Friday, December 21, 2012

लोक प्रापण में सूचना प्रौद्योगिकी का सदुपयोग

परिचय - व्यवस्था का प्राथमिक जुड़ाव आमजन से होता है। आमलोगों को दी जा रही सुविधाओं में अनियमितता और भ्रष्टाचार की शिक़ायतें सबसे ज़्यादा हैं। इस वजह से लोगों में व्यवस्था के ख़िलाफ़ असंतुष्टि का भाव ज़्यादा है, जो देश के समुचित विकास में सबसे बड़ी बाधा है। ख़ासकर तब जबकि सूचना-क्रांति के इस दौर में, ख़बरें दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक बमुश्किल कुछ मिनट में पहुंच जाती हों; जहां, एक देश में हो रहे कारोबार से लेकर सामाजिक सरोकार से जुड़े हलचल तक का असर दुनिया के तमाम देशों पर होने में महज कुछ मिनट का वक़्त लग रहा हो; ऐसे में, देश के अंदर हो रही गतिविधियों को पारदर्शी बनाया जाना निहायत ज़रूरी हो जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर सामाजिक सरोकार से जुड़ी तमाम गतिविधियों को न सिर्फ दुरूस्त किया जा सकता है बल्कि भ्रष्टाचार को पूरी तरह से मिटाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सूचना प्रौद्योगिकी का समुचित सदुपयोग कर के व्यवस्था को पूरी तरह से पारदर्शी और स्वस्थ्य बनाया जा सकता है।
पंजीकरण प्रणाली – बात चाहे जन्म-मृत्यु के पंजीकरण की हो या भूमि-भवन-वाहन या किसी और आम उपयोग की वस्तु के पंजीकरण की। आम आदमी की नज़र में पंजीकरण एक ऐसे कार्यालयी काम का एहसास कराता है, जो दुरूह होने के साथ-साथ बेवजह ख़र्चे का कारण भी है। आम आदमी को सबसे ज़्यादा मुसीबतों का सामना ऊपर उल्लेखित विषयों के पंजीकरण में करना पड़ता है। यदि पंजीकरण के सभी कार्यालयों का डिजिटलाइज़ेशन कर दिया जाए अर्थात् इस तरह के कार्यालय की ज़रूरतों के मुताबिक़ कंप्यूटर सॉफ्टवेयर तैयार कर हर तरह के पंजीकरण के काम को ऑनलाइन कर दिया जाए तो इससे न सिर्फ आम आदमी के वक़्त और संसाधन की बचत होगी बल्कि व्यवस्था पारदर्शी भी बन पाएगी। इन तमाम तरह के पंजीकरण के लिए लगनेवाली फीस की अदाएगी की सुविधा भी अगर ऑनलाइन क्रेडिट या डेबिट कार्ड के ज़रिए मुहैया करा दी जाए तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता है।

इतना ही नहीं, रोज़गार के लिए ज़रूरी पंजीकरण और तमाम तरह की रोज़गार योजनाओं के तहत भी भ्रष्टाचार से जुड़ी शिक़ायतों को कंप्यूटराइज़्ड करके या ऑनलाइन सुविधा के ज़रिए कम किया जा सकता है। जिन्हें कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है या तकनीकी रूप से अक्षम लोगों के लिए कार्यालय के अंदर इस तरह की सुविधा दी जा सकती है।  इस तरह की सुविधा से लोगों में व्यवस्था के प्रति सम्मान का भाव जगेगा और व्यवस्था पारदर्शी होगी। अच्छी बात ये है कि कई बड़े राज्यों और शहरों में ई-गवर्नेन्स के तहत इस तरह की शुरुआत हो चुकी है। लेकिन इसे पूर्णरूपेण लागू करना इस वक़्त की सबसे बड़ी चुनौती है।

सार्वजनिक जनवितरण प्रणाली – तमाम राज्यों के लिए दूसरा बड़ा सिरदर्द है सार्वजनिक वितरण प्रणाली फिर चाहे वो राशन के लिए वितरण प्रणाली हो या फिर रसोई और वाहन के ईंधन से जुड़ी वितरण प्रणाली है। यदि इन तमाम सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कंप्यूटराईज़्ड तरीके निष्पादित किया जाए तो यक़ीनन भ्रष्टाचार से जुड़ी ज़्यादातर शिक़ायतों का निपटारा ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाएगा। फिर वो चाहे वितरण के तहत आने वाली सामग्री की गुणवत्ता का मामला हो या फिर नाप-तौल में हेरा-फेरी या फिर वितरण से जुड़ी धांधली का मामला हो। उपभोक्ता से जुड़ी सारी जानकारी को एक जगह मुहैया कराकर, उसे मिले कार्ड या कोटे की रसीद के मुताबिक़, उसकी आंखों के सामने इलेक्ट्रानिक उपकरणों के ज़रिए माप कर हाथ-के-हाथ वितरण से, लंबी क़तारों से छुटकारा मिलने के साथ ही ऊपर बताए गए तमाम शिक़ायतों से एकबारगी निज़ात मिल सकती है। इसे लागू करवाने के लिए शुरुआती दौर में उपभोक्ता की जानकारी जुटाकर उससे डाटा बैंक तैयार करना एक दुष्कर कार्य लग सकता है। लेकिन, आधार योजना के तहत इकट्ठा की गई जानकारी को साझा करके इस काम को भी आसान किया जा सकता है।

