Monday, December 3, 2012
रूला दिया ‘सेकेंड ओपिनियन’ ने...और याद आई ‘विकास’ की
दिन रविवार, सुबह के नौ बजे मनोरंजन की चाह में बेतहाशा चैनल स्कैन किए जा रहा था। अचानक एबीपी न्यूज़ स्क्रीन पर उभरा एक बेहद पंसदीदा चेहरा, जो यक़ीनन पहली बार एक नए कार्यक्रम की प्रस्तुति कर रहा था। कई दिनों से लगातार प्रोमोज़ देखने की वज़ह से एक उत्सुकता तो थी ही, सो चैनल स्कैनिंग को वहीं विराम लगा कर, टिक गया एबीपी न्यूज़ के उस कार्यक्रम के साथ। कार्यक्रम का नाम था – ‘सेकेंड ओपिनियन’।स्टार से अलग होकर एबीपी न्यूज़ भले ही पहचान पुख़्ता करने की कोशिश में जुटा हो लेकिन उसके नए प्रोग्राम सेकेंड ओपिनियन, स्टार के बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम सत्यमेव जयते का ही परिष्कृत संस्करण सरीखा लग रहा है। मराठी अदाकार अतुल कुलकर्णी के जानदार प्रस्तुति ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। पहले ही एपिसोड दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ने में क़ामयाब रहा है, इसमें कोई शक नहीं। अगर अब तक आपने इस प्रोग्राम को नहीं देखा है तो गुज़ारिश है कि ज़रूर देखें। मेडिकल नेगलिजेंस पर इससे बेहतर कार्यक्रम इतने सलीके से नहीं बनाई जा सकती है।हैदराबाद में रहने वाले श्री शेषाद्री के बेहद प्रतिभाशाली बेटे की दर्दनाक कहानी देख कर आंखों से आंसू निकल आए। और याद आ गयी अपने एक बेहद प्यारे स्टूडेंट की मौत। हालांकि सेकेंड ओपिनियन तो मेडिकल नेगलिजेंस को केन्द्र में रख कर बनाया गया बेहद संज़ीदा कार्यक्रम है, लेकिन विकास की मौत अलग थी। एक ऐसी मौत, जहां जवाबदेही न तो किसी डॉक्टर की रही और न ही किसी घरवाले की, जहां जवाबदेही थी अपने मालिक के लिए पैसे बनानेवाले एक दलाल की, जो संयोग से उस हॉस्टल का वार्डन था, जिसमें विकास रहता था।
Sunday, August 5, 2012
अगस्त क्रांति और भारत का शासक वर्ग
प्रेम सिंह
आजदी की इच्छा का विस्फोट
यह एक छोटा-सा मंत्र मैं आपको देता हूं। आप
इसे हृदयपटल पर अंकित कर लीजिए और हर ष्वास के साथ उसका जाप कीजिए। वह मंत्र है - ‘करो
या मरो’। या तो हम भारत को
आजाद करेंगे या आजादी की कोषिष में प्राण दे देंगे। हम अपनी आंखों से अपने देष का
सदा गुलाम और परतंत्र बना रहना नहीं देखेंगे। प्रत्येक सच्चा कांग्रेसी,
चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस
दृढ़ निष्चय से संघर्ष में षामिल होगा कि वह देष को बंधन और दासता में बने रहने को
देखने के लिए जिंदा नहीं रहेगा। ऐसी आपकी प्रतिज्ञा होनी चाहिए।’’
(अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में दिए गए गांधीजी के
भाषण का अंष)

वायसराय ने कांग्रेस नेताओं पर भारत छोड़ो
आंदोलन के दौरान सषस्त्र बगावत की योजना बनाने और आंदोलन में बड़े पैमाने पर हिस्सा
लेने वाली जनता पर हिंसक गतिविधियों में षामिल होने का आरोप लगाया था। उस समय के
तीव्र वैष्विक घटनाक्रम और बहस के बीच वायसराय यह दिखाने की कोषिष कर रहे थे कि
ब्रिटिष षासन अत्यंत न्यायप्रिय व्यवस्था है और उसका विरोध करने वाली कांग्रेस व
भारतीय जनता हिंसक और निरंकुष। आजादी मिलने में केवल साल-दो साल बचा था,
लेकिन वायसराय ऐसा जता रहे थे मानो भारत पर हमेषा के लिए
षासन करने का उनका जन्मसिद्ध अधिकार है!
पत्र में लोहिया ने वायसराय के आरोपों का
खंडन करते हुए निहत्थी जनता पर ब्रिटिष हुकूमत के भीषण अत्याचारों को सामने रखा।
उन्होंने कहा कि आंदोलन का दमन करते वक्त देष में कई जलियांवाला बाग घटित हुए,
लेकिन भारत की जनता ने दैवीय साहस का परिचय देते हुए अपनी
आजादी का अहिंसक संघर्ष किया। लोहिया ने वायसराय के उस बयान को भी गलत बताया जिसमें
उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में एक हजार से भी कम लोगों के मारे जाने की बात कही।
लोहिया ने वायसराय को कहा कि उन्होंने असलियत में पचास हजार देषभक्तों को मारा है।
उन्होंने कहा कि यदि उन्हें देष में स्वतंत्र घूमने की छूट मिले तो वे इसका प्रमाण
सरकार को दे सकते हैं। लोहिया ने पत्र में लिखा, ‘‘श्रीमान
लिनलिथगो, मैं आपको विष्वास
दिलाता हूं कि यदि हमने सषस्त्र बगावत की योजना बनाई होती, लोगों
से हिंसा अपनाने के लिए कहा होता तो आज गांधीजी स्वतंत्र जनता और उसकी सरकार से
आपके प्राणदंड को रुकवाने के लिए कोषिष कर रहे होते।’’
लोहिया ने वायसराय को उनका बर्बर चेहरा
दिखाते हुए लिखा, ‘‘आपके आदमियों ने
