Wednesday, December 9, 2015

और बढ़ेंगी कारें... और बढ़ेगा प्रदूषण

ऑड-इवन नंबर प्लेट्स के खेल के ज़रिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बता दिया है कि फैसला लेने में उनकी सरकार किसी दूसरी सरकार से अलग नहीं है। आम आदमी के नाम पर चल रही सरकार पूरी तरह से कॉरपोरेट जगत की हिमायती है और धनी लोगों के हितों का ख़्याल रखने वाली है। दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर यक़ीनन जानलेवा हो चुका है... लेकिन प्रदूषण के इस जानलेवा स्तर से भी ज़्यादा जानलेवा है ऑड-इवन नंबर प्लेट्स वाली गाड़ियों का ऑड-इवन डेज़ में चलाने का फैसला। भले ही ये फैसला प्रायोगित तौर पर किया गया है, लेकिन इस तरह के प्रयोग से दिल्ली में प्रदूषण के स्तर को कम नहीं किया जा सकता है।

एक पखवाड़े में मौसम किस करवट बैठता है, ये तो ख़ुद मौसम विभाग के विशेषज्ञों को भी नहीं पता है (अगर ऐसा होता तो चेन्नई में हालात इतने बदतर नहीं होते जितने आज हैं)। यकीन मानिए अगर 1 तारीख से पहले बारिश हो गई और तो प्रदूषण का वर्तमान स्तर आश्चर्यजनक तरीके से नीचे चला जाएगा और फिर सरकार इस बात का क्रेडिट अपने इस तुगलकी फैसले को देते हुए... प्रायोगिक तौर पर शुरू किए गए इस फैसले को स्थायी रूप देने में लग जाएगी। और अगर 15 जनवरी 2016 तक कोई बारिश नहीं हुई तो प्रदूषण का स्तर ऑड-इवन जैसे लाख प्रयोगों के बाद भी ज्यों का त्यों बना रहेगा या बढ़ जाएगा। उसके बाद सरकार को क्या करना है या करना चाहिए.. ये तो शर्तिया तौर पर केजरीवालजी को भी नहीं पता है।

आगे बढ़ें इससे पहले इन पंक्तियों के लेखक के दावे का अन्वेषण भी ज़रूरी है कि आख़िर ऑड-इवन के फॉर्मूले से कैसे बढ़ेगा प्रदूषण?  चलिए आपकी इस शंका का समाधान किए देते हैं। मान लीजिए एक मध्यम वर्गीय परिवार को एक सेडान लेनी है जिसका बजट उन्होंने 8 से 10 लाख रूपए का बना रखा है। सरकार के नए नियम के स्थायी हो जाने की स्थिति में परिवार एक सेडान की जगह दो छोटी गाड़ियां ख़रीदने को बाध्य होगा । इसी तरह जिन लोगों के पास अभी एक गाड़ी है, वो अपनी बाक़ी ज़रूरतों को दरकिनार कर पहले दूसरी गाड़ी की जुगत में जुट जाएंगे। इसी तरह उच्च मध्यम वर्ग जिनका बजट जैसा है वो उतने ही बजट में दो गाड़ियां खरीदेंगे। दिल्ली में गाड़ियां आपके स्टेट्स को डिनोट करती हैं ऐसे में ऑटोमोबाइल कंपनियों की चाँदी हो जाएगी (आम आदमी की सरकार को अगले इलेक्शन के लिए मोटा फंड ऑटोमोबाइल सेक्टर से मिल जाएगा)। इतना ही नहीं ऑड-इवन के इस खेल से परिवहन विभाग में करप्शन अपने चरम पर पहुंच जाएगा क्योंकि लोगों को अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ ऑड या इवन नंबर की ही गाड़ियाँ चाहिए होंगी।

कैसे होगा प्रदूषण कम?

प्रदूषण का स्तर कैसे कम हो? ये यक़ीनन चिन्तनीय विषय है... लेकिन जिस तरह के समाधान सुझाए जा रहे हैं.. प्रयोग किए जा रहे हैं उससे इसका हल नहीं हो सकता है। सरकार डीजल की गाड़ियों को बैन नहीं करवा सकती है... क्योंकि ऑटोमोबाइल सेक्टर से मिलने वाले चन्दे बंद हो जाएंगे। पैसे वाले इनके आका नाराज़ हो जाएंगे। फिर चाहे केन्द्र की सरकार हो या राज्य की सब इस हमाम में नंगे हैं। पुलिस महज सौ-दौ सौ की वसूली कर जिस तरह हर तरह की गाड़ियों की एंट्री दिल्ली में हो जाती है उसे बंद करके भी दिल्ली का उद्धार किया जा सकता है (यहां महज सौ-दो सौ को महज ना समझें क्योंकि सौ-दो सौ प्रति वाहन के दर से दिल्ली में हर रोज़ दाखिल होने वाहन करोड़ों में चढ़ावा चढ़ाते हैं जो पूरे महकमे में बंटता है)। दस साल से पुराने हो चुके वाहनों को बैन करने का नियम सैद्धान्तिक तौर पर तो लागू है लेकिन इसे पूरी तरह से अमली जामा आज तक नहीं पहनाया जा सका है। आख़िर क्यों? इतना ही नहीं दिल्ली के अंदर डीजल से चलने वाले जेनेरेटर और दूसरे उपकरण के प्रयोग पर सैद्धांतिक रूप से रोक है लेकिन आम आदमी की सरकारी व्यवस्था में तमाम इलाके में धड़ल्ले से इनका प्रयोग हर कहीं होता है।