पुलिस – नागरिक सुरक्षा यूं तो बेहद अलहदा मामला होता है। लेकिन यहां भी अपराधी और आपराधिक रिकॉर्ड्स की जानकारी को डिजिटलाईज़्ड करके उन्हें ऑनलाइन तमाम राज्यों के पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों को मुहैया कर अपराध के ग्राफ को कम किया जा सकता है। सबसे बड़ी सुविधा तो ये होगी कि शिक़ायतों का वर्गीकरण और उनके निपटारे पर नज़र रखना आसान हो सकेगा और रिकॉर्ड की जानकारी ज़रूरत के मुताबिक़ उपयोग में लाई जा सकेगी। इतना ही नहीं सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के ज़रिए ख़ास तरह के अपराध के लिए ख़ास तरह के उपाय भी किए जा सकते हैं। इस बात की जानकारी जुटाना आसान किया  जा सकता है कि किस तरह के अपराध किन इलाकों में सबसे ज़्यादा या कम हैं और उस हिसाब से उसका निष्पादन और लोगों को सुरक्षा मुहैया कराई जा सकती है।
बैंकिंग आयकर-बीमा और पेंशन प्रणाली – आपको जानकर खुशी होगी कि हमारा देश उन चुनिन्दा देशों में शुमार है जहां कि बैंकिंग प्रणाली पूर्णरूपेण डिजिटलाइज़्ड है और देश के तमाम बैंक से जुड़े खाते सीधे सेटेलाइट के ज़रिए ऑपरेट किए जा सकते हैं। रूपए-पैसे का लेन-देन आज जितना सरल-सहज पहले कभी नहीं था। सबसे अहम ये कि अब किसी तरह के गबन-ग़लती-घपले की गुंजाइश न्यूनतम हो गई है। आपके एटीएम से रूपए की निकास की सूचना आपको पलक झपकते ही मोबाइल और ई-मेल के ज़रिए आपतक पहुंच जाती है। आम लोगों की रूपए-पैसे से जुड़ी दूसरी सुविधाएं मसलन आयकर, बीमा और पेंशन तक की सुविधा के लिए ऑनलाइन व्यवस्था मौजूद है। इस तरह की सुविधा से जहां, लेन-देन आसान हुआ है वहीं, धोखाधड़ी और दूसरे आपराधिक मामलों में गिरावट आई है। नेटबैंकिंग के ज़रिए तो भ्रष्टाचार पर सबसे बड़ा अंकुश लगा है। इस प्रणाली के ज़रिए हर तरह के लेन-देन पर नज़र रख पाना पहले से कहीं ज़्यादा आसान हो गया है। और तो और तमाम सरकारी विभाग किसी तरह के विभागीय ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए नक़द लेन-देन को नियम के तहत लगभग बंद कर चुके हैं। यानी रूपए-पैसे के कारोबार में चाहे बैंकिंग-बीमा हो या आयकर-पेंशन पारदर्शिता का ख़्याल सबसे ज़्यादा रखा जा रहा है।
निविदाओं का ईलेक्ट्रॉनिफिकेशन – तमाम सरकारी विभाग में ख़रीद-फ़रोख्त के लिए पहले तो निविदाओं को ज़रूरी करना होगा। इन तमाम निविदाओं को उस विभाग के वेबसाइट पर मुहैया कराने के साथ ही इससे जुड़ी तमाम प्रक्रिया को ऑनलाइन संपन्न कराना ज़रूरी है। ई-निविदा की इस प्रणाली के ज़रिए लोक प्रापण को पूरी तरह से पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त किया जा सकता है। कम-से-कम धांधली के आरोपों को तो शून्य के स्तर ला पाना बेहद मुमकिन है। ऑनलाइन निविदा में जहां ज़रूरी चीज़ों की फेहरिस्त के साथ-साथ गुणवत्ता, सप्लाई और क़ीमत समेत तमाम तरह की जानकारी दी जाए जिससे निविदा पानेवाली कंपनी या व्यक्ति को आंका जा सके। इसके साथ ही निविदा पाने वाली संस्था या व्यक्ति को निविदा किस आधार को मद्देनज़र रखकर दी जा रही है इसका विवरण भी वेबसाइट उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इसके साथ ही तमाम तरह नक़द लेन-देन को ख़त्म कर ऊपर बताए गए तरीके के मुताबिक़ नेटबैंकिंग के ज़रिए किया जाना चाहिए। इन तमाम क़दमों से न सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा। बल्कि एक स्वस्थ्य और पारदर्शी व्यवस्था आकार ले सकेगी।
निष्कर्ष – लोक प्रापण में सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके एक चुस्त-दुरूस्त व्यवस्था  का निर्माण मुमकिन है।  इस तरह की व्यवस्था में त्रुटियों की गुंजाइश कम-से-कम होती हैं। वहीं काग़ज़ी कार्यवायी और लालफीताशाही से मुक्ति मिलेगी। इतना ही नहीं स्वस्थ्य प्रतियोगिता को बढ़ावा मिलेगा। लोगों का क़ीमती वक़्त बचेगा। और सबसे अहम आम लोगों में व्यवस्था के प्रति आस्था बढ़ेगी।


Tuesday, December 18, 2012

सकारात्मक सतर्कता दृष्टिकोण


परिचय  निःसंदेह निरीक्षण, पुनर्निरीक्षण और प्रति-निरीक्षण (Check, Re-check & Cross Check) सतर्कता के लिए बेहद ज़रूरी है, ठीक वैसे ही और उतना ही, जैसे और जितना कुशल प्रंबधन के लिए स्वयं सतर्कता ज़रूरी है। लेकिन मौजूदा परिवेश में ध्यान देनेवाली बात ये है कि प्रबंधन में सतर्कता कहीं से थोपी हुई न लगे। और सबसे अहम ये कि सतर्कता का असर संस्था के विकास पर सकारात्मक हो, नकारात्मक नहीं। इतना ही नहीं सतर्कता की वजह से संस्था की वृद्धि तय वक़्त पर निर्धारित मानदंडों के मुताबिक़ संपूर्णता के साथ हो। इन सबके लिए ज़रूरी है कि प्रबंधन द्वारा अपनाए जा रहे सतर्कता के तमाम उपाय भी सकारात्मक हों।

कैसे हो सकारात्मक सतर्कता  ? सकारात्मक सतर्कता का तात्पर्य ये है कि भ्रष्टाचार मुक्त माहौल बनाने के क्रम में सतर्कता ऐसी बरती जाए कि जिससे संस्था के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। इसके लिए प्रबंधन को तीन स्तरीय नीति लागू करनी होगी। पहले स्तर पर तमाम कर्मचारियों को जागरूक करने का अभियान चलाना होगा। दूसरे स्तर पर रोधात्मकता की नीति अपनानी होगी ताकि किसी तरह की गड़बड़ी को महज निरीक्षण के ज़रिए रोका जा सके। और तीसरे स्तर पर दंड का प्रावधान करना चाहिए। इस त्रिस्तरीय नीति से सतर्कता को बेहद सकारात्मक तरीके से संस्था के अंदर बनाए रखा और लागू किया जा सकता है।

पहला कदम - जागरूकता अभियान  सतर्कता के लिए जागरूक करना उतना ही ज़रूरी है जितना कि नियम बनाकर लागू करने से पहले उससे जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराना। अब तक हुए भ्रष्टाचार के कई मामलों में पाया गया है कि सतर्कता के लिए अपनाए जाने वाले क़दमों की जानकारी की कमी की वजह से ही ज़्यादातर कर्मचारी दोषी साबित हुए। ऐसे में जागरूकता अभियान को लागू कर सकारात्मक सतर्कता को परवान चढ़ाया जा सकता है। लेकिन, जागरूकता के इस पहले क़दम के लिए भी कई क़दम लिए जाने की ज़रूरत है।

i)  कार्यक्रम का आयोजन -  भ्रष्टाचार का कोई नियमित कोटा नहीं होता, न ही किसी एक ख़ास पैटर्न के ज़रिए किसी भ्रष्ट काम को अंजाम दिया जाता है। ऐसे में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ सतर्कता अभियान के लिए सेमिनार, कार्यशाला (वर्कशॉप), व्‍याख्‍यान तथा वाद-विवाद जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। संस्था के बौद्धि‍क पूंजी आधार में सुधार लाने की दृष्टि से सतर्कता सेमिनार आयोजित किए जाएं। और ऐसे कार्यक्रमों में अधिकारियों को देश के सुप्रसिद्ध सतर्कता अधिकारियों के विचारों से अवगत कराया जाना चाहिए।

ii)           नियमों का पालन  भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने के लिए केन्द्र सरकार ने केन्‍द्रीय सतर्कता आयोग के रूप में संपूर्ण संस्था का ही निर्माण कर रखा है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने देश के अंदर चल रहे तमाम संस्थाओं और कंपनियों के लिए नियम-कायदे बना रखे हैं जिसमें समय-समय पर ज़रूरी बदलाव भी होते रहते हैं। उन तमाम नियमों की अनदेखी न हो इस बात की गारंटी तय कर किसी भी संस्था के प्रबंधन को सकारात्मक तरीके से भ्रष्टाचार मुक्त रखा जा सकता है।

iii)         केस स्टडीज़  भ्रष्टाचार से जुड़ा हर मामला अपने आप में अनोखा और ख़ास होता है। किसी ख़ास या विशेष तरीके से अंजाम दिए गए मामले का अध्ययन हर किसी के लिए ज़रूरी होता है ताकि भविष्य में उसकी पुनरावृति न हो सके। इसके लिए हर तरह के केस स्टडी यानी विशेष मामलों की अध्‍ययन रिपोर्ट को संस्था के कर्मचारियों के ध्‍यान में लाना नितांत आवश्यक है।

iv)          विशेष पत्रिका  केस स्टडीज़ नियमित अंतराल पर कर्मचारियों तक पहुंचाने के साथ-साथ सतर्कता जागरूकता के लिए इससे जुड़े नियम-क़ानून और क़ायदे की जानकारी भी संस्था के हर विभाग तक पहुंचना ज़रूरी है। इसके साथ ही कर्मचारियों को कार्यालय के दैनिक कार्यों में होने वाली परेशानियों के लिए मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। इन सब के लिए सतर्कता विषय पर इन-हाउस विशेष पत्रिका जारी करना भी संस्था के लिए फायदेमंद साबित होगा।