भारतीय माताओं को नंगा कर, पेड़ों
से बांध, उनके अंगों से
छेड़छाड़ कर जान से मारा। आपके आदमियों ने उन्हें जबरदस्ती सड़कों पर लिटा-लिटा कर
उनके साथ बलात्कार किए और जानें लीं। आप फासिस्ट प्रतिषोध की बात करते हैं जबकि
आपके आदमियों ने पकड़ में न आ पाने वाले देषभक्तों की औरतों के साथ बलात्कार किए और
उन्हें जान से मारा। वह समय षीघ्र ही आने वाला है जब आप और आपके आदमियों को इसका
जवाब देना होगा।’’ कुर्बानियों की कीमत
रहती है, इस आषा से भरे हुए लोहिया
ने अलबत्ता व्यथित करने वाले उन क्षणों
में वायसराय को आगे लिखा, ‘‘लेकिन
मैं नाखुष नहीं हूं। दूसरों के लिए दुख भोगना और मनुष्य को गलत रास्ते से हटा कर
सही रास्ते पर लाना तो भारत की नियति रही है। निहत्थे आम आदमी के इतिहास की षुरुआत
9 अगस्त की भारतीय क्रांति से होती है।’’
हालांकि कांग्रेस के कई बड़े नेता ‘फाासिस्ट’
षक्तियों के खिलाफ युद्ध में फंसे ‘लोकतंत्रवादी’
इंग्लैंड को परेषानी में डालने पर अंत तक दुविधाग्रस्त बने
रहे। उनका जिक्र लोहिया ने अपने पत्र में किया है। लेकिन खुद लोहिया को अंग्रजों
को बाहर खदेड़ने के फैसले पर कोई दुविधा नहीं थी। आधुनिकतावादियों जैसी दुविधा
उनमें भी होती तो वे जनता के संघर्ष में पूरी निष्ठा और षक्ति से नहीं रम पाते।
पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया, ‘‘हम
भविष्य के प्रति जिज्ञासु हैं। चाहे जीत आपकी हो या धुरी षक्ति की,
उदासी और अंधकार चारों ओर बना रहेगा। आषा की मात्र एक ही
टिमटिमाहट है। स्वतंत्र भारत इस लड़ाई को प्रजातांत्रिक समापन की ओर ले जा सकता है।’’
(देखें, ‘कलेक्टेड
वर्क्स ऑफ डॉ. राममनोहर लोहिया’ खंड
9, संपा. मस्तराम कपूर,
पृ. 176-181)
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में
अगस्त क्रांति के नाम से मषहूर भारत छोड़ो आंदोलन का करीब तीन-चार साल का दौर
अत्यंत महत्वपूर्ण होने के साथ पेचीदा भी है। यह आंदोलन देष-व्यापी था जिसमें बड़े
पैमाने पर भारत की जनता ने हिस्सेदारी की और अभूततपूर्व साहस और सहनषीलता का परिचय
दिया। लोहिया ने ट्राटस्की के हवाले से लिखा है कि रूस की क्रांति में वहां की एक
प्रतिषत जनता ने हिस्सा लिया जबकि भारत की अगस्त क्रांति में देष के 20
प्रतिषत लोगों ने हिस्सेदारी की। (देखें, ‘कलेक्टेड
वर्क्स ऑफ डॉ. राममनोहर लोहिया’ खंड
9, संपा. मस्तराम कपूर,
पृ. 129)
हालांकि जनता का विद्रोह पहले तीन-चार
महीनों तक ही तेजी से हुआ। नेतृत्व व दूरगामी योजना के अभाव तथा अंग्रेज सरकार के
दमन ने विद्रोह को दबा दिया। 8
अगस्त 1942 को ‘भारत
छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ
और 9 अगस्त की रात को कांग्रेस के बड़े नेता
गिरफ्तार कर लिए गए। नेताओं की गिरफ्तारी के चलते आंदोलन की सुनिष्चित कार्ययोजना
नहीं बन पाई थी। कांग्रेस सोषलिस्ट पार्टी का अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व सक्रिय था
लेकिन उसे भूमिगत रह कर काम करना पड़ रहा था। जेपी ने क्रांतिकारियों का मार्गदर्षन
और हौसला अफजायी करने तथा आंदोलन का चरित्र और तरीका स्पष्ट करने वाले दो लंबे
पत्र अज्ञात स्थानों से लिखे। भारत छोड़ो आंदोलन के महत्व का एक पक्ष यह भी है कि
आंदोलन के दौरान जनता खुद अपनी नेता थी।
भारत छोड़ो आंदोलन की कई विषेषताएं हैं। कई
चरणों और नेतृत्व से गुजरे भूमिगत क्रांतिकारी आंदोलन और गांधी के नेतृत्व में चले
जनता के अहिंसक आंदोलन का मिलन भारत छोड़ो आंदोलन में होता है। दोनों की समानता और
फर्क के बिंदुओं को लेकर 1857 के
पहले स्वतंत्रता संग्राम के साथ भी भारत छोड़ो आंदोलन के सूत्र जोड़े जा सकते हैं।
भारत छोड़ो आंदोलन हिंसक था या अहिंसक, इस
सवाल को लेकर काफी बहस हुई। गांधी, जिन्होंने
‘करो या मरो’ का
नारा दिया और जिन्हें उसी रात गिरफ्तार कर लिया गया, ने
जनता से अहिंसक आंदोलन का आह्वान किया था।
जेपी ने गुप्त स्थानों ‘आजादी
के सैनिकों के नाम’ दो पत्र क्रमष:
दिसंबर 1942 और सितंबर 1943
में लिखे। अपने दोनों पत्रों में, विषेषकर
पहले में, उन्होंने
हिंसा-अहिंसा के सवाल को विस्तार से उठाया। हिंसा-अहिंसा के मसले पर गांधी और
कांग्रेस का मत अलग-अलग है, यह
उन्होंने अपने पत्र में कहा। उन्होंने अंग्रेज सरकार को लताड़ लगाई कि उसे यह बताने
का हक नहीं है कि भारत की जनता अपनी आजादी की लड़ाई का क्या तरीका अपनाती है।
