Friday, August 30, 2013

प्रौद्योगिकी और आम आदमी

परिचय  साउदी अरब में रह रहे ईरानी गायक अली वर्दी, हिन्दी गाना गा कर, रातों-रात पूरी दुनिया में मशहूर हो जाते हैं। इंटरनेट के ज़रिए उनके गाने के प्रसार ने तमाम पुराने मिथक ध्वस्त कर दिए हैं। हुनरमंद लोगों के लिए आज पूरी दुनिया में बराबर मौक़े हैं। फिर चाहे वो किसी भी मुल्क़ का हो, किसी भी मज़हब को माननेवाला हो, किसी भी जाति या लिंग का हो। हर तरह की वर्जनाएं, प्रौद्योगिकी यानी तकनीक के फैलते जाल के सामने, टूटती जा रही हैं। तभी तो हर नामुमक़िन लगने वाली चीज़ मुमक़िन होने लगी है। आम आदमी की ज़िन्दगी हर गुज़रते दिन के साथ पहले से ज़्यादा सुविधाजनक होती जा रही है
अभी ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है, जब पूरी दुनिया में हमारे देश भारत की छवि एक ऐसे राष्ट्र की थी जो एक साथ कई-कई शताब्दियों में जीता था। लेकिन, प्रौद्योगिकी में हुए विकास ने एकबारगी भारत जैसे देश को भी विकसित देशों की तरह एक शताब्दी में जीने को बाध्य कर दिया है। और ये बाध्यता इतनी मौलिक और इतनी ग्राह्य है कि आज गांव में रहने वाला अनपढ़ इन्सान भी अपनी ज़िन्दगी बग़ैर मोबाइल फोन के अधूरा पाता है। हर गुज़रते दिन के साथ  विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकास हो रहा है और हर दिन प्रौद्योगिकी का दायरा आम आदमी के बीच बढ़ता जा रहा है। तकनीक में तेजी से हो रहे विकास के अपने फ़ायदे और नुक़सान हैं।  यह सही है कि तकनीकी विकास से देश का विकास हुआ हैदेश में शहरों की संख्या बढ़ी है, साथ ही बढ़ी है शहरी आबादी भी। लेकिन इन सबके बावज़ूद, यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि हमारे देश की आधी से ज़्यादा आबादी आज भी गांवों में रहती है। सही मायने में आम आदमी का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण है। यहां ये बताना सबसे ज़रूरी है कि तकनीकी विकास ने सिर्फ शहरी आबादी को फायदा नहीं पहुंचाया है बल्कि ग्रामीणों को भी इसका सीधा फ़ायदा मिला है। हक़ीक़त तो ये है कि प्रौद्योगिकी के विकास का मानदंड ही हमारे देश में यह है कि जिससे ज़्यादा से ज़्यादा आबादी को फायदा हो। और इसी मानदंड के तहत देश की सबसे बड़ी आबादी यानी किसानों के हक़ में प्रौद्योगिकी का उपयोग अहम हो जाता है। साथ ही अहम हो जाता है प्रौद्योगिकी के ज़रिए खेती को और बेहतर बनाना।
किसानों के लिए उपयोगी प्रौद्योगिकी तमाम दूसरे क्षेत्रों की तरह आज कृषि क्षेत्र का विकास भी प्रौद्योगिकी आधारित हो चला है। जिस तरह तकनीकी क्रांति ने आम आदमी का जीवन बदल दिया है ठीक उसी तरह कृषि प्रधान देश भारत में भी प्रौद्योगिकी सूचना क्रांति ने कृषि के काम को न केवल आसान बना दिया है बल्कि देश को उन्नत कर दुनिया के चुनिन्दा देशों में शामिल करवा दिया है। इस सूचना क्रांति में अहम योगदान दे रहा है, कम्प्यूटर आधारित सूचना प्रौद्योगिकी पक्ष। हम सब जानते हैं शुरुआती दौर में बेतार यंत्रमोर्सकोड और टेलीप्रिन्टर ही सूचना के अंग हुआ करते थे। जानकारी के लिए हम इन्हीं तकनीकों पर निर्भर थे। वहीं आज रेडियोट्रांजिस्टरटेलीफोनमोबाइल,वहीं आज रेडियो, ट्रांज़िस्टर, टेलीफोन, मोबाइल,  कम्प्यूटरटेलीविजनसेटेलाईटइन्टरनेटवीडियो फोनडिजिटल डायरी सभी सूचना क्रांति के उन्नत अंग हैं जिसने प्रौद्योगिकी को नया मायने दिया है। इन प्रौद्योगिकी के ज़रिए जानकारी के साथ सूचना संग्रहण का परिदृश्य ही बदल गया है। किसी भी तरह की जानकारी या ख़बर, इन यंत्रों के जरिए, कुछ मिनटों में ही गाँव-गाँव में किसान हो या मज़दूर तक पहुँच जाती है।
सही वक़्त पर सही जानकारी ने ही भारत में कृषि क्षेत्र को उन्नत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चाहे वर्षा का पूर्वानुमान लगाना हो या कि फसल की उन्नत तकनीकी देखभाल हो कम्प्यूटर के युग में यह काम सरल सहज और आसान हो गया है। गाँव-गाँव में मोबाइल टॉवर कम्प्यूटर इन्टरनेट के सतत् जाल से उपयोगी सूचना का सम्प्रेषण आसान हो गया है। इसका जीता जागता उदाहरण भारत में हरित क्रांति का लहलहाता परचम है। हमारे कृषकों ने हरित क्रांति से अपने खेतों में जो सोना उगाया हैउसी के दम पर हम न केवल खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हैंबल्कि उनका निर्यात भी करने में सक्षम हैं। यह उत्तम दिशा निर्देशनयोजना क्रियान्वयन का उत्कृष्ट वैज्ञानिक परिणाम का नतीजा है कि अत्याधुनिक कम्प्यूटर देश में फैले विभिन्न विक्रय केन्द्रों के आँकड़े नतीजों के आधार पर सफल उत्पादन कर कृषि को व्यवसाय का दर्जा भी दिलवा रहे हैं।
खेत की उपज बढ़ाते प्रौद्योगिकी डाटा विश्लेषण जिसमें मौसम उपग्रह के अनुप्रयोग से न केवल मौसम की सटीक स्थिति पता चलती है
बल्कि खेती में उन्नत प्रौद्योगिकी के प्रयोग की भी मदद मिल जाती है। अधिक फसल कम लागत बहुत कम नुकसान इस सूचना क्रांति का ध्येय बन गया है। आधुनिक कृषि यंत्र न केवल कम्प्यूटर द्वारा संचालित होते हैं बल्कि खेती योग्य जमीनउर्वराजल सिंचन योजना और आर्थिक उपयोगिता के बारे में भी भली प्रकार से जानकारी प्रदान कर हमारी मदद करते हैं। जलवायु के साथ-साथ पूरे देश में बदलते मौसम के पूर्वानुमान के साथ मृदा प्रौद्योगिकी और संरक्षणफसल का चयनबीजारोपण की आधुनिकतम प्रौद्योगिकी की जानकारी भी देते हैं। मृदा में कीटनाशक का प्रयोग कितने प्रतिशत तक सही होगा इसकी जानकारी भी कम्प्यूटर डाटा कार्यक्रम से चंद मिनटों में मिल जाती है।