दूसरा क़दम  रोधात्मक सतर्कता संस्था को भ्रष्‍टाचार मुक्‍त प्रशासन प्रदान करने के लिए प्रो-एक्टिव दृष्टिकोण अपनाया जाना ज़रूरी है। ऐसे में रोधात्‍मक सतर्कता ईमानदारी का वातावरण विकसित करने में सहायक है। इसके ज़रिए कार्यप्रणाली में पारदर्शिता तथा जवाबदेही बढ़ाने के लिए नैतिक मूल्‍यों को प्रोत्‍साहित किया जा सकता है। आमजनता को उनकी शिकायतें, यदि कोई हैं दूर करने के लिए संबंधित अधिकारियों से सम्‍पर्क करने का अधिकार देने की दिशा में कई क़दम उठाए जाने चाहिए।

i)             नियमों और प्रक्रियाओं का सरलीकरण  किसी भी संस्था में सबसे ज़्यादा गड़बड़ी नियमों और प्रक्रियाओं की जटिलता और दुरूहता की वज़ह से होती है। ऐसे में नियमों और प्रक्रियाओं के सरलीकरण के ज़रिए कोई भी संस्था सकारात्मक तरीके से सतर्कता नियमों का पालन कर और करवा सकती है। नियम जितने ज़्यादा सरल होंगे तथा इस्तेमाल में आसान होंगे भ्रष्टाचार की गुंजाइश उतनी ही कम होगी।

ii)           स्‍वनिर्णय के दुरूपयोग के क्षेत्र को कम करना  सतर्कता में सबसे बड़ी बाधा है जब निर्णय का अधिकार किसी व्यक्ति विशेष के हाथ में होता है। ऐसे में निर्णय के दुरूपयोग की संभावना कई गुनी ज़्यादा बढ़ जाती है। ऐसे तमाम अवसरों में कमी लाकर स्वनिर्णय के दुरूपयोग को कम किया जा सकता है। एक व्यक्ति की जगह पांच से दस सदस्यों की कमिटी बनाकर सामूहिक निर्णय लेने की परंपरा न सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाने में सक्षम होगी वरन् पारदर्शिता बनाए रखने में भी सफल सिद्ध होगी।

iii)         प्रणाली/प्रक्रिया की खामियों का निरीक्षण - भ्रष्‍टाचार के बिन्‍दुओं को घटाने के लिए प्रणाली/प्रक्रिया की खामियों का पता लगाना बेहद ज़रूरी होता है। वज़ह ये कि कोई भी प्रणाली या प्रक्रिया पूरी तरह से दोष रहित नहीं हो सकती। अब जांच का मुद्दा ये हो कि दोष कितना है और इससे पारदर्शिता कितनी प्रभावित हो रही है। साथ ही प्रक्रिया या प्रणाली में खामी की वज़ह से भ्रष्टाचार की गुंजाइश कितनी रह जा रही है। इन तमाम पहलुओं का समय-समय पर निरीक्षण होना बेहद ज़रूरी है।

iv)          कार्यप्रणाली में पारदर्शिता तथा जवाबदेही को बढ़ाना  संस्था की कार्य प्रणाली शून्य दोष रहित (ज़ीरो एरर) करने का एकमात्र तरीक़ा है कार्यप्रणाली को पहले से ज़्यादा पारदर्शी बनाया जाए और उच्च पदों पर आसीन लोगों की जवाबदेही का दायरा बढ़ाया जाए। जिस प्रकार अधिकार के साथ कर्तव्य का ज्ञान ज़रूरी है ठीक उसी तरह पद के साथ पद की गरिमा और जवाबदेही का ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है। इससे संस्था की साख मज़बूत होती है। इसे सकारात्मक सतर्कता के लिए सबसे प्रभावी क़दम कहा जा सकता है।

v)            शिक़ायतों को त्‍वरित गति से निपटाने के लिए प्रभावी तंत्र लागू करना -  आमतौर पर देखा गया है कि जनशिक़ायतों पर किसी भी संस्था में कोई ख़ास ध्यान नहीं बरता जाता है। जबकि इन शिक़ायतों के ज़रिए हमें कार्य प्रणाली या प्रक्रियाओं से रू-ब-रू होने का  मौक़े मिलते हैं। इतने के बावज़ूद शिक़ायतों को दबाने-छिपाने की कोशिश ज़्यादा की जाती है। कई मौक़े पर तो कर्मचारी शिक़ायत पुस्तिका के मांगने पर भी भड़क जाते हैं। और तो और कई बार मार-पीट पर उतर जाने के भी ख़बर मिलते हैं। ऐसी घटना कार्य प्रणाली और प्रक्रिया की पारदर्शिता पर तो सवाल उठाते ही हैं संस्था की साख पर भी दाग़ लगाने का काम करते हैं। बेहतर तो ये है कि शिक़ायतों को तरजीह देकर उन्हें तेजी से निपटाया जाए और इसके लिए बेहद चुस्त सिस्टम बनाया जाए।

vi)          नियमित तथा औचक निरीक्षण करना  हर स्तर पर निरीक्षण जहां संस्था के पारदर्शिता को बनाए रखने में कारगर सिद्ध होता है। वहीं औचक निरीक्षण से सामयिक खामियों को दूर किया जा सकता है। इस तरह के अभ्यास से सतर्कता के सर्वोच्च शिखर को छूना आसान हो जाता है। नियमित और औचक निरीक्षण किसी भी संस्था के स्वास्थ्य के लिए बेहद फायदेमंद साबित होता है। इस तरीके से संस्था की उन छोटी-मोटी ग़लतियों और ख़ामियों का भी सफाया हो जाता है जिन्हें आमतौर पर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। लेकिन इस तरह की नज़रअंदाज़ी के ख़ामयाज़े बेहद भयावह होते हैं। इसलिए बेहतर है कि संस्था के आला अधिकारी समय-समय पर सभी स्तर पर औचक निरीक्षण करते-करवाते रहें।

vii)        मॉनीटरिंग व रिव्यु - भ्रष्‍टाचार के तरीकों का पता लगाने के लिए संगठन में निपटाए जाने वाले मामलों की मॉनीटरिंग करना निहायत ही ज़रूरी है। इस क़दम से भ्रष्टाचार की आशंका तक का जड़ से नाश किया जा सकता है। किसी भी संस्था में भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए संगठन के भीतर निपटाए जानेवाले मामलों पर कड़ी नज़र रखकर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसके साथ ही संस्था ने निदेशक मंडल द्वारा सतर्कता कार्य-कलापों की छमाही समीक्षा कर कार्य प्रणाली और प्रक्रिया को चुस्त-दुरूस्त बनाया जा सकता है ।

viii)       जन-सम्‍पर्क बिन्‍दुओं की प्रभावी निगरानी करना  सूचना क्रांति के इस दौर में सूचना का प्रचार-प्रसार बड़ी तेज़ी से हो रहा है। ऐसे में संस्था से जुड़ी तमाम ख़बरों पर नज़र रखते हुए। इस पहलू की भी निगरानी की जानी चाहिए कि संस्था से जुड़ी किसी ग़लत सूचना का तो प्रचार-प्रसार नहीं हो रहा है। जहां एक ओर संस्था के लिए सकारात्मक प्रचार-प्रसार की सुविधा का इस्तेमाल करना ज़रूरी होता है वहीं इस बात की गारंटी भी तय की जानी ज़रूरी है कि जन-सम्पर्क के ज़रिए किसी तरह नुक़सान संस्था को नहीं हो रहा हो।


