Saturday, October 30, 2010

खेल देखिए, खेल मंत्री देखिए


सोने की चमक से आंखें ऐसी चुंधियाईं कि हम खेल का बंटाधार करने वालें इन ससुरों को तो भूल ही गए. खैर सुबह की चुस्की लेते ही चाय जासूस जाग गया. सबसे पहले सरदार जी ध्यान आए. सोचा कि इस हाई कैलीबर वाले गेम में इस बू़ढे बुड़बक का आखिर काम का है? सफेद दा़ढी में ये कौन सा तमगा उखाड़ेगा. जेबे भरने और खेलों की ...... की ...... की आंख करने के अलावा का करेगा? फिर भी खेलमंत्री बने बैठा है. हम लोग ज्यादातर बड़बड़ात राहत हैं भाऊ कि खेल में में विदेशी टीमें हम लोगों से आगे काहे रहती हैं. ये तस्वीर देखिए, सब समझ आ जाएगा.
एक तरफ आस्ट्रेलिया की खेल मंत्री है और दूसरी तरफ भारत के गिल. एक तरफ यूथ है, जोश है और मैनेजमेंट है और दूसरी तरफ रिटायरमेंट की कब्र में लटकता बु़ढापा है, नौकरशाही है और जेबें भरने का जुनून. अब ऐसे में विदेशी टीमें हमसे बेहतर है तो चौंकना कैसा?
सही है, जब लीडर ही नैनसुख हो तो सबको गड्ढे में डालेगा ही. सोने पे सुहागा ये कि यह हालत सिर्फ खेल मंत्रालय की ही नहीं लगभग हर मंत्रालय की है. चाहे जउन मंत्रालय लई लो और विदेशी मंत्रियों से मिला लो, अइसा लगेगा जैसे दादा पुतरू की फोटो हों.
तब तक दूसरा चुस्कीबाज भइया जी बोला कि भारत जो है ना, वो संस्कारों वाला देश है और इहां बुजुगों का सम्मान ज्यादा ही जरूरी है. भले ही इनके कब्र तक जाते जाते देश का फ्यूचर कब्र में क्यों न चला जाए.

नीतीश और मीडिया



तो नीतीश जी चुनाव जीत ही जाएंगे. बिहार में अगली सरकार फिर से उनकी ही बनेगी. जब हर कोई यही मान रहा है तो हमें भी मान ही लेना चाहिए. आखिर उन्होंने पिछले पांच सालों में काम किया है, बिहार का विकास किया है, सड़कें चमचमा रही हैं, ऑफिसों में कर्मचारी पहुंच रहे हैं तो सरकार तो उनकी बननी ही चाहिए. लेकिन ये इन मीडियावालों को क्या हो गया है. कल तक हर कोई नीतीश को तानाशाह, अक्खड़, अड़ियल, घमंडी, जाने क्या-क्या कह रहा था. फिर चुनाव आते ही सब उनका गुणगान कैसे करने लगे. अखबार वाले हों या टीवी चैनल वाले, चुनाव की घोषणा होने के बाद से ही जैसे उनकी सरकार बनाने पर तुले हैं. उन्हें बिहार का विकास पुरुष घोषित करने की जैसे होड़ लगी है. लेकिन ये आखिर हुआ कैसे? क्या मीडिया को यह नहीं दिख रहा कि विकास दर 11 प्रतिशत से ज्यादा भले हो, लेकिन कृषि की विकास दर केवल 1 फीसदी के आसपास ही है. नए उद्योग लगे नहीं हैं और पुरानी चीनी मिलें अभी भी बंद हैं. उसे यह नहीं सूझ रहा कि सीमांचल के लोग अभी भी हर साल कोसी की बाढ में बहते हैं. सड़कें बनी जरूर हैं, लेकिन केवल 17 प्रतिशत. लालू राज के मुकाबले कानून-व्यवस्था की हालत सुधरी जरूर है, लेकिन माओवाद का बढता प्रकोप धीरे-धीरे पूरे सूबे को अपनी आगोश में लेता जा रहा है. दरअसल, मामला विकास का ही नहीं है. जरा बिहार के अखबारों पर नजर डालिए. तकरीबन हर दिन किसी न किसी अखबार में पूरे पन्ने पर नीतीश के मुस्कराते चेहरे के साथ उनकी सरकार का विज्ञापन छपा होता है, साथ में वोट की अपील भी होती है. तो फिर मीडिया उनका गुणगान क्यों न करे. अब राज्य का विकास हो या नहीं, लेकिन मीडिया वालों का विकास तो हो ही रहा है.