ख़ैर डीजल के बाद आइए बात की जाए पेट्रोल से चलनेवाले वाहनों की। क्या आपने कभी सोचा है क्यों बढ़ी रही है गाड़ियों की संख्या दरअसल सरकार की पॉलिसी में ही ख़ामी है। तमाम सरकारी ग़ैर सरकारी महकमे में टैक्स बचाने के लिए सैलरी को कैटेगेराइज़्ड किया जाता है । मुख्य वेतन के अलावा कई आनुषांगिक वेतन भी दिए जाते हैं मसलन एचआरए, मेडिकल, कन्वेयांस, आदि-आदि। इन्हीं में से एक सेगमेंट है कंवेयांस यानी यातायात साधन का जिसके तहत तमाम प्राइवेट-पब्लिक सेक्टर कंपनियों में कार्यरत कर्मचारियों ख़ासकर अधिकारियों को कुछ शर्तों के साथ व उनके रैंक के हिसाब से पेट्रोल का ख़र्चा दिया जाता है। अब ज़रा इनके नियमों को देखिए यदि किसी अधिकारी के पास कोई वाहन नहीं है तो उसे एक पूर्वनिर्धारित छोटी राशि दी जाती है, यदि उसके पास दुपहिया वाहन है तो उसे एक तय सीमा में पेट्रोल ख़रीदने की राशि दी जाती है वहीं यदि उस अधिकारी के पास चार पहिया वाहन है तो उसे इस सेगमेंट में सबसे ज़्यादा तय राशि दी जाती है। अब भला बताईए जहां इस तरह के नियम हों वहां कोई कम में ही क्यों संतोष रखे। यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि अधिकारी जैसे-जैसे ऊंचे ओहदे पर बढ़ता जाता है उसे मिलने वाली पेट्रोल की राशि भी उसी हिसाब से बढ़ते जाती है। इस तरह की कंपनियों में नौकरी पाने के बाद तमाम अधिकारियों की पहली कोशिश होती है एक कार ताकी उसे ज़्यादा से ज़्यादा लाभ हो सके।

पूरे देश में इस समय 1 करोड़ से ज़्यादा लोग इस तरह की कंपनियों में काम कर रहे हैं और इस तरह का लाभ ले रहे हैं। देश की राजधानी होने की वज़ह से दिल्ली में ऐसे कर्मचारियों अधिकारियों की भरमार है। क्या इस नियम को उलटा करने का वक़्त नहीं आ गया है?  क्या ऐसा नहीं किया जा सकता कि जिन अधिकारियों के पास वाहन नहीं है उसे कंवेयांस के तहत मिलने वाली राशि सबसे ज़्यादा हो और जिनके पास दुपहिया या चार पहिया वाहन हो उसे क्रमशः उसी अनुपात में कम धनराशि मिले। लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन? क्योंकि इस तरह के फैसले का सीधा असर ऑटोमोबाइल सेक्टर पर पड़ने की संभावना है। लेकिन इन पंक्तियों का लेखक आप को और आप की सरकार को ये आश्वस्त करना चाहता है कि बिना देरी किए प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर में उपरोक्त नियम को उलटा करना चाहिए। ऐसा करने का कोई कुप्रभाव ऑटोमोबाइल सेकटर पर नहीं पड़ेगा। कंवेयांस के तहत मिलने वाली राशि में पब्लिक ट्रांसपोर्ट्स के इस्तेमाल करने वालों को अधिक लाभ की सुविधा देकर लोगों को पर्यावरण के प्रति सचेत और जागरूक करने का समय आन पड़ा है। सिर्फ भाषणबाज़ी से देश की जनता नहीं मानने वाली। किसी सुविधा की शर्त पर प्रदूषण से निपटने का जज़्बा सरकार में ही नहीं है, तो जनता में कहां से होगी? याद रखिए सीढ़ी की सफाई ऊपर से होनी चाहिए नीचे से नहीं वर्ना समय और संसाधन दोनों की बर्बादी तय है। केन्द्र सरकार से गुज़ारिश है कि यथाशीघ्र इस पर काम करे ताकि दिल्ली ही नहीं पूरे देश में पर्यावरण की हालात ठीक हो और प्रदूषण न्यूनतम स्तर आ सके।

जय हिन्द

Monday, November 2, 2015

Why Bihar is prestige issue for BJP?