तीसरा क़दम - दण्‍डात्‍मक सतर्कता सभी कर्मचारियों में संगठनात्‍मक नागरिकता की भावना उत्‍पन्‍न करने के लिए, संगठनात्‍मक लक्ष्‍य प्राप्‍त करने में नियमों और प्रक्रिया का स्‍वैच्छिक अनुपालन के लिए और संस्था में सकारात्‍मक अनुशासन बनाने के लिए कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली अनियमितताओं के लिए दण्‍डात्‍मक सतर्कता को एक प्रबंधन औजार के रूप में इस्‍तेमाल किया जाना चाहिए। संस्था के विजन को प्राप्‍त करने में योगदान देने के लिए एक नीतिगत कार्रवाई योजना लागू की जानी चाहिए ।

i)        सतर्कता मामलों और अनुशासनात्‍मक जांच-पड़ताल का तेजी से निपटान   वैसे तो संस्था से जुड़े तमाम विषयों का निपटारा तेज़ी से होना चाहिए उसमें भी सतर्कता और अनुशासन से जुड़े मामलों की जांच-पड़ताल तेज़ी से होनी चाहिए और जांच के बाद नतीज़ों के मुताबिक़ कार्यवायी भी। इस क़दम से सतर्कता में ख़ुद-ब-ख़ुद सकारात्मकता पनपेगी।

ii)           सकारात्‍मक अनुशासन बनाए रखने के लिए क़दम उठाना  अनुशासन का अर्थ यूं तो नियमों का पालन करना होता है लेकिन स्व-अनुशासन के ज़रिए सतर्कता के मानक का ग्राफ ऊंचा रखा जा सकता है। सकारात्मक सतर्कता के लिए कर्मचारियों को सकारात्मक अनुशासन बनाए रखने के लिए प्रेरित किया जाना ज़रूरी है।

iii)                दूसरे एजेंसियों के साथ सामंजस्य बनाना - सतर्कता मामलों में तीव्र कार्रवाई करने के लिए अन्‍य एजेंसियों के साथ सामंजस्य बनाना ज़रूरी है। इससे संस्था की साख बनी रहती है। साथ ही स्व-अनुशासन और पारदर्शिता का लक्ष्य भी आसानी से पाया जा सकता है।

निष्कर्ष - जिस तरह किशोरवय बच्चे की निगरानी उसके समुचित विकास का अहम हिस्सा होता है, ठीक उसी तरह संस्था के सकारात्मक बढ़ोतरी के लिए सकारात्मक सतर्कता ज़रूरी है। सकारात्मक सतर्कता से कर्मचारियों का मनोबल ऊंचा रहता है। इसके साथ ही उनमें संतुष्टि का भाव भी बढ़ता है। जिसकी वजह से संस्था के प्रति उनका विश्वास सुदृढ़ होता है और संस्था के प्रति उनकी संवेदनशीलता में वृद्धि होती है। पेशेवर माहौल के साथ-साथ सौहार्द भी बढ़ता जाता है। इन सब की वजह से विकास की रफ्तार बनी रहती है। अतः ये बात दावे से कही जा सकती है कि सिर्फ सकारात्मक सतर्कता से ही प्रबंधकीय उत्कर्षता हासिल की जा सकती है।


Saturday, December 8, 2012

वित्तीय समावेशन बैंकों के लिए लाभप्रद है।


एक छोटा क़र्ज, एक बचत खाता या एक बीमा पॉलिसी एक निम्न आय वाले परिवार के जीवन शैली में बड़ा परिवर्तन ला सकता है। इसके जरिए परिवार के लोग अपने बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य, आवास और शिक्षा जैसे बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकेंगे। इसकी वजह से निम्न आय वाले परिवार फसल दुष्चक्र, बीमारी या मृत्यु जैसी आपदाओं से सही तरीके से निपट सकेंगे और अपने भविष्य के लिए योजनाएं बना सकेंगे   --- कोफी अन्नानसंयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव के मुंह से निकले इन शब्दों को भारत सरकार के वित्तीय समावेशन जैसे कार्यक्रम के जरिए ही सही मायने में अमलीजामा पहनाया जा सकता है। भारत सरकार ने इस दिशा में पहले चरण काम पूरा करने की अहम जिम्मेदारी सौंपी है देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों को। ओरियंन्टयल बैंक ऑफ कॉमर्स के साथ-साथ देश के तमाम बैंक देश के आख़िरी आदमी तक पहुंचने के अनोखे मुहिम में जुट गए हैं। जिस तेजी और तरीके से देश के तमाम राष्ट्रीय बैंक सरकार के इस मुहिम को कामयाब बनाने में जुटे हैं उससे यकीनन आनेवाले समय में हमारा देश एक बेहद मज़बूत और स्वस्थ्य देश के तौर पर उभरेगा। और इस पूरे मुहिम में राष्ट्रीय बैंक भी मज़बूत होंगे इसमें भी कोई शक नहीं
कैसे होंगे बैंक मज़बूत?
1) लगेगी कम पूंजी इस योजना के तहत गांवों तक पहुंचने के लिए बैंकों को ब्रान्च खोलने की ज़रूरत नहीं है। एक महंगी ग्रामीण शाखा की स्थापना करने के बजाय कोई बैंक किसी ग्रामीण क्षेत्र में सिर्फ अपने एक 'बैंकिंग संवाददाता' को नियुक्त करता है। वह बैंकिंग संवाददाता कोई भी हो सकता है।उदाहरण के लिए आप किसी किराना स्टोर के मालिक को ही ले लीजिए जिसे किसी बैंक ने एक बैंकिंग संवाददाता के रूप में नियुक्त किया है। वह बैंकिंग संवाददाता 20,000 रुपये की लागत वाले 'नियर फील्ड कम्युनिकेशंस' फोन, एक स्कैनर, एक थर्मल प्रिंटर की मदद से ग्राहकों को बैंक संबंधी सूचनाओं का विवरण मुहैया कराता है।उस फोन में वायरलेस कनेक्शन होता है जो वास्तव में बैंक के सर्वर से जुड़ा होता है। इसके जरिए ग्राहकों से जुड़े सभी विवरणों को भेजा जाता है। लिहाजा, किसी ग्रामीण शाखा की स्थापना में 3 से 4 लाख रुपये या उससे ज्यादा खर्च करने के बजाय बैंक महज 20,000 रुपये की नाममात्र की राशि पर ही वित्तीय समावेशन के काम को अंजाम दे रहा है।तुलानात्मक रूप से बड़ी आबादी वाले गांवों के लिए एटीएम जैसी मशीनों (कियोस्क) का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसके लिए गांव के पढ़े-लिखे लोगों की मदद ली जा सकती है। इस तरह एक गांव के सभी परिवारों को बैंक के जरिए जोड़ा जा रहा /सकता है।