उन्होंने कहा कि भारत छोड़ो आंदोलन के मूल में हत्या नहीं करने और चोट नहीं
पहुंचाने का संकल्प है।
उन्होंने लिखा, ‘‘अगर
हिंदुस्तान में हत्याएं हुईं - और बेषक हुईं - तो उनमें से 99
फीसदी ब्रिटिष फासिस्ट गुडों द्वारा और केवल एक फीसदी क्रोधित और क्षुब्ध जनता के
द्वारा। हर अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजी राज के लिए जिच पैदा करना,
उसे पंगु बना कर उखाड़ फेंकना ही उस प्रोग्राम का मूल मंत्र
है और ‘अहिंसा के दायरे में
सब कुछ कर सकते हो’ यही है हमारा
ध्रुवतारा। इसमें षक की कोई गुंजाइष नहीं कि जिस प्रोग्राम पर 1942 के
अगस्त से अब तक कांग्रेस संस्थाओं ने अमल किया है उसका बौद्धिक आधार अहिंसा है -
उस अर्थ में अहिंसा, जैसा उसके अधिकारी
पुरुषों ने इस अर्से में बताया है।’’ (‘नया
संघर्ष’, अगस्त क्रांति
विषेषांक, अगस्त-सितंबर 1991,
पृ. 31)
भारत छोड़ो आंदोलन में अहिंसा-हिंसा के सवाल
पर जनता से लेकर नेताओं तक जो विमर्ष उस दौरान हुआ, उसका
विष्लेषण होना चाहिए। हिंसा के पर्याय और उसकी पराकाष्ठा पर समाप्त होने वाले
दूसरे विष्वयुद्ध के बीच एक अहिंसक आंदोलन का संभव होना निष्चित ही गंभीर विष्लेषण
की मांग करता है। यह विष्लेषण इसलिए जरूरी है कि भारत का अधिकांष बौद्धिक 1857 और
1942 की हिंसा का केवल भारतीय पक्ष देखता है और
उसकी निंदा करने में कभी नहीं चूकता। केवल हिंसा के बल पर तीन-चौथाई दुनिया को
गुलाम बनाने वाले उपनिवेषवादियों को सभ्य और प्रगतिषील मानता है।
भारत छोड़ो आंदोलन दूसरे विष्वयुद्ध के
दौरान हुआ। लिहाजा, उसका एक
अंतरराष्ट्रीय आयाम भी था। आंदोलन के अंतरराष्ट्रीय पहलू का इतना दबदबा था कि
विष्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ देने के औचित्य और भारत की आजादी को विष्वयुद्ध
में हुए अंग्रेजों के नुकसान का नतीजा बताने के तर्क भारत में आज तक चलते हैं।
अंतरराष्ट्रीयतावादियों के लिए आजदी के लिए स्थानीय भारतीय जनता का संघर्ष ज्यादा
मायने नहीं रखता। आज जो भारतीय जनता की खस्ता हालत है, उसमें
आजादी के इस तरह के मूल्यांकनों का बड़ा हाथ है। हालांकि इसकी जड़ें और गहरी जाती
हैं जिनके विष्लेषण का यहां स्थान नहीं है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का आजाद हिंद
फौज बना कर अंग्रेजों को बाहर करने के लिए किया गया संघर्षश्भी भारत छोड़ो आंदोलन
के पेटे में आता है। अंग्रेजों और स्थानीय विभाजक षक्तियों द्वारा देष के विभाजन
की बिसात बिछाई जाने का काम भी इसी दौरान पूरा हुआ। जेपी ने इन सब पहलुओं पर अपने
पत्रों में रोषनी डाली है।
भारत छोड़ो आंदोलन देष की आजादी के लिए चले
समग्र आंदोलन, जैसा भी भला-बुरा वह
रहा हो, का निर्णायक निचोड़
था। विभिन्न स्रोतों से आजादी की जो इच्छा और उसे हासिल करने की जो ताकत भारत में
बनी थी, उसका अंतिम प्रदर्षन
भारत छोड़ो आंदोलन में हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन ने यह निर्णय किया कि आजादी की इच्छा
में भले ही नेताओं का भी साझा रहा हो, उसे
हासिल करने की ताकत निर्णायक रूप से जनता की थी। हालांकि अंग्रेजी षासन को नियामत
मानने वाले और अपना स्वार्थ साधने वाले तत्व भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी पूरी
तरह सक्रिय थे। वे कौन थे, इसकी
जानकारी जेपी के पत्रों से मिलती है।
यह ध्यान देने की बात है कि गांधीजी ने
आंदंोलन को समावेषी बनाने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में दिए अपने
भाषण में समाज के सभी तबकों को संबोधित किया था - जनता, पत्रकार,
नरेष, सरकारी
अमला, सैनिक,
विद्यार्थी। उन्होंने अंग्रेजों, यूरोपीय
देषों और मित्र राष्ट्रों के नेतृत्व को भी अपने उस भाषण में संबोधित किया था। सभी
तबकों और समूहों से देष की आजादी के लिए ‘करो
या मरो’ के व्यापक आह्वान
का आधार उनका पिछले 25 सालों के संघर्ष का
अनुभव था।
किसी समाज एवं सभ्यता की बड़ी घटना का
प्रभाव साहित्य रचना पर पड़ता है। 1857 का
पहला स्वतंत्रता संग्राम भारत की एक बड़ी घटना थी। अंग्रेजों का डर कह लीजिए या
भक्ति, 1857 का संघर्ष लंबे समय
तक साहित्यकारों की कल्पना से बाहर बना रहा। जबकि भारत छोड़ो आंदोलन ने रचनात्मक
कल्पना (क्रियेटिव इमेजिनेषन) को तत्काल और बड़े पैमाने पर आकर्षित किया। विभाजन
साहित्य (पार्टीषन लिटरेचर) के बाद भारतीय साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण घटना के