Thursday, October 28, 2010

फ्रेंच बबलू


नवलगढ़ की हवेली में बबलू शर्मा फर्राटेदार फ्रेंच और अंग्रेजी में पर्यटकों को हवेली के इतिहास से रूबरू करा रहा है. लेकिन यह जानकर आश्चर्य हुआ कि बबलू पढ़ा-लिखा नहीं है. ग़रीबी की वजह से स्कूल नहीं जा सका था. शुरू से ही दोस्तों के साथ नवलगढ़ आने वाले विदेशी पर्यटकों के साथ घूमता रहता. उन्हीं से फ्रेंच सीखने लगा. अपने दोस्त मोहम्मद युनूस से अंग्रेजी सीखी. सालों तक घूमते-सीखते आज बबलू नवलगढ़ का एक जाना-माना टूरिस्ट गाइड बन चुका है. फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा पर उसका एक समान अधिकार है.


Wednesday, October 27, 2010

इ का बिहार का विकास नहीं है?


गेस करिए. ये कन्या कहां की है. दिल्ली की. मुंबई की. बुरबके रहिएगा जिंदगी भर. दिल्ली, मुंबई से आगे सोचिए नहीं सकते है. अरे मरदे, इ बिहार की है. का हुआ? सांप सूंघ गया. सूंवे करेगा. बहुत कहते है कि नीतीश राज में विकास नहीं हुआ है. इ का विकास नहीं है. इ भागलपुर की कन्या है. हमारे कांग्रेसी उम्मीदवार अजीत बाबू की बेटी है. भागलपुर से चुनाव लड रहे है. बेटी का पहिला सिनेमा रीलिज हो चुका है. सिनेमा का नाम है...क्रुक्स. हीरो उहे चुम्मा-चाटी वाला..इमरनवा है. इमरान हाशमी. शत्रु बाबू बडा कहते थे कि बिहार की बेटी फिलिम में काम नहीं करेगी. अब का करेंगे. खैर, उनकी सुपुत्री भी तो हिरोइन बनिए गई. क्या कर लिए. हम त कहते है कि नीतीश बाबू को अपने चुनाव प्रचार में इ सब बात का भी उल्लेख करना चाहिए. कैसे सुशासन के राज में बिहार की कन्याएं धकाधक बालिवुड में नाम आ दाम कमा रही है. क्या अभिओ कहिएगा कि बिहार में विकास नहीं हुआ है?

रोबोट चला हि‍मालय




भइया जी के साथ सुबह सुबह चाय की चुस्‍की ले रहा था तभी एक चेन्‍नईछाप दोस्‍त स्‍टार कम भगवान रजनी अन्‍ना का आरती-गान करने लगा. आरती सुन ही रहा था कि‍ अचानक अगली चुस्‍की से दि‍माग चरचराया. सोचा कि‍ रोबोट की कामयाबी और अपनी चहेती ऐश को छोडकर रजनी अन्ना कहां फुर्र हो गए हैं. फि‍र क्‍या था़, पता लगाने के लि‍ए छोड दि‍ए अपने चाय जासूस (इसे फॉरेन में पैपराजी भी काहत हैं).
टॉम क्रूज स्‍टाइल में चाय जासूस गए और पता लगा लाए. हमरे इंपॉसि‍बल स्‍टार तो हि‍मालय की गोद में ऐश ले रहे हैं (वो वाली ऐश नहीं डर्टी माइंड). रोबोट की कामयाबी की गर्मी कुछ यूं चढी कि‍ अपनी गंजी चांद को ठंडक पहुंचाने रजनी अन्ना सीधे हि‍मालय पहुंच गए. खुद ही देख लीजि‍ए, बि‍ना वि‍ग यानी नकली बालों के रजनी कि‍स तरह से तरावट ले रहे हैं.
जब हाड-मांस वाले सुपरस्‍टार पि‍ट रहे हैं तब रोबोट बॉक्‍स ऑफि‍स पर आम आदमी के पैसे लूट रहा है. टि‍कट के लि‍ए लाइन में लगा बेटा अपने बाप को बीच में घुसने से रोकते हुए बोलता है कि‍ बाप होगा घर पे... यहां सबका बाप एक है - रजनी अन्ना. अब चूंकि‍ फि‍ल्‍म देखी जा चुकी है तो सभी बेटे अपने असली बापों के पास हैं. और रजनी हि‍मालय में.
लेकि‍न बबुआ इस हि‍मालय यात्रा में हमरी चाय तो कोल्‍ड कॉफी बन गई. चलो जब तक चाय फि‍र से गर्म होती है.... कुछ काम ही कर लो.... नहीं तो रजनी सबको रि‍साइकल बि‍न से भी डि‍लीट कर देगा...
माइंड इट