आज नए सूचना संचार साधनों के विकास के साथ-साथ कम्प्यूटर के उपयोग की माँग भी बढ़ती जा रही है। इससे न केवल समय की बचत होने लगी है बल्कि उत्पादकता में वृद्धि भी दृष्टिगोचर हो रही है। आजकल सरकार भी इस प्रौद्योगिकी को सरल बनाकर किसानों को उनके ही गाँव में न केवल प्रशिक्षित कर रही है बल्कि उनको जमीनखसरा रिकार्ड इत्यादि को देखने और उसकी प्रतिलिपि भी तत्काल घर बैठे उपलब्ध करवा रही है। घर बैठे किसान अपने मोबाइल की स्क्रीन पर जमीन का रकवाकृषि जोतबोई गई फसल का रिकार्डमध्यप्रदेश की भू-अभिलेख की साइट पर जाकर देख लेता है और बाकायदा समय-समय पर उसे सरकारी जानकारी भी मिलती है। इससे अच्छी पारदर्शिता पूर्ण जानकारी किसानों को वक़्त पर मिल जाती है। दक्षता के साथ संपूर्ण जानकारी सिर्फ सूचना क्रांति से ही संभव थी जिसने सरकार और किसान को भावनात्मकसूचनात्मकसंदेशात्मक तौरपर आपस में एक कर दिया।
उपज बढ़ाने में सहायक मौसम का पूर्वानुमान किसान डाटा सेंटर में स्वचलित मौसम केन्द्रस्वचलित वर्षा मापक यंत्र से भी किसान परिचित हो गए है। यह यंत्र सोलर बैटरियों की सहायता से कम्प्यूटर नेट के ज़रिए हर पल के मौसम का हाल पूना स्थित केन्द्र पर संगणित हो मौसम विभाग की वेबसाइट पर भी उपलब्ध रहती है। इसी प्रकार कृषि मौसम एकक सलाह हर राज्य में राज्य के मौसम केन्द्र से प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को आनेवाले पाँच दिनों के लिए जारी की जाती है। इसमें राज्य की भौगोलिक संरचना तथा बोई जाने वाली फसलों के लिए मौसमीय तत्वकृषि कॉलेजों की सहायता से बीज चयन बचाव के तरीकेकीटनाशकों का छिड़काव एक संयुक्त समाचार प्रसारण के जरिए किसानों को उन्नत कृषि से सीधे जोड़ने का प्रयास करती है।
इसमें मौसम विज्ञान विभाग की वेबसाइट राज्य के प्रसारण केन्द्र क्रमशः आकाशवाणी और दूरदर्शन केन्द्रसमाचार पत्र जिला तहसील स्तर के कृषि अधिकारीई-मेलएस.एम.एस. की सहायता से संदेश और सूचना प्रदान कर देश के किसान भाइयों को प्रौद्योगिकी उन्नत बनाने में सरकार की मदद करते हैं। साथ ही किसानों द्वारा मौसम विभाग की टोल फ्री सेवा 18001801717 पर पूरे समय उपलब्ध जानकारी का फोन द्वारा लाभ उठाया जाता है। कुल मिलाकर यह देखा गया है कि आज मानव जीवन में जो जगह कम्प्यूटर की है वही जगह कृषि क्षेत्र में किसानों के लिए कम्प्यूटर के प्रयोग ने बना ली है और उन्नत किसान ने कृषि क्षेत्र में भारत को सूचना क्रांति के साथ दुनियाभर में अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है जो कृषि क्षेत्र में सुखद भविष्य की ओर एक क़ामयाब क़दम है।  
प्रौद्योगिकी आधारित वित्तीय समावेशन के जरिए गांव का विकास  कृषि और उससे जुड़े व्वसाय देश की महत्ता और ज़रूरत को ही देखते हुए सरकार ने ग्रामीण भारत को सुदृढ़ करने के लिए वित्तीय समायोजन यानी फिनान्सियल इन्क्लूज़न योजना बनाई है। इस योजना के तहत गांव के हर घर में कम-से-कम एक व्यक्ति का बचत खाता बैंक में ज़रूर हो। साल 2008 से लागू हुए भारत सरकार के अहम योजना को साकार करने के दायित्व को सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक बखूबी अंजाम दे रहे हैं। इस योजना के प्रथम चरण में सभी बैंकों को 73,000 गांवों के नागरिकों तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गई है। इस योजना के तहत गांवों तक पहुंचने के लिए बैंकों को ब्रान्च खोलने की ज़रूरत नहीं है। एक महंगी ग्रामीण शाखा की स्थापना करने के बजाय कोई बैंक किसी ग्रामीण क्षेत्र में सिर्फ अपने एक 'बैंकिंग संवाददाता' को नियुक्त करता है। वह बैंकिंग संवाददाता कोई भी हो सकता है।उदाहरण के लिए आप किसी किराना स्टोर के मालिक को ही ले लीजिए जिसे किसी बैंक ने एक बैंकिंग संवाददाता के रूप में नियुक्त किया है। वह बैंकिंग संवाददाता 20,000 रुपये की लागत वाले 'नियर फील्ड कम्युनिकेशंस' फोन, एक स्कैनर, एक थर्मल प्रिंटर की मदद से ग्राहकों को बैंक संबंधी सूचनाओं का विवरण मुहैया कराता है। उस फोन में वायरलेस कनेक्शन होता है जो वास्तव में बैंक के सर्वर से जुड़ा होता है। इसके जरिए ग्राहकों से जुड़े सभी विवरणों को भेजा जाता है। लिहाजा, किसी ग्रामीण शाखा की स्थापना में 3 से 4 लाख रुपये या उससे ज्यादा खर्च करने के बजाय बैंक महज 20,000 रुपये की नाममात्र की राशि पर ही वित्तीय समावेशन के काम को अंजाम दे रहे हैं। तुलानात्मक रूप से बड़ी आबादी वाले गांवों के लिए एटीएम जैसी मशीनों (कियॉस्क) का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसके लिए गांव के पढ़े-लिखे लोगों भी मदद कर रहे हैं। इस तरह हर गांव के सभी परिवारों को बैंक के जरिए जोड़ा जा रहा है।
बढ़ती जागरूकता और भागीदारी   सूचना क्रांति के इस दौर में सूचनाएं और ख़बरें तेज़ी से एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंच रही हैं और तकनीकी विकास ने ये मिथक भी तोड़ दिया है कि जो पढ़े-लिखे हैं जानकारी उनतक ही पहुंचेगी। रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से एक अनपढ़ व्यक्ति भी जानकारी हासिल कर पाने में कामयाब है। मोबाइल फोन के बढ़ते इस्तेमाल ने तो सूचना के आदान-प्रदान को निहायत ही आसान कर दिया है। छोटी-मोटी हर ज़रूरतों के लिए अपनाए जा रहे पारंपरिक तरीके ख़त्म होने लगे हैं। फिर चाहे ट्रेन में टिकट बुकिंग की बात हो या बैंक से पैसे निकालना  या जमा कराना। हर कुछ इंटरनेट और मोबाइल फोन के ज़रिए पहले से कहीं आसान तरीके से मुमक़िन है।
 तकनीकी उन्नयन और उपलब्धता के नुक़सान