This time Mr Modi… sorry… Mr Prime Minister is not alluring Bihar and its populace by offering “Achchhe Din” rather he and his colleagues are alluring them with all such issues which really affect the State and its masses. Reservation, Development, Corruption, Scams, Employment, Casteless Society, etc., are the real issues which have been already addressed by the current ruling party. Though Bihar has the lowest literacy rate but people here are much more politically aware than any other state of the country. And, BJP and its alliance has no other choice than above mentioned issues as they know this fact very well. Most Important, alluring them with fake promises and issueless speeches are not going to yield results.

Though they have promised “Achchhe Din” to the whole country but they hardly deliver anything yet. Now they have used all sorts of tricks and pranks to motivate voters of Bihar, right from presenting scary picture of future of Bihar to what Centre can do for them. Fortunately or unfortunately voters understand these things in much better way than they considered being.

Here, one major question arises in everyone’s mind why BJP is so anxious for Bihar victory?  Do they really want to change the condition of Bihar? Do they really concern with the backwardness of Bihar? Do they really want to make Bihar a casteless Society? Do they just need hold over State? The answer of all such question is No… a Big No. Central Government could not make any major decision and could not perform even as per their plan since its formation. Because they have not adequate number of MPs in the Upper house of the Parliament and hence their only hope is Bihar. If NDA wins in Bihar their positions in Upper House may strengthen soon. This is the major reason behind BJP’s anxiety. And later on they can integrate their victory in the Parliamentary Election to be held in 2019.

Though BJP has been proclaiming a mandate and major victory in the State but nervousness could be seen in the top leadership. BJP’s campaign has been very aggressive and extensive in Bihar as compared to the recent held Maharashtra and Haryana State Elections’ campaign.  Alone Mr Prime Minister has address more than 150 rallies in the State and everywhere he put his potential to counter the ruling party because there is no issue left with him at all to counter the current Chief Minister of State. They are fighting with the best team in this election but they themselves doubt their victory with their confusing statements and body languages.

Monday, May 4, 2015

कहां जा रहे हैं हम...

कुछ एक साल पहले तक कहनेवाले ये कहा करते थे कि भारत ,एक ऐसा देश  है, जो एक साथ कई शताब्दियों में जीता है। किन्तु, नियंता बनकर कुछ लोगों ने इस सत्य को झूठ में बदल देने की क़ामयाब कोशिश की और कर रहे हैं। इस उपक्रम में सतह से लेकर जड़ तक प्रभावित हुए हैं। और भारत, विवश हो गया है, एक शताब्दी में जीने को। भारत के लोग खुशी-खुशी या मजबूरन एक जैसे दिखने को विवश हुए हैं। कृषि पर निर्भरता ,उतनी नहीं घटी, जितना गांव से शहर की ओर पलायन हुआ है।
और फ़ायदा! फ़ायदा पता नहीं किसे हुआ और किसे नहीं? पर वे लोग ज़रूर चुप हैं, जो भारत को एक साथ कई शताब्दियों में जीने वालों का देश बताया करते थे। उनकी खुलेआम की आलोचना ने एक बड़ा परिवर्तन ला दिया है। एक ऐसा परिवर्तन, जिसमें पिता अपने बच्चे को पढ़ाना चाहता है, बच्चा डिग्री लेना चाहता है, डिग्रीधारक अपने डिग्री के मुताबिक़ नौकरी की चाह रखता है और खेत जो सुबह जुतने का इंतज़ार करता था, इंतज़ार कर रहा है।
मंत्र पढ़ने-पढ़ानेवालों को भी हवा का रूख़ रास आया, अब तो वे आधुनिकता के साथ प्रपंचों का मणि-कांचन संयोग कर लोगों को अभिभूत कर रहे हैं। चरसी बाबा का रूपान्तरण फोर जी इंटरनेटा बाबा के रूप में हो गया। और फ़ायदा कहीं ज़्यादा बढ़ा है। इतना ज़्यादा कि असर सेंसेक्स तक दिखाई पड़ रहा है।
ख़ैर इस बदलाव ने सिर्फ़ भविष्य की दशा-दिशा बदलने का काम नहीं किया है बल्कि इस बदलाव ने हर चीज़ों पर अपना नियंत्रण बनाया है ऐर जो नियंत्रण में पहले से थे उनपर अपनी पकड़ मज़बूत की है। उच्च वर्ग और मध्यम उच्च वर्ग को हर कुछ करने की आज़ादी उनकी नज़र में भले ही दे दी गई है किन्तु शैली और आज़ादी के उपभोग का तरीक़ा फिर भी नियंता के हाथ में ही है। मध्यम वर्ग की रसोई में कब क्या और कितना पकेगा से लेकर निम्न वर्ग को किन-किन चीज़ो से वंचित रखना है हर कुछ नियंत्रित है। फिर कहने को सभी आज़ाद भारत के नागरिक हैं! भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और तेजी से उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति भी!