Tuesday, October 26, 2010

कश्मीर एक अंतहीन समस्या

कश्मीर. तब और अब यानी आजादी के पहले और आज़ादी के बाद  हमेशा से एक अहम मसला रहा है. अब यह मसला नहीं उलझा और सबसे अधिक विवादास्पद मुद्दा है. मुझे लगता है आगे भी रहेगा. इसकी वजह भी है. मेरा मानना है कि इस समस्या का समाधान बहुत पहले ही हो जाता. उसी समय जब यह सामने आया था. लेकिन हमारे नेताओं ने अपने निकम्मेपन से इसे तिल का ताड़ बना दिया. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास ही यह मौका था कि वह आनेवाली पीढ़ी को इस मुसीबत से बचा सकते थे. हजारों लोगों को कश्मीर के नाम पर मरने से बचा सकते थे. लेकिन यह उनकी अदूरदर्शिता थी या क्या नहीं पता, पर गलती तो कर ही गए. शेख अब्दुल्ला और पंडितजी  कभी  दोस्ती के नाम पर तो कभी लोकतंत्र और स्वयत्ता के नाम पर खेल खेलते रहे. वह इस खेल में माहिर भी थे. इनका दाँव कोई समझ भी नहीं पाया. और हम भी समस्या से जूझ रहे हैं. आसानी से हल होने वाला मसला आज मिसाइल बनकर हमारे सामने है. हम कुछ भी न कर पाने कि हालत में हैं सिवाय लोगों को बेवकूफ बनाने के. कश्मीरी आवाम को तो आर्थिक लालच देकर और भी धोखे में रखने की कोशिश की जा रही है. आर्थिक दिलासा जितना दिया जाता है या इसके जरिये कश्मीरियों को फुसलाने की जितनी कोशिश की जाती है, आग की लपटें उतनी ही तेज़ हो जाती हैं. इसका सबसे नकारात्मक असर यह होता है कि गैर कश्मीरी की सोच कश्मीर विरोधी नहीं कश्मीरी जनता विरोधी हो जाती है. यह सबसे खतरनाक है. मेरा मानना है कि हमें कश्मीर का मुस्तकबिल वहां के लोगों पर छोड़ देना चाहिए. अगर वहां की जनता अपना फैसला खुद करना चाहती है तो हमें क्या आपत्ति होनी चाहिए? हमें भला अपने फैसलोंनु को उन पर क्यों थोपना चाहिए. आज अरुंधती राय ने जो कहा है मै उनसे उन अर्थो में सहमत नहीं हूँ, लेकिन हाँ कुछ हद तक सहमत हूँ. हम अरबों रूपये उस जगह फूंक रहे हैं, जहाँ से हमें परेशानी के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है. अगर नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने वाले तब के वित्त मंत्री और अब हमारे प्यारे प्रधानमंत्री इस आर्थिक पहलू को नज़रंदाज़ करते हैं तो उन्हें क्या कहा जाये? क्या वह लंगड़े घोड़े पर बेट नहीं लगा रहे? इस पहलू पर सोचने कि ज़रुरत है.  गैर कश्मीरी आवाम के टैक्स को कश्मीरी जनता पर खर्च किया जा रहा है यही कुछ तर्क लगभग साल या डेढ़ साल पहले हिंदुस्तान टाइम्स के वीर सांघवी ने दिया था. अब एक दूसरा तर्क चर्चित समाजसेवी अरुंधती ने दिया है. उधर, कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकार दिलीप पढगावंकर ने भी इसे सुलझाने के लिए पाकिस्तान को शामिल करने की बात कही है. ये सभी बातें व्यावहारिक हैं, जो भारत सरकार को कतई मंजूर नहीं होगा. मतलब यह कि वह कश्मीर समस्या का समाधान करने को लेकर संजीदा नहीं है. यही बात कश्मीरियों को सालती है और वो कभी पत्थरबाजी तो कभी भारत विरोधी नारे लगते हैं. हमें व्यावहारिक रास्ता अपनाने की ज़रुरत है.

