार्यकाल के चार सालों में) लगभग 64.48 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए. जबकि लालू-राबड़ी सरकार के कार्यकाल के अंतिम 6 सालों में महज 23.90 करोड़ ही खर्च हुए थे. मिली सूचना के मुताबिक सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग ने साल 2009-10 में (28 फरवरी 2010 तक) 19,66,11,694 (लगभग 20 करोड) रूपये का विज्ञापन जारी किया है, जिसमें से 18,28,22,183 (लगभग 18 करोड से ज्यादा) रूपये का विज्ञापन प्रिन्ट मीडिया को और 1,37,89,511(लगभग डेढ करोड) रूपये का विज्ञापन इलेक्ट्रॅानिक मीडिया को दिया गया. इतना ही नहीं,नीतीश सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर एक ही दिन 1,15,44,045(लगभग 1 करोड से ज्यादा) रूपये का विज्ञापन एक साथ 24 समाचार पत्रों को जारी किया गया. इसमें भी सबसे ज्यादा एक खास समूह के अखबार को दिया गया. कुछ खास अखबारों को तो अकेले 50 लाख रूपये से ज्यादा का विज्ञापन दिया गया है.

अब ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार की असली तस्वीर और विकास की कमजोर चारदीवारी के पीछे का सच दिखा पाना ऐसे अखबारों के लिए कितना मुश्किल है. क्योंकि जब आप सच दिखाएंगे या छापेंगे तो विज्ञापन कैसे मिलेगा?