तकनीक के ज़रिए बढ़ता अपराध – तकनीक के विकास का जितना फ़ायदा आम आदमी को हुआ है, उससे कहीं ज़्यादा फ़ायदा अपराधी उठा रहे हैं। ख़ास तौर पर इंटरनेट के ज़रिए होने वाले अपराधों की तादाद में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है। भोले-भाले लोगों को करोड़ों का ख़्वाब दिखा कर उनके एकाउंट से रक़म उड़ालेने की ख़बर हर दिन अख़बार में देखने को मिलते हैं। इंटरनेट और मोबाइल फोन के इस्तेमाल करने वाले हर शख़्स को इस तरह के मेल या कॉल आते हैं। इतना ही नहीं हैकिंग के ज़रिए बढ़ते अपराध का निशाना आम आदमी ही ज़्यादा हो रहे हैं। ये बात और है कि तकनीकी दक्षता में कमी के साथ-साथ सतर्कता में कमी और लालच इस तरह के शिकार लोगों की असली वजह है। बढ़ता आलस – हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने सर्वेक्षण में पाया कि पहले की तुलना में इंसानों की कर्मठता में कमी आई है। और संस्था ने इसके लिए ज़िम्मेदार तत्वों की पहचान भी की है जिनमें सबसे अहम बताया गया है प्रौद्योगिकी में हुए उन्नयन को। जी हां, ये बात सौ फीसदी सही है कि प्रौद्योगिकी में आई गुणात्मक सुधार ने हमारे मेहनत करने के जज़्बे पर ख़ासा असर डाला है। हमारी क्षमता-दक्षता भी इससे प्रभावित हुई है। इतना ही नहीं हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में लगातार हो रही गिरावट की भी एक वज़ह यही है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि प्रौद्योगिकी का फ़ायदा हम अपने आप की शर्त पर ही उठा रहे हैं। कमज़ोर होती पीढ़ी – कैलकुलेटर, कंप्यूटर, इंटरनेट, आई-पैड, मोबाईल फोन, इन तमाम चीजों ने निःसंदेह पूरी दुनिया को एक गांव में बदल कर रख दिया है। लेकिन सूचना क्रान्ति के इन तमाम अवयवों पर हमारी नई पीढ़ी ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर होती जा रही है। नतीज़तन उनकी लिखने-पढ़ने की आदत कम से कमतर होती जा रही है साथ ही साधारण जोड़-घटाव करने में भी वो ख़ुद को असहज पा रहे हैं। मोबाइल फोन और आई-पैड की टच स्क्रीन सुविधा ने तो हाथ कि लिखावट तक बुरी तरह प्रभावित किया है। वहीं इंटरनेट से बढ़ती नज़दीकी ने युवाओं को कमरे में बंद होने को मजबूर कर दिया है। नतीज़तन उनका स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग – रेफ्रिजरेटर, एयर-कंडीशनर, कूलिंग प्लांट, थर्मल पॉवर प्लांट, न्यूक्लियर पॉवर प्लांट इन तकनीकी शब्दों को पढ़ने में जितनी तकलीफ़ हमारी जीभ को होती है, उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़देह है इनकी मौज़ूदगी। ऊपर बताए गए तमाम नाम धरती के वातावरण को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुंचा रहे हैं। जिसका सीधा असर हम पर पड़ रहा है या आनेवाले दिनों में पड़ेगा फिर चाहे बड़े-बड़े ग्लेशियर का पिघलना हो या ओजोन परत में छिद्र का बढ़ता जाना इन सबकी वज़ह सिर्फ और सिर्फ एक है, वो है ग्लोबल वार्मिंग।  रेडिएशन और इलेक्ट्रॉनिक कचरा – माइक्रोवेव ओवन में रेडिएशन के ज़रिए खाना पकाया जाता है। निःसंदेह समय की बचत तो होती है, लेकिन स्वास्थ्य के लिहाज़ से खाना कितना बेहतर होता है इसकी पड़ताल शायद ही कोई करता है। ठीक इसी तरह मोबाइल फोन से निकलने वाले ध्वनि और दूसरी तरंगे स्वास्थ्य को कितना प्रभावित कर रही हैं बग़ैर इस बात की परवाह किए मोबाइल फोन को इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी तरह पारंपरिक टंग्सटन बल्ब की जगह सीएफएल ने ले ली है और अब एलईडी, सीएफएल की जगह ले रहा है। फ्यूज़ होने के बाद सीएफएल का क्या होगा? ये न तो इसका इस्तेमाल करनेवाले जानते हैं, न इसे बनानेवाले। कमोबेश यही हाल तमाम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का है। हर क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे तकनीकी विकास की वजह से इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या विकराल होती जा रही है। जिसका सबसे ज़्यादा नुक़सान वातावरण को हो रहा है। वजह है, ख़राब हो रहे तमाम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का सही निष्पादन न हो पाना।
निष्कर्ष तकनीक की मदद से भोजन की उपज और उपलब्धता तो ज़रूर बढ़ी लेकिन खाद्य भंडारण व सुरक्षा और पीने का पानी समस्या बन चुकी है। शिक्षा की क्षेत्र में तरक्की ज़रूर हुई लेकिन, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हम पिछड़ते जा रहे हैं। यातायात की सुविधा के लिए मेट्रो रेल जैसी उत्कृष्ठ सेवा हासिल होने के बावजूद घंटों सड़क जाम में फंसे रहने का दंश आम आदमी ही झेलने को मजबूर है। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी पर भले ही जीत मिल गई हो लेकिन, बर्ड-फ्लू, हेपाटाइटिस, डेंगी जैसी बीमारियां स्वास्थ्य सेवा के लिए चुनौती पेश कर रही हैं। मनोरंजन के साधन बढ़े ज़रूर लेकिन नैतिकता की शर्त पर । इतना ही नहीं सुरक्षा के क्षेत्र में तकनीकी विकास के बावजूद घर-बाहर हर कहीं, हर वक़्त आम आदमी ख़ुद को असुरक्षित महूसस करता है।
असुरक्षा की ये भावना आम आदमी के मन में गहरे पैठ चुकी है। फिर चाहे दायरा छोटा हो या बड़ा यानी बात गांव-मोहल्ले-क़स्बे-शहर के स्तर की  हो या राज्य के स्तर की या फिर देश के स्तर की ही क्यों न हो?  तकनीकी विकास की वजह से आम आदमी जितना खुशहाल हुआ है उतना ही असुरक्षित भी। लिहाजा अब तक हुए तकनीक के विकास को एक अहम पड़ाव हासिल करना बाक़ी है। वो अहम पड़ाव है, तकनीकी तौर पर पूर्ण रूप से सुरक्षित समाज की। अब देखना होगा कि तकनीक के विकास के उस दहलीज पर हम कब पहुंचते हैं और पहुंचते हैं भी या नहीं?
निःसंदेह प्रौद्योगिकी ने आम आदमी के जीवन को एक ओर, पहले की तुलना में जहां ज़्यादा आरामदेह और सुविधाजनक बना दिया है, तो वहीं, ज़िन्दगी के लिए ज़रूरतों के मायने बदल दिए हैं। अब देखना रोचक होगा कि दिनों-दिन विकसित होते प्रौद्योगिकी आनेवाले दिनों में किस हद तक आम आदमी के रहन-सहन और संस्कृति में बदलाव लाता है। और इससे कहीं ज़्यादा रोचक ये देखना होगा कि तकनीकी तौर पर समृद्ध होते भारतीय मानसिक तौर पर कितने परिपक्व और स्वस्थ्य होकर उभरते हैं।