Monday, October 25, 2010

घूंघट

परदे की अपनी खूबसूरती होती है

यकीन न हो तो इस तस्वीर को देखिये

परदे से झाकती

चमकती आँखों को देखिए

घूंघट के शोख रंग को पहचानिए

शेखावाटी का ये शोख रंग

बहुत कुछ कहता है

महसूस करे, दिल से, देख कर

फिर बताइये

सही या गलत

Friday, October 22, 2010

दिलचस्प कहानी, भगवान के नाम पर


यह देश अनोखा है. यहां, भगवान के नाम पर जमीन लिखवाई जाती है. केस मुकदमे भी लडे जाते है. मंदिर में आए चढावे के बंटवारे के लिए अजीबो-गरीब तर्कों के साथ अदालत का सहारा लिया जाता है. बकायदा, इस पूरी प्रक्रिया में भगवान को याचिकाकर्ता भी बना दिया जाता है. अयोध्या मामले में भी रामलला खुद ही

  • पुष्कर में ब्रह्मा-सावित्रि मंदिर विवाद
  • शंकर जी के नाम पर जमीन रजिस्ट्री
  • जमीन हथियाने के लिए सिद्धीविनायक पर आतंकी हमले का खतरा बताया
  • अयोध्या मामले में रामलला खुद याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता थे. एक दिलचस्प कहानी पुष्कर में ब्रह्मा-सावित्रि मंदिर विवाद है. सावित्रि देवी मंदिर के पुरोहित बेनीगोपाल मिश्रा 2001 में इसलिए अदालत का दरवाजा खटखटाते है कि सावित्रि देवी मंदिर का चढावा ब्रह्मा जी के मंदिर के साथ न बांटा जाए और ब्रह्मा मंदिर के चढावे को सावित्री मंदिर के साथ बांटा जाए. इसके समर्थन में उनका तर्क था कि सावित्रि और ब्रह्मा दोनों अलग-अलग हो गए थे और इसलिए ब्रह्मा को अपनी विरक्त पत्नी को अपने चढावे में से एक हिस्सा देना चाहिए. सावित्री देवी मंदिर के वकीलों का कहना था कि चूंकि सावित्री मंदिर एक उंची पहाडी पर है जहां कम ही तीर्थ यात्री पहुंच पाते है जबकि ब्रह्मा मंदिर की आमदनी ज्यादा है और ब्रह्मा ने सावित्री के रहते दूसरी शादी की थी इसलिए सावित्री देवी को यह अधिकार है कि उन्हें निर्वाह व्यय मिले.दरअसल, एक पौराणिक कथा के मुताबिक एक बार ब्रह्मा यज्ञ करने पुष्कर पहुंचे. उनकी पत्नी सावित्री समय रहते यज्ञ स्थल तक नहीं पहुंच सकी. मुहुर्त निकलता देख ब्रह्मा ने दूसरी शादी कर ली और अपनी नई पत्नी के साथ यज्ञ शुरु कर दिया. इसी बीच वहां सावित्री पहुंच गई. अपनी जगह दूसरी औरत को देख कर सावित्री देवी ने ब्रह्मा को शाप दिया कि पुष्कर के अलावा इस दुनिया में कहीं और तुम्हारी पूजा नहीं होगी. इसके बाद सावित्री, ब्रह्मा से अलग हो गई. कालांतर में पुष्कर में ही एक उंची पहाडी पर सावित्री देवी का मंदिर बना. अब यह घटना कब की है और इसकी सत्यता क्या है यह तो खुद ब्रह्मा जी ही बता सकते है लेकिन इन मंदिरों के पुरोहितों के लिए उक्त विवाद कमाने का एक जरिया जरूर बन गया. मजेदार तथ्य यह है कि उक्त घटना का इस्तेमाल कानूनी दांवपेंच के लिए भी किया गया.