2) शुरू हुआ बैंकों का कारोबार जिन बैंकों ने वित्तीय समावेशन के जरिए गांवों में जाकर ग्रामीणों के खाते खोलने शुरू कर दिए हैं उनकी कमाई शुरू हो चुकी है। हो सकता है ये सुनकर आपको एकबारगी यकीन न आए, लेकिन ये सौ-फीसदी सच है। मनरेगा और सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के तहत ग्राम-पंचायतों को मिलने वाली सरकारी सहायता राशि अब सीधे उन बैंकों को मिल रही हैं, जिन्हें उस क्षेत्र के गांवों का दायित्व दिया गया है। और इसके साथ ही राशि के बांटने के काम के जरिए बैंक को 2 फीसदी का कमीशन मिलना तय हो गया है।
3) बढ़ेगा दायरा और व्यापार - बैंकों की आमदनी का जरिया होते हैं - ग्राहक। जो बैंक को छोटे-बड़े बिजनेस देते हैं। इस बात में कोई शक नहीं हमारे देश के ग्रामीणों की आय बेहद कम है, जिस वजह से बैंक गांवों में जाने से कतराते रहे हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्रामीणों की आय भले ही कम है लेकिन उनकी संख्या नहीं। हमारा देश आज भी गांवों में ही बसता है। इसलिए भी वित्तीय समावेशन के जरिए राष्ट्रीय बैंकों को ज्यादा-से-ज्यादा लोगों से जुड़ने का मौका मिलेगा और साथ ही बढ़ेगा उनका व्यापार। आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि देश में 51.36 फीसदी ग्रामीण आबादी के पास बैंक में खाते नहीं हैं। यानी वित्तीय समावेशन सभी बैंको के लिए असीमित व्यापार के मौके सरीखा है क्योंकि इस योजना के जरिए भारत सरकार इन्हीं ग्रामीणों को बैंकिंग से जोड़ना चाहती है। इस सरकारी योजना को तमाम बैंक बखूबी अंजाम भी दे रहे हैं। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हम ओरियन्टल बैंक ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों में देख सकते हैं। हमारे बैंक को (ओरियन्टल बैंक ऑफ कॉमर्स को) मार्च 2013 तक के लिए कुल 574 गांवों तक पहुंचने का लक्ष्य दिया गया है, जबकि हमारे बैंक ने महज एक साल में 300 से ज्यादा गांवों तक अपनी पहुंच बना ली है। कमोबेश तमाम बैंक कुछ इसी तरह के उत्साहवर्द्धक नतीजे दे रहे हैं।

4) कोई प्रतिद्वन्दी नहीं - बड़े व्यापार की संभावना शहरों में ज्यादा होती है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसके साथ जुड़ी एक सच्चाई ये भी है कि कारोबार बढ़ाने के लिए बैंकों के बीच गला-काट प्रतियोगिता भी रहती है। वित्तीय समावेशन की सबसे अहम बात यही है कि सरकार ने सभी बैंकों को अलग-अलग क्षेत्रों के गांव सौंपे हैं। जिससे हर बैंक न सिर्फ अपने लक्ष्य को आसानी से पूरा कर सकता है बल्कि ज्यादा-से-ज्यादा कारोबार की कोशिश भी कर सकता है।

5) दूसरे बैंकिंग उत्पादों के लिए भी मिलेगा बाज़ार  ­- आज बैंकिंग जमा-ऋण के मूल व्यापार से कहीं आगे बढ़ चुका है। यकीनन आने वाले दौर में इन गांवों में बीमा पॉलिसी जैसे बैंकिंग के दूसरे उत्पादों की बिक्री मुमकिन हो सकेगी। जैसे-जैसे ग्रामीणों की जागरूकता और जानकारी बढ़ेगी वैसे-वैसे बैंकों को अपने दूसरे उत्पादों को बेचने में सहूलियत बढ़ती जाएगी। और इन्हीं गांवों में वित्तीय समावेशन के जरिए ही भविष्य में बैंकों के पास कमाई के दूसरे तमाम रास्ते भी खुलेंगे इसमें भी कोई शक नहीं।


5) लोगों का भरोसा बढ़ेगा, साथ ही बढ़ेगी ब्रांड वैल्यु  ­- वित्तीय समावेशन के जरिए समाज के सबसे पिछड़ों तक पहुंच बनाने वाले बैंकों का सिर्फ भोगौलिक-आर्थिक दायरा ही नहीं बढ़ेगा साथ ही बढ़ेगा इन तमाम बैंकों पर लोगों का भरोसा। नतीजतन वित्तीय समावेशन में शामिल सभी बैंकों के बाज़ार मूल्य पर भी इसका सकारात्मक असर होगा।
पिछले दशक के दौरान भारत ने दुनिया में तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में ख़ुद को स्थापित किया है लेकिन एक सच ये भी है कि इस दौरान अमीरों और ग़रीबों के बीच खाई बढ़ी है। भले ही विकास के मामले में भारत नए प्रतिमान स्थापित कर रहा है, हर क्षेत्र में आशातीत लक्ष्य हासिल कर रहा है लेकिन विकास की यह गुणवत्ता सही मायनों में अगर समावेशी नहीं है. तो विकास की गति में स्थायित्व संभव नहीं है

Thursday, December 6, 2012

प्रबंधकीय उत्कर्षता में सतर्कता की भूमिका

परिचयसावधानी हटी, दुर्घटना घटी’’ अगर आपने सड़क के रास्ते देश के किसी भी कोने की यात्रा की होगी तो आपको हिदायत देता ये संदेश कहीं-न-कहीं ज़रूर दिखा होगा। जी हां!  सिर्फ सड़क यात्रा ही नहीं जीवन के सफर में खासकर व्यवसाय, संगठन या योजनाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए भी ये हिदायत बेहद उपयुक्त है। देश में इन दिनों जितने तरह के घोटालों की चर्चा हो रही है, उन तमाम घोटालों की जड़ में सतर्कता की कमी यानी लापरवाही को ही पाया गया है।
प्रबंधन के जानकारों के मुताबिक निरीक्षण, पुनर्निरीक्षण और प्रति-निरीक्षण (Check, Re-Check & Cross Check) के बग़ैर प्रबंधन अधूरा है। यही वजह है कि सतर्कता, प्रबंधन का एक अहम और अलग न किया जा सकने वाला अंग है।  

संसाधन प्रबंधन में सतर्कता – किसी भी संगठन को चलाए जाने के लिए ज़रूरी  संसाधनों को जुटाए जाते वक्त बरती गई सतर्कता न केवल संसाधन के गुणवत्ता की गारंटी तय करती है बल्कि आगामी ज़रूरतों के लिए मानदंड तय कर देती है। इसके साथ ही वक्त और पूंजी की बर्बादी को रोक पाने संगठन को सक्षम बनाती है। प्रबंधकीय विशेषज्ञता के लिए संगठन के लिए संसाधन जुटाने के काम को सबसे ज़्यादा अहम माना गया है। और सतर्कता इसकी अहमियत को कहीं ज़्यादा कारगर बनाता है इसमें कोई शक नहीं।

मानव-संसाधन प्रबंधन में सतर्कता – ज़रूरी संसाधनों में मशीनों और दूसरे उपयोग में आने वाली चीज़ों से कहीं ज़्यादा अहमियत उनके इस्तेमाल करने वालों की होती है इससे हर कोई इत्तेफाक रखता है। इस लिहाज से भी किसी भी संगठन के ब्रांडिंग में उसके लिए काम कर रहे कर्मचारियों की भूमिका अहम होती है। संगठन के वर्तमान से ही उसका भविष्य तय होता है और संगठन में काम करनेवाले कर्मचारी इसकी सबसे मज़बूत कड़ी होते हैं। कुशल प्रबंधन संसाधन जुटाने के अहम काम में सबसे सावधान मानव संसाधन जुटाने में करता है। ताकि संगठन को योग्य और कर्मठ कर्मचारी-अधिकारी मिल सके। इसके बावजूद कई बार देखा गया है कि ऊंचे अधिकारी के व्यक्तिगत कारणों से योग्य कर्मचारी-अधिकारी को उसकी योग्यता और अनुभव के मुताबिक जगह नहीं दी जाती है। कई बार मामला संगठन से बाहर कोर्ट-कचहरी तक खिंच जाता है जिससे संगठन का नाम ख़राब होता है। ऐसे मामलों में सतर्कता बेहद जरूरी हो जाती है। ख़ासकर कर्मचारियों-अधिकारियों के स्थानान्तरण आदि मामलों में निष्पक्षता और पारदर्शिताकी गारंटी तय करने में।