रूप में भारत छोड़ो आंदोलन का चित्रण रहा है। इसका कारण लगता है कि गांधी के
राजनैतिक कर्म और विचारों ने पूंजीवाद के आकर्षण को भारतीय भद्रलोक के मानस से कुछ
हद तक काटा था; और जनता के संघर्ष
की बदौलत आजादी लगभग आ चुकी थी।
मार्क्सवादी लेखकों ने भी भारत छोड़ो आंदोलन
को विषय बना कर उपन्यास लिखे। हिंदी में यषपाल, जो
अपने साहित्य को मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार का माध्यम मानते थे,
ने आंदोलन के दौरान ही दो उपन्यास - ‘देषद्रोही’
और ‘गीता
पार्टी कामरेड’ - लिखे। यह ध्यान देने
की बात है कि भारत छोड़ो आंदोलन अपने ढंग के विषिष्ट राजनीतिक उपन्यासकार यषपाल का
देर तक पीछा करता है। यषपाल सषस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय रहे थे।
उन्होंने अपने अंतिम महाकाय उपन्यास ‘मेरी
तेरी उसकी बात’ (1979) में एक बार फिर भारत
छोड़ो आंदोलन का विस्तार से चित्रण किया।
सोवियत रूस के दूसरे विष्वयुद्ध में षामिल
होने पर भारत के मार्क्सवादी नेतृत्व ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध और अंग्रेजों
का साथ देने का फैसला किया। वह कांग्रेस समाजवादियों और मार्क्सवादियों के बीच कटु
टकराहट का कारण तो बना ही, उस
निर्णय के चलते मार्क्सवादी कार्यकर्ता देषभक्ति और देषद्रोह की परिभाषा व कसौटी
को लेकर भ्रमित हुए। यषपाल ने अपने तीनों उपन्यासों में मार्क्सवादी कथानायकों को
देषभक्त सिद्ध किया है। सतीनाथ भादुड़ी का ‘जागरी’,
बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य का ‘मृत्युंजय’,
समरेष बसु का ‘जुग
जुग जियो’ (चार खंड) जैसे
अत्यंत महत्वपूर्ण उपन्यासों के अलावा भारतीय भाषाओं में, भारतीय
अंग्रेजी उपन्यास सहित, कई
उपन्यास भारत छोड़ो आंदोलन की घटना पर लिखे गए या उनमें उस घटना का जिक्र आया है।
फणीष्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला
आंचल’ का समय करीब आजादी
के एक साल पहले और एक साल बाद का है। उनके इस कालजयी उपन्यास पर भारत छोड़ो आंदोलन
की गहरी छाया व्याप्त है। यह परिघटना दर्षाती है कि भारत छोड़ो आंदोलन राजनीतिक रूप
से महत्वपूर्ण होने के साथ हमारी जातीय स्मृति का हिस्सा है।
भारत छोड़ो आंदोलन का जो भी घटनाक्रम,
प्रभाव और विवाद रहे हों, मूल
बात थी भारत की जनता की लंबे समय से पल रही आजादी की इच्छा - ूपसस जव तिममकवउ - का
विस्फोट। भारत छोड़ो आंदोलन के दबाव में भारत के आधुनिकतावादी मध्यवर्ग से लेकर
सामंती नरेषों तक को यह लग गया था कि अंग्रेजों को अब भारत छोड़ना होगा। अत: अपने
वर्ग-स्वार्थ को बचाने और मजबूत करने की फिक्र उन्हें लगी। प्रषासन का लौह-षिकंजा
और उसे चलाने वाली भाषा तो अंग्रेजों की बनी ही रही, विकास
का मॉडल भी वही रहा। भारत का ‘लोकतांत्रिक,
समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष’ संविधान
भी पूंजीवाद और सामंतवाद के गठजोड़ की छाया से पूरी तरह नहीं बच पाया। अंग्रेजों के
वैभव और रौब-दाब की विरासत, जिससे
भारत की जनता के दिलों में भय बैठाया जाता था, भारत
के षासक वर्ग ने अपनाए रखी। वह उसे उत्तरोत्तर मजबूत भी करता चला गया। गरीबी,
मंहगाई, बीमारी,
बेरोजगारी, षोषण,
कुपोषण, विस्थापन
और आत्महत्याओं का मलबा बने हिंदुस्तान में षासक वर्ग का वैभव अष्लील ही कहा जा
सकता है। सेवाग्राम और साबरमती आश्रम के छोटे और कच्चे कक्षों में बैठ कर गांधी को
दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यषाही से राजनीतिक-कूटनीतिक संवाद करने में असुविधा
नहीं हुई। अपना चिंतन/लेखन/आंदोलन करने में भी नहीं। गांधी का आदर्ष यदि सही नहीं
था तो षासक-वर्ग सादगी का कोई और आदर्ष सामने रख सकता था। बषर्ते वैसी इच्छा
होती।
वायसराय के आदमी
लोहिया ने आजाद भारत के षासक-वर्ग और
षासनतंत्र की सतत और विस्तृत आलोचना की है। उन्होंने उसे अंग्रेजी राज का विस्तार
बताया है। लोहिया को लगता रहा होगा कि उनकी आलोचना से षासक-वर्ग का चरित्र बदलेगा;
तद्नुरूप षासनतंत्र में परिवर्तन आएगा और भारत की अवरुद्ध
क्रांति आगे बढ़ेगी। हालांकि संसद और उसके बाहर जनता के पक्ष में उनका संघर्ष
षासक-वर्ग की प्रतिष्ठा को नहीं हिला पाया। आज जब हम अगस्त क्रांति की सत्तरवीं
सालगिरह मनाने जा रहे हैं तो सोचें - किसलिए? क्या
हम जनता जनता का पक्ष मजबूत करना चाहते हैं? या
स्वतंत्रता आंदोलन के प्रेरणा प्रतीकों, प्रसंगों
और विभूतियों का उत्सव मना कर उनके सारतत्व को खत्म कर देना चाहते हैं?