Wednesday, August 21, 2013

देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका

आर्थिक आज़ादी के बग़ैर स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है” – महात्मा गांधी

भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने वाले बापू के सपनों को साकार कर रहे हैं देश के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था, वहीं आज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक गरीबी को भारत से उखाड़ फेंकने के मुहिम में जुटे हैं। देश के आखिरी आदमी तक पहुंच बनाने के राष्ट्रपिता के सपने को सही मायने अमलीजामा पहना रहे हैं।

सरकार का सहयोगी आज़ादी मिलने के 64 सालों बाद हमारा देश भारत विकासशील देश की श्रेणी से कहीं आगे बढ़ चुका है। और बहुत तेजी से विकसित देश कहलाने की ओर बढ़ा जा रहा है। पूरी दुनिया में भारत की पहचान एक तेजी से बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति के तौर हो रही है। यकीनन इस कामयाबी के पीछे तमाम संगठनों का योगदान है। लेकिन, देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका कहीं ज्यादा और कहीं बड़ी है।

आय का अहम साधन देश में कुल 27 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक है जिनमें तकरीबन सात लाख कर्मचारी काम करते हैं। देश में मौजूद तमाम बैंकों की सालाना आमदनी लगभग 250 अरब रुपए है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हिस्सा सबसे ज्यादा है। जी हां, बैंकों की कुल आमदनी का तकरीबन 73 फीसदी हिस्सा पब्लिक सेक्टर बैंक यानी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ही आता है।

बात चाहे देश की आमदनी का हो या फिर रोज़गार की या फिर आम आदमी के हक़ में महंगाई को काबू करने की, सभी तरह के परेशानी में सरकार के सहयोगी की भूमिका सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बखूबी निभा रहे हैं। देश की आर्थिक विकास में गांवों की भूमिका अहम होती है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। अब तक गांव और ग्रामीणों की भूमिका अप्रत्य़क्ष रही है। लेकिन अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के जरिए देश के आर्थिक विकास में ग्राम और ग्रामीण की भूमिका को प्रत्यक्ष किया जा रहा है।

वित्तीय समावेशन के जरिए गांव का विकास भारत की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी आज भी गांवों में ही रहती है। कृषि और उससे जुड़े व्वसाय देश की महत्ता और ज़रूरत को देखते हुए भारत सरकार ने ग्रामीण भारत को सुदृढ़ करने की योजना बनाई है। साल 2008 से लागू हुए भारत सरकार के महत्वकांक्षी योजना को साकार करने के अहम दायित्व को सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक बखूबी अंजाम दे रहे हैं। वित्तीय समावेशन नाम की इस अहम योजना के प्रथम चरण में सभी बैंकों को 73,000 गांवों के नागरिकों तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गई है। सार्वजनिक क्षेत्र पूरी तन्मयता से इस योजना को अंजाम दे रहे हैं। देश के विकास में आम आदमी की हिस्सेदारी-भागीदारी सुनिश्चित करने की अहम योजना के तहत आने वाले दिनों में सभी 6 लाख गांव लाभान्वित होंगे। और गांवों के समुचित विकास के साथ देश का आर्थिक विकास अपने लक्ष्य को सही मायने पूरा हो सकेगा।