सेवा की गुणवत्ता में सतर्कता – गुजरते वक्त के साथ कर्मचारियों के काम-काज का मुआयना ज़रूरी होता है। संगठन से जुड़े शाखाओं और उन जगहों का औचक निरीक्षण संगठन द्वारा दी जा रही सेवा की गुणवत्ता की गारंटी तय करने में मदद करता है। ई-गवर्नेंस के दौर में संगठन के सेवा की गुणवत्ता के लिए मानदंड तय करने का काम ज़ोरों पर है। अब तो तमाम ऐसे सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जिसके जरिए सेवा की गुणवत्ता और उसकी निगहबानी की जा सकती है। बेहतर प्रबंध कौशल के लिए संगठन द्वारा दी जा रही सेवा की गुणवत्ता बनाए रखना बेहद अहम है।

तकनीक प्रबंधन में सतर्कता – ऊंची तकनीक और तकनीकी जानकारी जहां एक ओर किसी संगठन के कर्मचारियों की ताकत होती है वहीं इसकी कमी संगठन के विकास में बाधक होती है। बेहतर प्रबंधन बाज़ार और ज़रूरतों के मुताबिक संगठन के लिए काम कर रहे अधिकारियों औऱ कर्मचारियों को बदलते तकनीक की ट्रेनिंग की व्यवस्था तो करता ही है। साथ ही इस बात की गांरटी तय करता है तकनीक सीखकर संगठन के लिए काम करने वाला इसका बेज़ा फायदा तो नहीं उठा रहा है। ई-गवर्नेंस के ज़रिए आधुनिक तकनीक की इन्हीं तकनीकी पहलुओं का खासा ध्यान रखा जा रहा है। और व्यवस्था को पूरी तरह चुस्त-दुरूस्त बनाने की कोशिश की जा रही है।

कर्मचारियों को दिए जानेवाले सुविधाओं में सतर्कता – हर संगठन में कर्मचारियों-अधिकारियों का मनोबल बनाए रखने के लिए कई तरह की सुविधाएं दी जाती हैं। लेकिन एलएफसी और इस जैसी कई दूसरी सुविधाओं में कई तरह की गड़बड़ियों की शिक़ायत आती रहती है। सुविधाएं कर्मचारियों के लिए ही होती ज़रूर हैं लेकिन इसके बेज़ा इस्तेमाल का असर संगठन की सेहत पर पड़ता है। थोड़ी सतर्कता इस तरह की शि़क़ायतों पर अंकुश लगा सकती है।

ग्राहकों को मिलने वाली सुविधाओं में सतर्कता – जिस तरह कर्मचारियों-अधिकारियों को मिलने वाली सुविधाओं में सतर्कता ज़रूरी है, ठीक उसी तरह संगठन से जुड़े दूसरे लोग ख़ासतौर पर ग्राहकों के लिए बनाई गई योजनाओं में सतर्कता बरतना निहायत ज़रूरी है।  इस तरह की योजनाओं के क्रियान्वयन में बरती गई सतर्कता संगठन के विकास और ब्रांडिंग में अहम भूमिका निभाते हैं। सतर्कता के ज़रिए ये तय किया जाना ज़रूरी है कि योजना या सुविधा जिनके लिए, जिस रूप में बनाई या दी जा रही है वो उन तक ठीक उसी रूप में पहुंचे।

उपयोगी सामानों की खरीद-फरोख्त में सतर्कता – रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपयोगी सामानों की खरीद-बिक्री में सावधानी ज़रूरी है। फिर चाहे बात मामूली से सामाचार-पत्र, मैगज़ीन की हो या खाने-पीने या स्टेशनरी आईटम्स की। संगठन की ऐसी ज़रूरतों को पूरा करने में हीला-हवाली या ढिलाई संगठन के लिए घातक हो सकती है। इसलिए यहां भी निरीक्षण-पुनर्निरीक्षण और प्रति-निरीक्षण के नियम का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है। ये सतर्कता किसी तरह की अनियमितता रोकने में कारगर साबित होती है।
जन-संपर्क व प्रचार में सतर्कता – कई काम ऐसे होते हैं जो कई बार बेहद ज़रूरी होते हैं और जिसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश सबसे ज़्यादा होती है। संगठन के लिए प्रचार औऱ जन-संपर्क का काम ऐसे ही कामों में से एक है। जन-संपर्क और प्रचार आज बाज़ार के लिए अपरिहार्य बन गए हैं। लेकिन, प्रचार सामाग्री औऱ विज्ञापन के निर्माण में और प्रचार के  बनाए-दिखाए जाने में हुई धांधलियों के उजागर होने पर संगठन को कहीं ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ता है, उसका नाम कहीं ज्यादा ख़राब होता है। कुशल प्रबंधन प्रचार और जन-संपर्क के लिए विशेष इंतजाम करने के साथ-साथ इस बात की गारंटी भी तय करता है कि इसके ज़रिए संगठन को सिर्फ फायदा हो बदनामी नहीं।

आउट-सोर्सिंग व अनुबंध करने में सतर्कता – आजकल तमाम संगठन कार्य-कुशलता और लागत की कमी को ध्यान में रखकर संगठन के कई कामों को बाहरी संगठन से करवाते हैं। फिर चाहे बात संगठन के चल-अचल संपत्ति की चौकीदारी की हो या अकाउंट मैनेज करने जैसे कठिन काम हों। लेकिन इस तरह के कामों को बाहरी संगठनों को सौंपने में सतर्कता बरतने की ज़रूरत सबसे ज़्यादा होती है। इस बात का पूरा ख्याल रखा जाना बेहद ज़रूरी है कि इस तरह के अनुबंध में संगठन से जुड़े किसी अधिकारी-कर्मचारी का हित तो नहीं सध रहा या संगठन की लागत कहीं ज़्यादा तो नहीं आ रही है। ऐसे कामों में चौकसी और पारदर्शिता का ख्याल हर चरण (फेज़) रखा जाना चाहिए।

ईलेक्ट्रॉनिक भुगतान – छोटे-बड़े हर तरह की भुगतान के लिए तमाम संगठनों को नकद भुगतान का इस्तेमाल कम-से-कम करना चाहिए किसी तरह की अनियमितताओं को रोकने के लिए ये प्रयोगअहम पहल साबित होगा। नकद भुगतान के विकल्प के तौर पर ईलेक्टॉनिक भुगतान का इस्तेमाल बढ़ाना जरूरी है। इसके तहत कोई भी संगठन नक़द भुगतान की बजाए सीधे धारक के अकाउंट में धन स्थानान्तरित करते हैं। ई-गवर्नेंस की इस अहम पहल से भ्रष्टाचार पर पूरी तरह अंकुश लगाना मुमकिन हो सकेगा।

निष्कर्ष  - ऊपर बताए प्रबंधन कौशल में सतर्कता के अलावे संगठन को सुचारू रुप से चलाने के लिए समग्रता के साथ सतर्कता जरूरी है। खासकर उन तमाम जगहों पर जहां भ्रष्टाचार की रत्ती भर भी गुंजाइश बाकी रह जाती हो।