नवउदारवाद के विराध की किसी भी प्रेरणा को
नष्ट करने की प्रवृत्ति भारत में जोर-षोर से चल रही है। 1857 के
डेढ़ सौवें साल पर कांग्रेस ने दिल्ली से मेरठ और मेरठ से दिल्ली की यात्रा का
आयोजन किया था। धूमधाम से किए गए उस आयोजन में कई नवउदारवाद विरोधी बुद्धिजीवियों
और एक्टिविस्टों ने षिरकत की। देष की संवैधानिक संप्रभुता समेत उसके समस्त
संसाधनों और श्रमषक्ति को नवसाम्राज्यवादी ताकतों का निवाला बना देने वाले प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने लालकिले पर मेरठ से लौटे क्रांति यात्रियों का लालकिले पर स्वागत
किया था। यह कटूक्ति है, लेकिन
इससे कम कुछ नहीं कहा जा सकता कि 1857 के
षहीदों का इससे बड़ा अपमान नहीं हो सकता था।
डेढ़ सौवीं वर्षगांठ के अवसर पर दो वर्षों
तक सरकार ने पैसा भी खूब बांटा। पैसा देखते ही बुद्धिजीवियों में भी जोष आ जाता
है। जिन्होंने 1857 पर कभी एक पंक्ति न
पढ़ी थी, लिखी थी,
ऐसे बहुत-से विद्वान सभा-सेमिनारों में सक्रिय हो गए।
मार्क्सवादियों ने इस बार कुछ ज्यादा जोर-षोर से 1857 का
जष्न मनाया। लेकिन साथ ही उनके नेतृत्व ने यह भी कह दिया कि पूंजीवाद के अलावा
विकास का कोई रास्ता नहीं है। यानी मान्यता वही पुरानी रही - अपनी आजादी के लिए
लड़ने वाले पिछड़ी/सामंती षक्तियां थे और उन्हें गुलाम बनाने वाले अंग्रेज आगे बढ़ी
हुई। ऐसे में पिछड़ी और सामंती षाक्तियों का हारना तय था। आज तक भारत का
मार्क्सवादी और आधुनिकतावादी दिमाग, उत्सव
चाहे जितना मना ले, आजादी की इच्छा में
अपने प्राणों पर खेल जाने वालों की हिमाकत को माफ नहीं करता है। उनके हिसाब से यह
देष अंधकूप था और अंग्रेज न आते तो अंधकूप ही रह जाता। यह केवल नब्बे के दषक का
फैसला नहीं है कि भारत की राजनीति के सारे रास्ते कारपोरेट पूंजीवाद की ओर जाते
हैं।
लोहिया ने भारत छोड़ो आंदोलन की पच्चीसवीं
वर्षगांठ पर लिखा, ‘‘नौ अगस्त का दिन
जनता की महान घटना है और हमेषा बनी रहेगी। पंद्रह अगस्त राज्य की महान घटना थी।
लेकिन अभी तक हम 15 अगस्त को धूमधाम से
मनाते हैं क्योंकि उस दिन ब्रिटिष वायसराय माउंटबैटन ने भारत के प्रधानमंत्री के
साथ हाथ मिलाया था और क्षतिग्रस्त आजादी देष को दी थी। नौ अगस्त जनता की इस इच्छा
की अभिव्यक्ति थी - हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे। हमारे लंबे इतिहास में
पहली बार करोड़ों लोगों ने आजादी की अपनी इच्छा जाहिर की। कुछ जगहों पर इसे जोरदार
ढंग से प्रकट किया गया।’’ पच्चीस
साल की दूरी से देखने पर लोहिया को उस आंदोलन की कमजोरी - सतत दृढ़ता की कमी - पर
अंगुली रखी। वे लिखते हैं, ‘‘लेकिन
यह इच्छा थोड़े समय तक ही रही लेकिन मजबूत रही। उसमें दीर्घकालिक तीव्रता नहीं थी।
जिस दिन हमारा देष दृढ़ इच्छा प्राप्त कर लेगा उस दिन हम विष्व का सामना कर सकेंगे।
बहरहाल, यह 9
अगस्त 1942 की पच्चीसवीं
वर्षगांठ है। इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगांठ इस
प्रकार मनाई जाएगी कि 15
अगस्त भूल जाए, बल्कि 26
जनवरी भी पृष्ठभूमि में चला जाए या उसकी समानता में आए। 26
जनवरी और 9 अगस्त एक ही श्रेणी
की घटनाएं हैं। एक ने आजादी की इच्छा की अभिव्यक्ति की और दूसरी ने आजादी के लिए
लड़ने का संकल्प दिखाया।’’ (देखें,
‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ खंड
9, संपा. मस्तराम कपूर,
पृ. 413)
अगस्त क्रांति की पचासवीं वर्षगांठ देखने
के लिए लोहिया जिंदा नहीं रहे। लोग मरने के बाद उनकी बात सुनेंगे,
उनकी यह धारणा अभी तक मुगालता ही साबित हुई है। अगस्त
क्रांति की पचासवीं वर्षगांठ 1992
में पड़ी। कहां लोहिया की इच्छा और कहां 1992 का
साल! यह वह साल है जब नई आर्थिक नीतियों के तहत देष के दरवाजे बहुराष्ट्रीय
कंपनियों की लूट के लिए खोल दिए गए और एक पांच सौ साल पुरानी मस्जिद को ‘राममंदिर
आंदोलन’ चला कर ध्वस्त कर
दिया गया। तब से लेकर नवउदारवाद और संप्रदायवाद की गिरोहबंदी के बूते भारत का
षासक-वर्ग उस जनता का जानी दुष्मन बन गया है जिसने भारत छोड़ो आंदोलन में
साम्राज्यवादी षासकों के दमन का सामना करते हुए आजादी का रास्ता प्रषस्त किया था।
जो हालात हैं, उन्हें देख कर कह
सकते हैं कि नब्बे के दषक के बाद उपनिवेषवादी दौर के मुकाबले ज्यादा भयानक तरीके
से जनता के दमन को अंजाम दिया जा रहा
है।
अगस्त क्रांति दिवस के मौके पर हम यह विचार
कर सकते हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन की तर्ज पर ‘बहुराष्ट्रीय
कंपनियां भारत छोड़ो’ के नारे क्यों कारगर
नहीं होते और क्यों कारपोरेट पूंजीवाद का कैंजा उत्तरोत्तर मजबूत होता जाता है?