Wednesday, February 11, 2015

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं


अपना गुज़रा हुआ कल अभी ज़्यादा पीछे नहीं गया है

फिर उसी सिफ़र से शुरू करते हैं

नाम-रंग-जाति-धर्म हर कुछ

जिन-जिन का वास्ता है क़िस्मत के साथ

उन सबको बदलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


मैं कुछ भी नहीं सोचूंगा... तुम सोचना

मैं कुछ भी नहीं बोलूंगा.... तुम बोलना

मैं किसी से नहीं लडूंगा... तुम लड़ना

मैं कुछ नहीं चाहूंगा... तुम चाहना

तुम सपने देखना... तुम ही उन्हें पूरा करना

हां तुम्हारी शर्तों पर ही ये खेल खेलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


तुम मेरी ज़िन्दगी बस एक बार जी लो

मैं तुम्हारी हर ज़िन्दगी बग़ैर शिक़ायत किए जी लूंगा

चलो तुम्हारी मनचाही मुराद पूरी करते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


चलो एक और वादा करता हूं

मैं नहीं चिढ़ाउंगा तुम्हें हर हार पर

जैसे तुम और बाक़ी लोग चिढ़ाया करते थे

मैं नहीं जलील होने दूंगा तुम्हें सबके सामने

और हां आईने में शक़्ल देखने से भी नहीं रोकूंगा


क़बूल कर लो कि अब ये मेरी भी ख़्वाहिश है

आओ एक-दूसरे की ज़िन्दगी जीते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

 

Thursday, January 29, 2015

सही मायने में मिस्टर भारत लगे अक्षय

अमूमन देशभक्ति फिल्म का ख़्याल ज़ेहन में आते ही श्री मनोज कुमार और उनकी मिस्टर भारत की छवि उभरती है। लेकिन बेबी देखने के बाद देशभक्ति फिल्मों को लेकर तमाम मिथकीय धारणाएं दिलो-दिमाग से जाती रहीं।  अब लगता है कि मनोज कुमार जी की फिल्में देशभक्ति से कहीं ज़्यादा देश की संस्कृति से सराबोर हुआ करती थीं। ‘ ‘बेबी एक यथार्थवादी फिल्म होने के बावजूद अपने पहले फ्रेम से आख़िरी फ्रेम तक दर्शकों को कुर्सी से बांधे रखती है। बिना किसी देशभक्ति से लिपटे गीत-संगीत और गाने के ये फिल्म एक आम भारतीय को देश के लिए सोचने पर मजबूर करती है, देश के प्रति उनके कर्तव्य की याद दिलाती है। एक वाक्य में कहें तो देशभक्ति का जज़्बा जगाती है।

विषम परिस्थितियों में, साज़िशों के बीच अपनों में छिपे दुश्मनों की पहचान कर अपने देश और देशवासियों की रक्षा करता नायक कहीं भी हिन्दी फिल्म का औसत नायक नहीं लगता। बतौर नायक अक्षय कुमार ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। वहीं श्री नीरज पांडे अपनी तीसरी फिल्म के ज़रिए समकक्षों को ये दिखा पाने में कामयाब हुए हैं कि निर्देशन क्या होती है? इस फिल्म के लिए यदि श्री अक्षय कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का और श्री नीरज पांडे को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिले तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

महामहिम राष्ट्रपति और माननीय प्रधानमंत्री से अनुरोध है कि श्री नीरज पांडे की फिल्म बेबी ज़रूर देखें। देशभर में इस फिल्म को टैक्स-फ्री करने के साथ ही इस बात की गारंटी तय करें कि देश का हर नागरिक इस फिल्म को कम-से-कम एक बार ज़रूर देखे। (दुःख के साथ स्वीकार करता हूं) भौतिकवादी परिवेश में देश के लिए संवेदनशीलता कम हुई है, हो रही है, ऐसे में फिल्म बेबी दिलो-दिमाग पर बेहद गहरा असर छोड़ती है। बेबी एक ऐसी फिल्म है जो शास्त्रीय पारिवारिक फिल्म की कसौटी पर सटीक बैठती है। यह एक मनोरंजक फिल्म है, पूरे परिवार के साथ बैठकर देखने लायक फिल्म है, देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत बेहद गंभीर फिल्म है।