अपने स्वास्थ्य के प्रति हर व्यक्ति पहले के मुक़ाबले कहीं ज्यादा सजग हुआ है। इसी सजगता की वजह से देश-दुनिया में जीवन प्रत्याशा यानी लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है। किसी भी संगठन के लंबी उम्र और अच्छी सेहत के लिए उसके स्वास्थ्य का उचित ख्याल रखना बेहद जरूरी है। जिस तरह व्यायाम के जरिए शरीर को स्वस्थ रखने की कोशिश की जाती है। ठीक उसी तरह संगठन के स्वास्थ्य के लिए सतर्कता बेहद ज़रूरी है। इससे संगठन का समुचित विकास तो होता ही, साथ ही प्रबंधकीय उत्कर्षता भी हासिल होती है। जिसका इनाम संगठन से जुड़े हर कर्मचारी को किसी न किसी रूप में ज़रूर हासिल होता है। और सबसे बड़ा इनाम होता है संगठन का हर गुजरते दिन के साथ बड़े ब्रांड में तब्दील होते जाना


ख़बर जो दुनिया ने देखी (01)

अथ श्री जिंदल-गोयल कथा (01)सुभाष चन्द्र गोयल के ज़ी न्यूज़ का कहना है कि कांग्रेस नेता नवीन जिंदल कोयला आवंटन में घोटाले के आरोपों को भले ही झुठला दें, लेकिन इस सच को वह दरकिनार नहीं कर सकते कि उनकी कंपनी ने कोयला घोटाले में खूब पैसा बनाया है। ज़ी न्यूज़ के मुताबिक नवीन जिंदल जब दिल्ली में झूठी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे, तब वहां आरटीआई कार्यकर्ता रमेश अग्रवाल भी व्हील चेयर पर पहुंचे और उन्होंने ने भी जिंदल पर आरोप लगाया कि कोयला आवंटन मामले को उठाने के लिए जिंदल ने रमेश अग्रवाल पर हमला करवाया था।
इतना ही नहीं ज़ी न्यूज़ की मानें तो कोल ब्लॉक आवंटन के मसले पर जब चैनल के पत्रकार ने कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल से सवाल पूछा, तो वो बौखला गए। वे सवाल पर इस क़दर बौखलाए कि उन्होंने सवाल पूछ रहे पत्रकार को धक्का दे दिया। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल को नियमों को ताक पर रखकर एक कोल ब्लॉक का आवंटन किया गया। 27 फरवरी 2009 को दो कंपनियों को दो बड़े कोल ब्लॉक का आवंटन किया गया। दोनों ही कोल ब्लॉक ओडिशा के हैं। एक 300 मेगा मीट्रिक टन और दूसरा 1500 मेगा मीट्रिक टन के। दोनों कोल ब्लॉक को मिलाकर इनकी कीमत 2 लाख करोड़ से ज्यादा होती है।कांग्रेस सांसद और उद्योगपति नवीन जिंदल के मुताबिक़ सितंबर से कोयले के आवंटन के मामले में ज़ी न्यूज़ उनकी कंपनी के ख़िलाफ ग़लत खबरें दिखा रहे थे। जब उन्होंने न्यूज़ चैनल से बात करनी चाही तो उनसे 20 करोड़ रुपये मांगे गए। बाद में ये रकम बढ़ाकर सौ करोड़ कर दी गई। नवीन जिंदल ने ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक समीर आहलूवालिया पर आरोप लगाया कि उनसे 13, 17 और 19 सितंबर को कंपनी के लोगों की मीटिंग हुई, जिसमें उनसे करोड़ों की ये रकम मांगी गई। जिंदल ग्रुप के अधिकारियों ने इस बातचीत को बाकायदा रिकॉर्ड कर लिया और वो टेप प्रेस कांफ्रेंस में दिखाया भी गया। वहीं इस बारे में ज़ी न्यूज का कहना है कि ये सब चैनल को बदनाम करने की साज़िश है। नवीन जिंदल ने उन्हें ख़रीदने की कोशिश की और नाक़ाम रहने पर ये साज़िश रची। अब कोई चाहे जो सफाई दे सच तो ये है कि जिंदल के जाल में ज़ी फंस चुका है ।

ख़बर जो दुनिया जानती है/थी (2)

अथ श्री जिंदल-गोयल कथा (02)
लौह-खनिज व्यापारी जिंदल और गेहूं कारोबारी गोयल हरियाणा से ताल्लुक रखते हैं। दोनों धर्म-जाति-कर्म से एक हैं, इतना ही नहीं दोनों कारोबारियों का कर्मस्थल हरियाणा का हिसार ज़िला है और दोनों ने पिछले दो दशक में ही सबसे ज़्यादा तरक़्क़ी की है। अभी वो ज़माना गुज़रे अर्सा नहीं हुआ है जब दोनों कारोबारियों के घनिष्ठता के चर्चे होते थे। किसी तरह का काम हो, किसी ने जिन्दल के सामने गोयल की सिफारिश रख दी, उसका काम प्राथमिकता के साथ हुआ। और किसी ने गोयल के सामने जिन्दल का नाम भर ले लिया, उसका दामन उसकी चाहतों से लबालब भर दिया जाता, फिर क्या हिसार,  क्या चंडीगढ़ और क्या दिल्ली।
इन सबके पीछे भावना से ज़्यादा दोनों की ज़रूरतें थीं जो एक दूसरे को बांधे हुई थीं/हैं। कुछ ख़ास वज़ूहातों में से सबसे ख़ास वज़ह हम आपको बता देते है। वज़ह ये कि हिसार में जितने भी ट्रस्ट या न्यास हैं सबमें गोयल और जिन्दल ही ट्रस्टी हैं। अग्रसेन जैसे ट्रस्ट जिसके जहां एक ओर इसके ख़ज़ाने लबालब भरे हुए हैं वहीं ख़ुदाई के दौरान निकले छिपे ख़जाने भी दोनों घरानों ने ख़ूब शांति से मिल-बांटकर खाएं हैं/खा रहे हैं। लेकिन इन सबके कारोबारी कहानियों में मोड़ तब आया जब मामला कारोबार से आगे निकल गया।
जी हां, जब बात रसूख और ताक़त की आती तो ज़ी यानी गोयल लोगों को काफी पीछे नज़र आते। यही बात सुभाषचन्द्र गोयल ज़ी को खटक रही थी। वो लोगों को मायोपिया से छुटकारा दिलाना चाहते थे। यहीं से मामला कारोबार से आगे निकल गया क्योंकि ज़ी के खानदान का राजनीतिक रसूख जो हो उनके ख़ुद के परिवार का कोई सदस्य राज्य या देश की राजनीति में नहीं है। इस वज़ह से लोगों की नज़र में जिंदल का क़द कई गुना बढ़ जाता है और सुभाष चन्द्र गोयल ज़ी बौने नज़र आते हैं।

ख़बरों के पीछे की ख़बर (03)