क्यों सारे देष को नगर और सारी आबादी को उपभोक्ता
(कंज्यूमर) बनाने का दु:स्वप्न धड़ल्ले से बेचा जा रहा है? कारण
स्पष्ट है, भारत का षासक वर्ग
पूरी तरह से कारपोरेट पूंजीवाद का पक्षधर है। देष के नेता, उद्योगपति,
बुद्धिजीवी, लेखक,
कलाकार, फिल्मी
सितारे, पत्रकार,
खिलाड़ी, जनांदोलनकारी,
नौकरषाह, तरह-तरह
के सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट कारपोरेट पूंजीवाद के समर्थन और मजबूती की मुहिम में
जुटे हैं। इनमें जो षामिल नहीं हैं उनके बारे में माना जाता है उनकी प्रतिभा में
जरूर कोई खोट या कमी है। नवउदारवाद और उसके पक्षधरों की स्थिति इतनी मजबूत है कि
अब उनकी आलोचना भी उनके गुणों का बखान हो जाती है और उनका पक्ष और मजबूत करती है।
जैसा कि हमने पहले भी कई बार बताया है,
नवउदारवादियों के साथ प्रच्छन्न नवउदारवादियों की एक बड़ी और
मजबूत टीम तैयार हो चुकी है। वह षासक वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध है और नवउदारवाद
विरोध की राजनैतिक संभावनाओं को नष्ट करने में तत्पर रहती है। दरअसल,
सीधे नवउदारवादियों के मुकाबले प्रच्छन्न नवउदारवादी जनता
और समाजवाद के बड़े दुष्मन बने हुए हैं। नवउदारवाद के मुकाबले में उभरे सच्चे
जनांदोलनों और समाजवादी राजनीति के प्रयासों को प्रच्छन्न नवउदारवादियों ने
बार-बार भ्रष्ट किया हैा। इन्होंने एक बड़ा हल्ला, अंतर्राष्ट्रीय
स्तर का, वर्ल्ड सोषल फोरम
(डब्ल्यूएसएफ) के तत्वावधान में बोला था और उससे बड़ा हमला, राष्ट्रीय
स्तर पर, इंडिया अगेंस्ट
करप्षन (आईएसी) के तत्वावधान में बोला हुआ है। प्रछन्न नवउदारवादियों के लिए सब
कुछ अच्छा हो सकता है; बुरी है तो केवल
राजनीति। हालांकि उनकी अपनी राजनीतिक ऐषणाएं षायद ही कभी एक पल के लिए सोती हों।
डब्ल्यूएसएफ के समय कम से कम सांप्रदायिकता
से बचाव था। गैर-राजनीतिक रूप में ही सही, ‘दूसरी
दुनिया संभव है’ का नारा था। आईएसी
के आंदोलन में संप्रदायवादी और धर्मनिरपेक्षतावादी आपस में मिल गए हैं और वे एक ‘जन
लोकपाल’ के बदले नवउदारवादी
व्यवस्था और नेतृत्व को अभयदान देते हैं। आईएसी के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का
षुरुआती नारा था - ‘मनमोहन सिंह वोट
चाहिए तो जन लोकपाल कानून लाओ’।
अब बाबा रामदेव कहते घूम रहे हैं, ‘राहुल
गांधी काला धन वापस लाओ, प्रधानमंत्री
बन जाओ’। सुना है नवउदारवाद
के उत्पाद इन बाबा ने विदेषों मेंं जमा काला धन वापस लाने का आंदोलन फिर से छेड़ने
के लिए अगस्त क्रांति दिवस को चुना है!
मुख्यधारा मीडिया पूरी तरह नवउदारवादियों
और प्रच्छन्न नवउदारवादियों के साथ है, जिसमें
नेता और मुद्दे कंपनियों के उत्पाद की तरह प्रचारित किए जाते हैं। नतीजा यह है कि
भारतीय मानस संपूर्णता में षासक-अभिमुख यानी नवउदारवादी रुझान का बनता जा रहा है।
नवउदारवादी नीतियों से प्रताड़ित जनता भी इस मुहिम की गिरफ्त में है। यह प्रक्रिया
जब मुकममल हो जाएगी, कोई भी बदलाव संभव
नहीं होगा। केवल फालतू लोगों का सफाया होगा। हम प्रच्छन्न नवउदारवादियों के इस
तर्क के कायल नहीं हैं कि वे सरकार पर दबाव डाल कर गरीबों के लिए जनकल्याणकारी
योजनाएं बनवाते हैं। उनकी यह मदद गरीबों को नहीं, कोरपोरेट
घरानों को सुरक्षित करती है।
हम हाल का एक वाकया बताना चाहते हैं। 8
जुलाई को पूना में समाजवादी नेता और लेखक/पत्रकार पन्नालाल सुराणा के सम्मान में
एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। अवसर उनके अस्सीवें साल में प्रवेष करने का था। कार्यक्रम
के आयोजन में राष्ट्र सेवा दल की प्रमुख भूमिका थी जिसके वे अध्यक्ष रह चुके हैं।
महाराष्ट्र के हर जिले से आए करीब पांच सौ लोगों ने साने गुरुजी स्मारक पहुंच कर
पन्न्नालाल जी को बधाई दी। चंदा करके उगाहे गए ग्यारह लाख रुपयों का चेक भी भेंट
किया गया। सत्ता की राजनीति से बाहर किए गए राजनीतिक संघर्ष के लिए उत्तर भारत में
ऐसा कार्यक्रम होना असंभव है। हमने अपनी आंखों से देखा कि एक व्यक्ति नंगे पैर आया
और स्वागत कक्ष में चंदा देकर रसीद ली।
कार्यक्रम हालांकि पन्नालाल जी के अभिनंदन
का था, लेकिन चर्चा
ज्यादातर राजनीतिक हो गई। स्वागत समिति के अध्यक्ष भाई वैद्य ने पन्नालाल जी के
व्यक्तित्व और लेखकीय कृतित्व के साथ समाजवादी आंदोलन में उनके राजनीतिक संघर्ष पर
भी प्रकाष डाला। मुख्य अतिथि जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने अपने वक्तव्य में
अवसरोपयुक्त टिप्पणी करने के साथ कार्यक्रम की अध्यक्ष अरुणा राय को संबोधित करते
हुए कहा कि वे एक बार फिर उन्हें सक्रिय राजनीति में आने की अपील करके उलझन में
डालना चाहते हैं। वे षायद पहले भी कतिपय अवसरों पर उनसे वैसी अपील कर चुके होंगे।