महंगाई को काबू करने में सहायक  देश की आर्थिक प्रगति के फलस्वरूप देश के लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है। उनकी जीवन प्रत्याशा ही नहीं बढ़ी है जीवन स्तर में भी सुधार हुआ है। और ये सबकुछ मुमकिन हो सका है देश की आर्थिक उन्नति की बदौलत। आर्थिक प्रगति का ही नतीजा है कि देश के प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है साथ ही हर गुजरते दिन के साथ बढ़ रही है उनकी खरीद-क्षमता (परचेजिंग कपेसिटी)। खरीद क्षमता बाज़ार की वजह से मांग (डिमांड) में जबर्दस्त तेज़ी आई है। और उत्पादन बढ़ने के बावजूद मांग पूरी नहीं हो पा रही है। इस पूरे उपक्रम में महंगाई का  बढ़ना तय माना जाता है, ये अर्थशास्त्र का बेहद साधारण नियम है। लेकिन आम आदमी खुशहाली बने रहे सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है। और यही वजह है कि बैंकों का नियामक रिज़र्व बैंक आम आदमी के हित में महंगाई को काबू करने के लिए कटिबद्ध है। हाल के दिनों में महंगाई को काबू में करने के लिए रिजर्व बैंक ने ताबड़-तोड़ ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है। इस बढ़ोतरी से बैंकों को होने वाली आमदनी पर बुरा असर पड़ने के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक देशहित में रिजर्व बैंक के फैसले के साथ डटे हुए हैं। और मौजूदा हालात से उबरने में सरकार की मदद में जुटे हैं।

रोज़गार बढ़ाते सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

फिर चाहे बात रोज़गार देने की हो या रोज़गार बढ़ाने की या क़ाबिल लोगों को स्वरोज़गार के लिए तैयार करने की। हर कहीं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अहम भूमिका निभा रहे हैं। आंकड़ों की नज़र से देखें तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक तकरीबन 7 लाख लोगों को सीधे तौर पर रोज़गार मुहैया करा रही है। वहीं अतिसूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यम का पोषण कर सार्वजनिक बैंक इस क्षेत्र में लगे करीब 6 करोड़ लोगों को रोज़गारोन्मुख बनाया है। इसके अलावा देश के तमाम दूसरे अहम सरकारी-ग़ैर सरकारी संगठनों के लिए सुदृढ़ आधार की भूमिका निभा रहे हैं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक।

देश के चहुंमुखी विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

ग्यारहवें पंचवर्षीय योजना साल 2012 में समाप्त होने को है। इस योजना को पूरा करने में भी सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों ने अहम भूमिका निभाई है। ग्यारहवें पंचवर्षीय योजना के तहत सरकार ने आधारभूत परियोजनाओं की अहम शुरूआत की है। इस योजना के तहत देश में  कुल 25 हजार किलोमीटर सड़क बनाने के लक्ष्य के साथ-साथ 10,300 किलोमीटर लंबी नई रेल पटरियां बिछाने का लक्ष्य रखा गया है। इतना ही नहीं उर्जा के क्षेत्र में 70,000 मेगावॉट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इतना ही नहीं बंदरगाहों और हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण और नव निर्माण की बृहद योजना को भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की मदद से अमलीजामा पहनाया जा रहा है। इसी तरह दूर-संचार, पेयजल, सिंचाई, खाद्यान्न भंडारण को बढ़ावा देने के लिए शुरु किए गए तमाम योजनाओं के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों खुले दिल से सरकार का साथ दे रहे हैं।



शीला के सस्ते ‘सेब’ की सच्चाई

दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित के सस्ते सेब की सच्चाई सपनीली नहीं, पनीली है। दिल्ली में जो सेब 40 से 50 रूपए किलोग्राम बिक रहे हैं, क्या शीलाजी भी वही सेब खा रही हैं? इसकी चर्चा हम बाद में करेंगे। सबसे पहले तो चर्चा सबसे अहम तथ्य की कि दिल्ली में प्याज से सस्ता सेब कैसे बिक रहा है? और अगर सस्ते सेब बिकने का श्रेय माननीया मुख्यमंत्रीजी ले रही हैं, तो क्या जिन वज़हों से दिल्ली में सेब सस्ते मिल रहे हैं, उन वज़हों को भी शीलाजी उसी शिद्दत से अपनाएंगी?चलिए पहले चर्चा करते हैं कि दिल्ली में आख़िर प्याज से सस्ता सेब हुआ कैसे? दिल्ली में सेब के सस्ते होने की तीन अहम वज़ूहात हैं। वैसे तो सारी वज़ूहात अहम हैं लेकिन प्राकृतिक आपदा फिर भी सबसे अहम वज़ह है। खंड-खंड हुए उत्तराखंड और हिमाचल के लोग प्राकृतिक त्रासदी झेलने को मजबूर हैं। ख़ुद की ज़िन्दगी पहले बचाएं या कारोबार करें? आपदा की इस घड़ी में फलों के बाग-बगीचों की देख-रेख किसे सूझ रहा है? ऐसे में बिचौलियों के ज़रिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में फसल बेच कर पैसे का इंतज़ार करने से ज़्यादा बेहतर किसानों को घरेलू बाज़ार में फसल खपाना लगा क्योंकि नक़द कम ज़रूर मिलता है लेकिन इसके तुरंत मिलने की संभावना यहां ज़्यादा रहती है।दूसरी वज़ह मौसम की मार रही जिसके असर से सेब के फसल भी अछूता नहीं रहा। फसल तो अच्छी हुई लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा बारिश की वज़ह से उसकी गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हुई। ज़्यादातर फलों पर बारिश के दाग़ या फिर चोट के दाग लग गए, जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में खपत उतनी नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए थी।  इस साल इसी वज़ह से घरेलू बाज़ार में सेब की खपत ज़्यादा हुई।
तीसरी वज़ह रूपए के मुक़ाबले डॉलर का मज़बूत होना रहा। रूपए के लगातार गिरने का असर सेब के निर्यात पर भी सीधा पड़ा है। चूंकि मुक्त व्यापार ने ग्लोबल विलेज में सबके लिए बराबर के मौक़े दे रखे हैं। और सेब के अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भी भारतीय सेब के प्रतियोगियों में ख़ासा इज़ाफा हो मैक्सिको, फिजी और लैतिन अमीरिकी देशों के सेबों की मांग पिछले कुछ सालों में ख़ासी बढ़ी है। आलम तो ये है कि भारतीय बाज़ार भी इन देशों से आए सेबों से पटे पड़े हैं। ऐसे में रही सही कसर पूरी कर दी मुंह के बल गिरे रूपए ने। बंपर पैदावार के बावज़ूद व्यापारी को मुनाफा उतना नहीं हो रहा था जितना होना चाहिए था। नतीज़ा सबके सामने है।
ख़ैर, एक बार फिर रुख़ करते हैं शीलाजी के उस बयान की ओर जिसमें उन्होंने कहा कि प्याज की बढ़ी क़ीमत पर तो सभी चिल्ला रहे हैं, लेकिन सेब की घटी क़ीमत पर कोई कुछ नहीं बोल रहा। अब शीलाजी आप इन पंक्तियों के लेखक को ये बताने का कष्ट करेंगी कि सेब की कम क़ीमत में आपका योगदान क्या और कितना है? इन पंक्तियों का लेखक तो ये दावा कर सकता है कि प्याज की बढ़ी क़ीमत के पीछे सरकार की नाक़ामी है। क्योंकि प्याज की जमाखोरी होती रही है और हो रही है। सेब का किसान या बिचौलिया सेब की जमाखोरी चाहकर भी नहीं कर सकता इस बात से तो आप भी इत्तेफ़ाक़ रखती होंगी। और माननीया मुख्यमंत्री जी के लिए सबसे अहम सवाल ये कि क्या वो पहाड़ों में आई तबाही और डॉलर के मुक़ाबले रूपए में हो रहे गिरावट की ज़िम्मेदारी भी उसी शिद्दत से लेने को तैयार हैं, जिस शिद्दत से सेब की कम क़ीमत का श्रेय लेने की कोशिश कर रहीं थी? और शीलाजी इन पंक्तियों का लेखक अपने पाठकों को बताना चाहता है कि जो सेब दिल्ली की मुख्यमंत्रीजी ख़ुद खाती हैं वो आज भी मार्केट (बाज़ार नहीं) में 150 से 250 रूपए किलो ही बिक रहा है। 