अथ श्री जिंदल-गोयल कथा (03)
इसमें कोई दो राय नहीं कि पारिवारिक विरासत को नवीन जिंदल ने बख़ूबी विस्तार दिया है। कुरूक्षेत्र से सांसद इस उद्योगपति की मां श्रीमती सावित्री जिंदल (स्वर्गीय ओम प्रकाश जिंदल की पत्नी) भी पारिवारिक नैया को ख़ूब ढंग से खे रही हैं। हिसार से विधायक श्रीमती सावित्री जिंदल कई ग़ैर-सरकारी संगठनों की अध्यक्ष हैं और कई सामाजिक सरोकार से जुड़े संगठन चलाती हैं। परिवार की राजनीति में जड़ें गहरी होते जाने की वज़ह से हिसार, हरियाणा और देश में इनकी धाक कहीं ज़्यादा है। कारोबारी प्रतिद्वन्दिता बढ़ते-बढ़ते राजनीतिक महत्वकांक्षा में तब्दील हो गई।सुभाष चंद्र गोयल की नज़र हिसार की विधायक सीट पर थी। जानकारों की मानें तो सुभाष ने अपने पिता को वहां से विधायक बनाने का मंसूबा पाल रखा था। इस मंसूबे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उन्होंने राजनीति का ही सहारा लिया। अपने हथियार यानी मीडिया (टेलीविजन और अख़बार) के ज़रिए वो नवीन जिंदल की कंपनी के ख़िलाफ़ हमला बोल दिया। उन्हें भरोसा था कि जब जिंदल के कारोबार पर इन ख़बरों की वज़ह से बुरा असर पड़ेगा तो, वो इस तरह की ख़बरों को रोकने की एवज़ में हिसार की सीट खाली करवा लेंगे। लेकिन गोयल साहब का ये अंदाज़ा ग़लत निकला। नवीन जिंदल की कंपनी के उच्च अधिकारियों ने धंधे के ज़रिए राजनीति में दाखिल होने का मंसूबा पाले गोयल साहब को ज़ोर का झटका महा ज़ोर से दिया। बीस करोड़ की मांग, सौ करोड़ में तब्दील हुई। इससे पहले की बातचीत की मेज पर हिसार की सीट के लिए मोल-भाव हो कांग्रेस के तेज़-तर्रार सांसद ने पूरी बाज़ी ही पलट कर रख दी। सुभाष गोयल के लिए दलाली कर रहे उनकी ही कंपनी के दोनों नुमाइंदों की पूरी बात-चीत को कैमरे में क़ैद कर जिंदल समूह ने गोयल समूह को मुंह की खाने पर मजबूर कर दिया। कुल मिलाकर नतीज़ा ये निकल रहा है कि अब गोयल समूह अपनी साख बचाने की जुगत में जुट गया है।

ख़बरनवीसों की दुनिया की खलबली (04)

अथ श्री जिंदल-गोयल कथा (04)पत्रकारिता के रास्ते कुछ राजनीति में जाते हैं, कुछ कारोबारी दुनिया में और कुछ जेल। जेल जानेवाले वो लोग होते हैं जिनके लिए पत्रकारिता विशुद्ध दलाली का ज़रिया होती है। लेकिन सारे दलालों को जेल भी नहीं होती। कुछ बेहद क़िस्मत के मारों को ही होती है, या फिर अति-आत्मविश्वास के मारों को। समीर अहलूवालिया और सुधीर चौधरी ऊपर बताए गए दो तथ्यों के दो सबसे सटीक नज़ीर हैं। समीर अहलूवालिया लंबे वक़्त से ज़ी को अपनी सेवा दे रहे थे लेकिन अब तक बचे रहे। वक़्त ख़राब हुआ या यूं कहिए क़िस्मत की मार पड़ी तो जेल पहुंच गए। वहीं सुधीर चौधरी को हश्र होने के पीछे उनका अति आत्मविश्वास ही रहा।
दरअसल सुधीर चौधरी की गिनती  कांग्रेस दिग्गज नेता और हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा के पुत्र दीपेन्द्र हुड्डा के बेहद क़रीबियों में की जाती है। लाइव इंडिया से टिकट कटने के बाद बेकार हुए सुधीर को नौकरी की तलाश थी सो पहुंच गए दीपेन्द्रजी के ज़रिए माननीय मुख्यमंत्री हुड्डा के दरबार में। भूपिन्दर सिंह हुड्डा जी ने सुधीर को पहली पेशकश की श्री विनोद शर्माजी के (मनु शर्मा के पिताजी)इंडिया न्यूज़ के ग्रुप ऑफ चैनल्स के हेडशिप के लिए, जिसे सुधीर साहब ने छूटते ही नकार दिया (चलिए कहीं तो क़िस्मतवाले साबित हुए विनोद शर्माजी)। अब इसे क़िस्मत का फेर कहिए या संयोग सुधीर चौधरी को गोयल समूह और हुड्डाजी की नज़दीकियों की ख़बर थी सो उन्होंने ज़ी न्यूज़ में बतौर न्यूज़ और बिजनेस हेड बनकर जाने की पेशकश की। सूत्रों की मानें तो सुधीर ने ये भी दावा किया कि वो सुभाष गोयल के पिताजी को हिसार से विधायक बनवाने के लिए जी-जान लगा देंगे। यक़ीनन उन्होंने ऐसा किया भी।
लेकिन, इस पूरे घटनाक्रम में सुभाष चन्द्र गोयल ने एक ऐसे शख़्स को दांव पर लगा दिया, जिसने उनके चैनल को फर्श से लेकर अर्श पर पहुंचाया था। जी हां सतीश के सिंह ने अपना ख़ून-पसीना बहा कर ज़ी न्यूज़ को चैनलों की भीड़ से अलग एक ख़ास पहचान दिलवाई थी। सुभाष चन्द्र गोयल ने उस चीज़ को खर्चने की कोशिश की, जो उन्होंने कभी कमाई ही नहीं थी, जो उनकी कभी थी ही नहीं, जो सतीश के सिंह नाम के एक कर्मठ पत्रकार ने कमाई थी, सालों की मिहनत के बाद। जिसे तार-तार करने में ख़ुद गोयल साहब और सुधीर चौधरी ने मिनट भी नहीं लगाया।पूरे वाकये का सबसे मज़ेदार पहलू ये है कि श्री भूपिंदर सिंह हुड्डा और नवीन जिंदल दोनों कांग्रेसी हैं। इसके बावज़ूद पूरे मामले में सुधीर चौधरी और ज़ी समूह को जल्द राहत मिलने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं।

जिंदल के जाल में ज़ी (05)

(अथ श्री जिंदल-गोयल कथा 05)सुभाष चन्द्र गोयल का ख़बरिया चैनल चाहे जो राजनैतिक नज़रिया रखता हो। वैचारिक धरातल पर ख़ुद गोयल साहब बनियों की पार्टी कहे जानेवाली भारतीय जनता पार्टी की तरफ झुकाव रखते हैं। लेकिन, बीजेपी विचारधारा के लिए झुकाव रखने के बावज़ूद कांग्रेस से गलबहियां करना अब सुभाषचन्द्र गोयल की मजबूरी हो गई है। क्योंकि दस्तूर तो ये है कि कांग्रेस के दो दिग्गजों की नाक की लड़ाई में फंसे का कुछ नहीं बचता। उसपर गोयल साहब को पेश की गई चुनौती बेदाग़ साबुत निकलने की है, जो कि बग़ैर कांग्रेसी दामन थामे, मुश्किल ही नहीं नामुमक़िन है। मौज़ूदा वक़्त में उनकी हालात निम्न या मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखनेवाली उस मर्दखोर लड़की की तरह हो गई है, जिसे अपनी शौक की वज़ह से मजबूरन वेश्या बन जाना पड़ता है (याद रहे, उच्च वर्ग में मर्दखोर या औरतखोर होना शौक, ज़रूरत और फैशन से कहीं बढ़कर स्टेट्स सिंबल है)। जबतक ख़ुद को कांग्रेस के हवाले कर सुभाषचन्द्र गोयलज़ी पाकीज़ा नहीं बन जाते तबतक तो ये मानना ही पड़ेगा कि ज़ी’, ‘जिंदल के जाल में ही अटका पड़ा है।

और अब एक संदेश किसी ख़ास के लिए -
सुन रहें हैं पुण्य प्रसून वाजपेयीज़ी चकले पर बैठ कर पान बेचनेवाले को दो पैसे ज़्यादा ज़रूर मिल जाते हों वो इज़्ज़त नहीं मिल पाती जिसका वो हक़दार होता है या जो इज़्ज़त आम रास्ते पर एक आम मज़दूर को यूं ही मज़दूरी के साथ मिल जाया करती है।  वैसे कहलाते तो आप ही प्रबुद्ध हैं यानी जानते भी ज़्यादा बेहतर ही होंगे।