उन्होंने दूसरे मुख्य अतिथि ऊर्जा मंत्री सुषील कुमार षिंदे को भी नवउदारवादी
नीतियों के दुष्परिणामों की चर्चा करके उलझन में डाला। षिंदे साहब का भाषण लंबा
था। वे नवउदारवादी नीतियों की जरूरत और उनसे होने वाले फायदों पर बोले। पन्नालाल
जी को हालांकि आयोजकों और वहां आने वाले षुभेच्छुओं का धन्यवाद ही करना था,
लेकिन समाजवादी प्रतिबद्धता और राजनीतिक संघर्ष के तहत
उन्होंने अपने भाषण में षिंदे साहब की धारणाओं का जोरदार ढंग से खंडन किया।
हमें अच्छा लगा कि एक नागरिक अभिनंदन के
कार्यक्रम में अच्छी-खासी राजनीतिक बहस सुनने को मिली। लेकिन आष्चर्य भी हुआ कि
राष्ट्रीय सलाहकार समिति की सदस्य अरुणा राय ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में सक्रिय
राजनीति की बात करने वालों पर बिना झिझक तानाकषी की। उनका निषाना कारपोरेट
पूंजीवाद के खिलाफ समाजवाद की राजनीति करने वालों पर था। गोया सक्रिय राजनीति करने
का अधिकार उस पार्टी और सरकार के लिए सुरक्षित है, जिसकी
वे सलाहकार हैं! उन्होंने कहा कि वे राजनीति को ज्यादा अच्छी तरह समझती हैं और जो
कर रही हैं वही सच्ची राजनीति है। उनके मुताबिक, यह
उसी राजनीतिक चेतना का असर है कि लोग अब सवाल पूछ रहे हैं। उन्होंने राजनीतिक
चेतना फैलाने में नर्मदा बचाओ आंदोलन का हवाला भी दिया। मनरेगा को वे राजनीतिक
चेतना की देषव्यापी पाठषाला मानती ही होंगी। काफी ऊंचे ओटले से बोलते हुए उन्होंने
घोषणा की कि असली आजादी तो अब आई है, जब
उन जैसे सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों ने लोगों का जागरूक करना षुरू किया है। अरुणा
राय अपने वक्तव्य को लेकर इस कदर आत्मव्यामोहित थीं कि अपनी मान्यता और भूमिका पर
रंच मात्र भी आलोचनात्मक निगाह डालने को तैयार नहीं दिखीं।
दरअसल, एनजीओ
वालों का राजनीतिक संघर्ष से कोई वास्ता नहीं रहा होता। वे उसके बारे में वाकफियत
भी नहीं रखना चाहते। वे गरीबों को साल में सौ दिन सौ रुपया का काम देने को बहुत
बड़ी क्रांति मान कर अपनी पीठ ठोंकते हैं और इस सच्चाई से आखें फेरे रहते हैं कि
देष में कारपोरेट क्रांति हो चुकी है। अगस्त क्रांति के दिन यह समझना जरूरी है इन
लोगों का स्वार्थ षासक-वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध है। वरना सीधी बात है,
यदि आप किसी सरकार या पार्टी की विचारधारा से सहमत नहीं हैं
तो उसके सलाहकार नहीं बन सकते। काम करने के लिए उस सरकार के प्रोजेक्ट नहीं ले
सकते। सोनिया गांधी की सलाहकार समिति, जिसका
सदस्य बनने के लिए मारामारी होती है, द्वारा
जो भी काम संपादित होता है, सरकार
के लिए होता है और कांग्रेस नीत यूपीए सरकार कारपोरेट पूंजीवाद की पैरोकार सरकार
है।
मजेदारी यह है कि जनता को धोखा देने का यह
खेल खुलेआम और बिना किसी ग्लानि के चलता है। अपने वायसराय को लिखे खत में लोहिया
ने जिन्हें ‘आपके आदमी’
बताया है, सरकारों
के सलाहकार बने प्रच्छन्न नवउदारवादी उसी श्रेणी में आते हैं। सोनिया के इन
सलाहकारों से पूछा जा सकता है कि आप भारत की करोड़ों माताओं की दुर्दषा में षामिल
हैं, उन माताओं के करोड़ों बच्चों के कुपोषण,
बीमारी, असमय
मृत्यु, अषिक्षा की
जिम्मेदारी आप पर आयद होती है, बहुराष्ट्रीय
कंपनियों द्वारा देष के संसाधनों की लूट, लोगों
के विस्थापन और लाखों किसानों की आत्महत्या किसी दैवीय प्रकोप की नहीं,
आपकी देन हैं, क्योंकि
आप सरकार के सलाहकार हैं और उस सरकार की राजनीति से अलग राजनीति के धुर विरोधी!
सीधे राजनीति ही रास्ता
नवउदारवादी गुलामी के खतरे को सबसे पहले
देख पाने वाले राजनेता और चिंतक किषन पटनायक ने यह माना था कि नवउदारवाद के विरोध
और विकल्प के लिए जनांदोलनों का राजनीतिकरण और एकीकरण होना चाहिए। वह निष्चित ही
एक प्रासंगिक और स्फूर्तिदायक विचार था।
किषन पटनायक की साख भी थी और समस्या की सम्यक समझ भी। इस उद्देष्य की प्राप्ति के
लिए उन्होंने कई वरिष्ठ और युवा समाजवादी साथियों के साथ मिलकर पहल की। 1995
में एक नई राजनीतिक पार्टी समाजवादी जन परिषद (सजप) का गठन हुआ जिसके तहत वैकल्पिक
राजनीति और वैकल्पिक विकास का विचार लोगों के सामने रखा गया। हालांकि किषन पटनायक
की आषा फलीभूत नहीं हो पाई। भारत सहित दुनिया के सभी देषों में एनजीओ का तंत्र
नवउदारवाद विरोधी किसी भी राजनीतिक पहल को निष्क्रिय करने के लिए स्वाभाविक तौर पर
सक्रिय रहता है। उसी तंत्र में फंस कर किषन पटनायक की मौत हो गई।
नवउदारवाद के खिलाफ सजप के अलावा और भी कई
राजनैतिक प्रयास हुए हैं। उदारीकरण के पहले 10
सालों में मुख्यधारा राजनीति की तरफ से भी उसके विरोध में कुछ न कुछ स्वर उठते
रहे। देष पर देष के षासक-वर्ग द्वारा नवउदारवादी हमले के बाद उसका मुकाबला करने की