Tuesday, August 20, 2013

प्याज, पब्लिक और पॉलिटिक्स

पूरे देश में प्याज आम आदमी को आठ-आठ आंसू रूला रहा है। लेकिन, देश की राजधानी में यही प्याज कुछ ख़ास लोगों के लिए मौक़ा है पैसे ख़र्चने का, कुछ को ख़ुश होने के लिए और कुछ के लिए मुद्दा है पॉलिटिक्स के लिए । हम बात करने जा रहे हैं तीसरे तरह के लोगों की जो इन दिनों प्याज पर जमकर कर रहे हैं पॉलिटिक्स क्योंकि कुछ को बदला लेना है और कुछ को अपने विश्वास को आजमाना है कि इतिहास दुहराता है।दिल्ली की कांग्रेस सरकार बाज़ार से कम क़ीमत पर प्याज बेचने के लिए पूरे सूबे में एक हज़ार से ज़्यादा स्टॉल लगवाया है। इन स्टॉल्स पर प्याज 45 रूपए प्रति किलोग्राम की दर से प्याज आम लोगों को मुहैया कराया जा रहा है। सरकार को लग रहा था कि वो आम लोगों के घाव पर मरहम लगा रही है और अपने इस क़दम से आत्म मुग्धता की शिकार होने ही वाली थी कि उसे पता लगता है कि बीजेपी और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता उनसे पांच रूपए सस्ती प्याज की स्टॉल्स लगा कर उनके किए-कराए का सत्यानाश करने को आतुर है।अब राजनीति के खेल में हार मानने की रवायत तो है नहीं तो मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार की पीठ थपथपाने के लिए अजीबो-ग़रीब दलील दी। बक़ौल मुख्यमंत्री दिल्ली में प्याज 80 रूपए बिकने लगा तो लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया लेकिन 140 रूपए बिकने वाला सेव 40 से 50 रूपए प्रति किलोग्राम बिक रहा इसकी कोई चर्चा नहीं कर रहा है। माननीया मुख्यमंत्री जी के वक्तव्य को सुनकर झटका नहीं लगा बल्कि वो क़िस्सा याद आ गया जिसमें भूख से त्रस्त जनता से उनका नेता पूछता है कि रोटी नहीं है तो लोग केक खाकर गुज़ारा क्यों नहीं करते।
प्याज और सेव की कहानी की जड़ तक पहुंचने के बजाए मदारी बनकर लोगों को राजनीति का खेल दिखाने वालों से कोई ये तो पूछे कि कहां से आ रहा है इन तीन दलों के पास इतना महंगा प्याज? क्या वो पार्टी को चंदे में मिले पैसे से लोगों को प्याज दे रहे हैं? यदि हां तो फिर मुफ्त में ही क्यों नहीं दे रहे हैं? और अगर व्यापार कर रहे हैं, तो इन तीनों ही पार्टी को सप्लाई कहां से हो रही? इस बात का पता लगाना निहायत ही ज़रूरी है। क्योंकि जमाखोरी के खेल में सभी शामिल हैं, ये दिखने लगा है और जनता को ये जानने का हक़ है कि उनके निवाले से प्याज छिनने वालों में उनके नुमाइंदों की भूमिका कितनी है?

Friday, August 16, 2013

दिशाहीन नेतृत्व की देन दिशाहीन युवा !