भगवान के नाम पर जमीन रजिस्ट्री करा कर कैसे पुरोहित जी अपने आने वाली पीढियों को तृप्त कर जाते है इसकी एक मिसाल बिहार के गोपालगंज जिले के भोरे थाना की है. यह कहानी भोरे थाना के अंतर्गत शिवाला कल्याणपुर गांव की है. गांव के नाम के पहले ही शिवाला इसलिए लगा है क्योंकि इस गांव में शिव जी का एक बडा और प्राचीन मंदिर है. करीब 25-30 साल पहले मंदिर के पुरोहित जी ने मंदिर में स्थापित शंकर जी के नाम पर करीब 2 बीघे जमीन की रजिस्ट्री करवा ली. तब से आज तक, जो भी इस मंदिर का पुरोहित बनता है वही उस जमीन का मालिक होता है. कोई भी पुरोहित उस जमीन को बेच नहीं सकता. इसकी एक वजह भी है. अब शंकर जी बिक्री के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने तो आएंंगे नहीं.

इस देश में जमीन हथियाने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए जाते है, यह सबको पता है. लेकिन सिद्धीविनायक मंदिर प्रबंधन ने जमीन हथियाने के लिए जो किया उसे तो मुंबई उच्च न्यायालय ने भी सिरे से खारिज कर दिया. दरअसल, संभावित आत्मघाती हमले का खतरा दिखा कर प्रबंधन ने मंदिर के चारों ओर एक चारदिवारी खडी कर दिया. स्थानीय लोग इस दीवार को हतवाने के लिए अदालत में चले गए. चूंकि इस दीवार की वजह से उस इलाके के ट्रैफिक व्यवस्था पर असर पड रहा था. जज ने अपने फैसले में कहा कि हम यह मानते है कि भगवान इंसान की रक्षा करते है न कि हम भगवान की रक्षा करते है. इसलिए अगर भगवान को खतर है तो क्यों न मंदिर को दूसरे जगह स्थानांतरित कर दिया जाए बजाए दीवार घेर कर ट्रैफिक व्यवस्था को बदहाल बनाने के. क्या अब भी आप नहीं मानेंगे कि भारत एक अनोखा देश है?

Thursday, October 21, 2010

चाय दुकान क्यों ?

चाय दुकान, ठेला या खोखा. नाम कोइ भी हो. मिजाज एक है. बात, चाय दुकान पर होने वाले बात की. बरिस्ता की नहीं. ठेठ चाय दुकान की. बात क्रांति की. चिंतन की. मनन की. बहस की. मुफलिसी के दिनों में दो बट्टा तीन का सहारा देती चाय दुकान की. बात चाय दुकान पर समाजवाद और साम्यवाद को मिलते आक्सीजन की. पूंजीवाद को दी जाने वाली गालियों की. बात चाय दुकान पर बैठने वाले पत्रकारो की. बात उनके द्वारा बॉस के सम्मान में किए जाने वाली बात की. बात अमरीकी विदेश नीति की बखिया उधेडते मोहल्ले के शर्मा जी की. धोनी को क्रिकेट कैसे खेले की सीख देते चाय वाले पंडित जी की. बात लोगों का लोगों के खिलाफ रचे जाने वाले षडयंत्र की. बात नया कमरा तलाशने के संघर्ष की. बात दिल्ली में बैठ कर बिहार चुनाव पर चलने वाली परिचर्चाओं की. और हां, बात चाय दुकान पर रोज दम तोडती युवा क्रांति की भी. तो आईएं, आपका स्वागत है. आप भी बात करें. अपनी बात करें. दूसरों की बात करें. इस दुनिया की बात करें. उस दुनिया की बात करें. जहां की दिल करें, वहां की बात करें. लेकिन चाय दुकान पर आ कर.