8 अगस्त 2013 को 'दैनिक हिन्दुस्तान' में अजीब तरह के दुराग्रह में लिपटा सर्वे प्रकाशित हुआ। सर्वे के मुताबिक देश के 52.2 फीसदी युवा तानाशाही व्यवस्था के ख़्वाहिशमंद बताए गए इस तथ्य के साथ कि 75.4 फीसदी युवा मतदान भी करना चाहते हैं। है न विरोधाभासी सर्वे? अरे भईया या तो तानाशाही व्यवस्था को गले लगा लो या फिर जनतंत्र को। ये कैसी व्यवस्था होगी जिसमें 75.4 फीसदी युवा मताधिकार का इस्तेमाल तानाशाही व्यवस्था के लिए करेंगे? सुश्री परमिता घोष के इस सर्वे का सबसे दिलचस्प पहलू तो ये है कि इसमें युवाओं को पहले से ज़्यादा जागरूक बताया गया है। समझ रहे हैं आप, कंफ्यूजन को जागरूकता बताया जा रहा है इससे हास्यास्पद बात भला और क्या हो सकती है?
चाहे इतिहास पुरातन हो या सामयिक तानाशाह किसी भी काल और देश में स्वस्थ्य शासन व्यवस्था नहीं मानी गई है। हमारे पास तो आधुनिक काल से लेकर अबतक के ही इतने ज़्यादा उदाहरण भरे हैं कि तानाशाह के नाम से ही अज़ीब सडांध महसूस होने लगती है। फिर वो युवा जो आर्थिक उदारीकरण के दौर में पले बढ़े या पैदा हुए उनका कितना दम घुटेगा? इसका अंदाज़ा तानाशाह की चाह रखने वाले उन युवाओं को भी नहीं होगा। एकल परिवार के अंदर मां-बाप की टोका-टोकी जिस जेन-एक्स को गवारा नहीं। हर जगह उन्मुक्तता और स्वच्छंदता की चाहत करने वाले युवाओं को, शायद सपनों की दुनिया का तानाशाह चाहिए जो उनके ज़रूरतों के लिए व्यवस्था को गढ़े और युवाओं की कोई ज़िम्मेदारी न हो। और युवा ट्रैफिक के साधारण नियमों तक को न मानें।ऐसा लगता है कि सर्वे में शामिल युवाओं के पास दुनिया की क्या अपने देश की वर्तमान और इतिहास की जानकारी नहीं है। सर्वे में शामिल युवा लंबित मामलों और भ्रष्टाचार से मुक्त देश के लिए तानाशाही व्यवस्था की हिमायत कर रहे हैं। ये बात ख़ुद में कितनी हास्यास्पद है। इस बात की गारंटी कौन तय करेगा कि तानाशाही व्यवस्था भ्रष्टाचाररहित होगी। क्या इन युवाओं ने हाल के दिनों में कई देशों के तानाशाह ख़त्म होते हुए नहीं देखा है? मध्य पूर्व और तमाम दूसरे देशों में शासन चला रहे तानाशाह भ्रष्टाचार की पराकाष्टा पर जीवन जी रहे थे । वहां की आवाम जब घुटन भरी ज़िन्दगी से ऊब गई तब, विद्रोह कर उन्हें ख़त्म कर दिया। क्या सर्वे में शामिल युवा अपने देश को उसी हालात में देखना चाहते हैं? यक़ीनन नहीं।
यहां ये जानना बेहद ज़रूरी है कि कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं होती और इसमें हर हमेशा बेहतरी की गुंजाइश होती है। अगर व्यवस्था की तुलना इंसानी शरीर से की जाए तो इसे ज़्यादा बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। जैसे भोजन करने के लिए पूरा शरीर श्रम करता है लेकिन खाने के बाद चर्बी पूरे शरीर में एक बारगी नहीं लगती है वो उन अंगों में पहले लगती है जिनमें हरकत (मुवमेंट) नहीं के बराबर है। यानी जिस अंग की एक्सर्साइज़ ख़ुद नहीं हो रही वहां चर्बी का जमना तय है। और शरीर में जमे चर्बी को हटाने के लिए जिस तरह वर्ज़िश की जाती है वैसे ही भ्रष्टाचारमुक्त व्यवस्था के लिए भी वर्ज़िश ज़रूरी है। ज़रूरत है भ्रष्टाचार की गुंजाइश वाले अंगों की व्यवस्था में पहचान कर उसके लिए सही एक्सर्साइज़ की, न की पूरे व्यवस्था को बदल देने की।हमारा देश बहुत जीवंत है और विविधताओं से भरा-पूरा है। विविधताएं कुछ नैसर्गिक हैं, कुछ बाद में बनाई गईं, जिसे हम सब झेलने को बाध्य हैं। ऐसे में देश की एकता और संप्रभुता बनाए रखने के लिए क़वायदें (सर्वे) होनी चाहिए न कि एक संवदेनशील राष्ट्र की जड़ें खोदने के लिए सतही सर्वे की और छापी जाएं। देश के युवाओं से अनुरोध ये कि वो अपने देश के मौजूदा हालात का माखौल उड़ाने की बजाए हालात को समझें और उससे निपटने के तरीक़े ईज़ाद करे। और बजाए शॉर्ट-कट ढूंढने के देश के वर्तमान-इतिहास की जानकारी हासिल करें ताकि देश और आवाम की ज़रूरतों को समझ सकें।अगर शासन की तमाम व्यवस्थाओं को एक इमारत के मानिन्द माना जाए तो राजतंत्र, तानाशाही और दूसरे सभी तरह की व्यवस्थाएं जर्जर हो चुकीं इमारत के जैसी हैं, सिर्फ लोकतंत्र ही वो व्यवस्था जिसकी इमारत नई और बुलंद है। सतही सर्वे को नतीजा मानने के बदले ज़मीनी हक़ीक़त को देखकर, अब ये देश का युवा तय करे कि उसे किस तरह की इमारत में रहना है। हां ये याद रखना ज़रूरी है कि इस दुनिया के तमाम देशों ने तमाम तरह की व्यवस्था देखने के बाद ही जनतंत्र यानी लोकतंत्र यानी डेमोक्रेसी को तहेदिल से गले लगाया है। सभी व्यवस्थाओं के बीच लोकतंत्र सबसे नया ज़रूर है लेकिन सबसे भरोसेमंद भी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता

Wednesday, August 7, 2013

शहादत तो प्रोफेशनलिज़्म का हिस्सा है, उस पर मुआवज़ा तो बोनस है...यदि मिले तो...

5 अगस्त, 2013 को हुए हमले पर देश के सबसे जांबाज़ (परेड की सलामी लेते वक्त चक्कर खाकर गिरने वाले) रक्षा मंत्री ने संसद में अपने तमाम जांबाज़ साथियों के बीच बयान दिया कि सरहद पर हुए हमले में शामिल क़रीब 20 से ज़्यादा आतंकवादियों ने हमारे सबसे अज़ीज़ पड़ोसी मुल्क़ के सेना का लिबास पहनकर हमले को अंजाम दिया। अगले दिन फिर अपनी जांबाज़ी का नमूना दिखाते हुए उन्होंने बयान दिया कि हम बातचीत के हिमायती हैं, अपने सबसे अज़ीज़ पड़ोसी के साथ दोस्ती का रिश्ता निभाने को कटिबद्ध हैं, इसलिए बातचीत ज़ारी रखेंगे संसद में दूसरी ओर बैठे जांबाज़ों को मौक़ा मिला, तो वो भला कैसे चूकते। उन्होंने तमाम तरीक़े से शोर-शराबा करना शुरू कर दिया। देश के सबसे बड़े जांबाज़ को सरेआम मुआफ़ी मांगने के लिए जोर-आज़माइश करने लगे। फिर क्या था सबसे बड़े जांबाज़ के एक जांबाज़ साथी (जो संयोग से विदेश मंत्री भी है) ने दूसरी ओर बैठे जांबाज़ो को नसीहत देते हुए कहा कि देश की सबसे बड़ी पंचायत में दूसरी ओर बैठे जांबाज़ लाशों पर राजनीति कर रहे हैं।
इन पंक्तियों का लेखक मंदबुद्धि है इसलिए दोनों जांबाज़ मंत्रियों के बयानों को समझने की कोशिश में उनके बयानों को मन-ही-मन दोहराता हुआ सो गया (तमाम न्यूज़ चैनल्स का शुक्रिया)। नींद आई ही थी कि ख़्वाब आने शुरू हो गए, चैनल्स पर दिखाए गए तमाम विजुअल्स (दृश्य नहीं) एक के बाद एक फिर से दिखने लगे। पहले जांबाज़ का पहले दिन का बयान दिखा, उसके बाद दूसरे दिन का बयान फिर दूसरे जांबाज़ का बयान और आख़िर में जो दिखा उसने तो नींद में ब्लास्ट करवा दिया। आख़िर में जो दिखा वो वाक़ई ख़्वाब ही था शायद। दिखता है कि जाबांज़ रक्षा मंत्री के एक और जांबाज़ साथी माननीय मानव संसाधन विकास और क़ानून मंत्री न्यूज़ चैनल्स के पत्रकारों को समझा रहें हैंदेखिए सैनिक भी दूसरे प्रोफेशनल्स की तरह होते हैं... उन्हें मरने-मारने की ट्रेनिंग दी जाती है.. उन्हें सरकारी ख़र्चे पर इसकी ट्रेनिंग दी जाती है..उन्हें युद्ध के लिए ही तैयार किया जाता है... ऐसे में अगर उनकी मौत होती है तो ये एक नॉर्मल बात है.. उनकी शहादत प्रोफेशनलिज़्म का हिस्सा है... उस पर से हम उन्हें बोनस के तौर पर मुआवज़ा भी देते हैं... केन्द्र सरकार अलग देती है... राज्य सरकार अलग देती है... देती है कि नहीं...  आपको कई मुल्क ऐसे मिल जाएंगें जो अपने सैनिकों की शहादत की बात तक फाइलों में दबा देते हैं...  ... जांबाज़ क़ानून मंत्री जी का प्रवचन ज़ारी ही था... कि एकदम से शहीद हेमराज का चेहरा सामने आ जाता है... उसके घरवालों के विजुअल्स चलने लगते हैं... इन पंक्तियों का लेखक हड़बड़ा कर उठ बैठता है....

शहादत तो प्रोफेशनलिज़्म का हिस्सा है, उस पर मुआवज़ा तो बोनस है...यदि मिले तो...


5 अगस्त, 2013 को हुए हमले पर देश के सबसे जांबाज़ (परेड की सलामी लेते वक्त चक्कर खाकर गिरने वाले) रक्षा मंत्री ने संसद में अपने तमाम जांबाज़ साथियों के बीच बयान दिया कि सरहद पर हुए हमले में शामिल क़रीब 20 से ज़्यादा आतंकवादियों ने हमारे सबसे अज़ीज़ पड़ोसी मुल्क़ के सेना का लिबास पहनकर हमले को अंजाम दिया।  अगले दिन फिर अपनी जांबाज़ी का नमूना दिखाते हुए उन्होंने बयान दिया कि हम बातचीत के हिमायती हैं, अपने सबसे अज़ीज़ पड़ोसी के साथ दोस्ती का रिश्ता निभाने को कटिबद्ध हैं, इसलिए बातचीत ज़ारी रखेंगे संसद में दूसरी ओर बैठे जांबाज़ों को मौक़ा मिला, तो वो भला कैसे चूकते। उन्होंने तमाम तरीक़े से शोर-शराबा करना शुरू कर दिया। देश के सबसे बड़े जांबाज़ को सरेआम मुआफ़ी मांगने के लिए जोर-आज़माइश करने लगे। फिर क्या था सबसे बड़े जांबाज़ के एक जांबाज़ साथी (जो संयोग से विदेश मंत्री भी है) ने दूसरी ओर बैठे जांबाज़ो को नसीहत देते हुए कहा कि देश की सबसे बड़ी पंचायत में दूसरी ओर बैठे जांबाज़ लाशों पर राजनीति कर रहे हैं।
इन पंक्तियों का लेखक मंदबुद्धि है इसलिए दोनों जांबाज़ मंत्रियों के बयानों को समझने की कोशिश में उनके बयानों को मन-ही-मन दोहराता हुआ सो गया (तमाम न्यूज़ चैनल्स का शुक्रिया)। नींद आई ही थी कि ख़्वाब आने शुरू हो गए, चैनल्स पर दिखाए गए तमाम विजुअल्स (दृश्य नहीं) एक के बाद एक फिर से दिखने लगे। पहले जांबाज़ का पहले दिन का बयान दिखा, उसके बाद दूसरे दिन का बयान फिर दूसरे जांबाज़ का बयान और आख़िर में जो दिखा उसने तो नींद में ब्लास्ट करवा दिया। आख़िर में जो दिखा वो वाक़ई ख़्वाब ही था शायद। दिखता है कि जाबांज़ रक्षा मंत्री के एक और जांबाज़ साथी माननीय मानव संसाधन विकास और क़ानून मंत्री न्यूज़ चैनल्स के पत्रकारों को समझा रहें हैं देखिए सैनिक भी दूसरे प्रोफेशनल्स की तरह होते हैं... उन्हें मरने-मारने की ट्रेनिंग दी जाती है.. उन्हें सरकारी ख़र्चे पर इसकी ट्रेनिंग दी जाती है..उन्हें युद्ध के लिए ही तैयार किया जाता है... ऐसे में अगर उनकी मौत होती है तो ये एक नॉर्मल बात है.. उनकी शहादत प्रोफेशनलिज़्म का हिस्सा है... उस पर से हम उन्हें बोनस के तौर पर मुआवज़ा भी देते हैं... केन्द्र सरकार अलग देती है... राज्य सरकार अलग देती है... देती है कि नहीं...  आपको कई मुल्क ऐसे मिल जाएंगें जो अपने सैनिकों की शहादत की बात तक फाइलों में दबा देते हैं...  ... जांबाज़ क़ानून मंत्री जी का प्रवचन ज़ारी ही था... कि एकदम से शहीद हेमराज का चेहरा सामने आ जाता है... उसके घरवालों के विजुअल्स चलने लगते हैं... इन पंक्तियों का लेखक हड़बड़ा कर उठ बैठता है.....