प्रेरणा से चुनाव आयोग में बड़ी संख्या में राजनीतिक पार्टियों का पंजीकरण हुआ है।
लेकिन कोई प्रयास कामयाब नहीं हो पा रहा है। बल्कि ऐसे प्रयासों को लोकतंत्र को
कमजोर करना प्रचारित किया जाता है। इस गतिरोध के कई कारण हैं,
लेकिन षासक-अभिमुख प्रछन्न नवउदारवादियों,
जो कभी जनांदोलनकारियों के और कभी सिविल सोसायटी
एक्टिविस्टों की सूरत में होते हैं, की
नकारात्मक भूमिका उनमें प्रमुख है।
अगस्त क्रांति की सत्तरवीं सालगिरह पर हम
यह समझ लें, कि एनजीओ आधारित
जनांदोलनकारी राजनैतिक प्रयासों पर पानी फेरने का काम करते हैं,
तो आगे का रास्ता बनेगा। कहने को ये गैर-सरकारी संस्थाएं
हैं, लेकिन उनसे ज्यादा सरकारी सरकारों के अपने
विभाग भी नहीं होते। इन्होंने जेनुइन प्रतिरोधी आंदोलनों - चाहे वे किसानों के हों,
आदिवासियों के हों, मजदूरों
के हों, छोटे व्यापारियों के
हों, निचले दरजे के सरकारी कर्मचारियों के हों
या छात्रों के - आगे नहीं बढ़ने दिया। वैष्विक कारपोरेट पूंजीवाद की हमसफर फोर्ड
फाउंडेषन, राकफेलर फाउंडेषन
जैसी दानदाता संस्थाओं और उसी तरह की बहुत-सी ईनामदाता संस्थाओं के धन ने समाजवादी
राजनीति के रास्ते को अवरुद्ध किया हुआ है। जैसे बड़े नेता और पार्टियां अपने यहां
स्वतंत्र राजनीतिक सोच के कार्यकर्ताओं को नहीं पनपने देते,
वैसे ही प्रच्छन्न नवउदारवादी समाज में राजनीतिक पहल और
प्रक्रिया को नहीं संभव होने देते। इनका मानना है कि हर कार्यकर्ता की कीमत होती
है, उसे चुकाने वाला एनजीओ अथवा ईनामदाता
संस्था होनी चाहिए। कहना न होगा कि कीमत और मुनाफे से जुड़ी यह सोच पूंजीवाद की
पैदाइष है। इन्हें सुरक्षा का दोहरा कवच प्राप्त है - भारत के षासक वर्ग का और
वैष्विक आर्थिक संस्थाओं का। इन्हें कारेपोरेट पूंजीवाद के ‘सिविल
सुरक्षा बल’ कहा जा सकता है। एक
और बात गौर की जा सकती है, अंग्रेजी
नहीं जानने वाले लोग इनकी दुनिया के सदस्य नहीं बन सकते; उन्हें
साम्राज्यवादी चाल के इन प्यादों का प्यादा बन कर रहना होता है। जनता की स्वतंत्र
राजनीति भला ये कैसे बरदाष्त कर सकते हैं?
अगस्त क्रांति दिवस की सही प्रेरणा यही हो
सकती है कि नवसाम्राज्यवादी गुलामी और उसे लादने वाले षासक-वर्ग के खिलाफ संघर्ष
की राजनीति संगठित और विकसित हो। बाकी सारे सामाजिक-संस्कृतिक प्रयास उस राजनीति
को पुष्ट और बहुआयामी बनाने में लगें। हालांकि पूंजीवाद की चौतरफा गिरफ्त और जीने
की मजबूरियों ने देष की जनता को राजनीतिक रूप से लगभग अचेत कर दिया है। किसी नई
राजनीतिक पहल को उसका समर्थन नहीं मिल पाता। मध्यवर्ग राजनीति-द्वेषी बन गया है और
दिन-रात उसका प्रचार करता है। परोक्ष रूप से वह मौजूदा राजनीति को ही मजबूत करता
है जो धनबल, बाहुबल,
संप्रदायवाद, जातिवाद,
व्यक्तिवाद, परिवारवाद,
वंषवाद, क्षेत्रवाद
आदि के बल पर चलती है। ऐसे कठिन परिदृष्य में जो राजनीतिक संगठन जनता के पक्ष को
मजबूत बनाने के लिए खुला और सतत राजनीतिक संघर्ष करेगा, एक
दिन उसे सफलता मिलेगी।
हालांकि प्रच्छन्न नवउदारवादियों को दूर
रखना बहुत मुष्किल है, लेकिन दूर रखे बगैर
नवउदारवाद विरोध की राजनीति खड़ी नहीं हो सकती। 20-22
साल के अनुभव के बाद यह स्वीकार करना चाहिए कि अगर भारत में समाजवादी राजनीतिक
ताकत खड़ी हो पाएगी तो प्रछन्न नवउदारवादियों से बच कर ही हो पाएगी।
Monday, July 30, 2012
महुआ न्यूजलाइन:किसके हक की आवाज
जँतर-मँतर के अलावे एक अनशन नोएडा फिल्मसिटी मेँ भी चल रही है..महुआ न्यूज लाइन के सैकडोँ मीडियाकर्मियोँ ने हक की आवाज उठाई है..सँभवत: इकलेक्ट्रानिक मीडिया मेँ ऐसा पहली बार हो रहा है..जब प्रबँधन के तानाशाही फरमान के खिलाफ मीडियाकर्मियोँ ने अनशन और खुला विरोध शुरु किया..मुनाफे मेँ चल रही महुआ न्यूजलाइन को कँपनी अचानक एक दिन बँद करने की घोषणा करती है और बिना नोटीस..बिना बातचीत किए सैकडोँ मीडियाकर्मियोँ को घर जाने को कह देती है...लेकिन मीडियाकर्मियोँ ने बजाए प्रबँधन के हुक्म को मानने के आम्दोलन शुरु कर दिया और साफ कर दिया कि जब तक उनका हक नहीँ मिल जाता आम्दोलन जारी रहेगा..
अब बारी उन लोगोँ की है जो मीडिया के कार्पोरेटाइजेशन..पूँजी का गुलाम होने..मीडिया के मार्ग भटकने और मीडिया मेँ चल रहे आँतरिक शोषण के से खुद को चिँतित दिखाते-बताते है..क्या ऐसे लोग इन आँदोलनरत मीडियाकर्मियोँ के समर्थन मेँ आगे आँएँगे..?
Wednesday, June 27, 2012
संविधान नहीं नवउदारवाद का अभिरक्षक राष्ट्रपति
प्रेम सिंह
एक बार फिर नवउदारवाद
पिछली बार की तरह इस बार भी राष्ट्रपति
चुनाव लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। राष्ट्र के सर्वोच्च संवैधानिक प्रमुख के
चुनाव के अवसर पर चर्चा होना अच्छी बात है। इस अवसर पर चर्चा के कई बिंदु हो सकते
है। मसलन,
चर्चा में पिछले राष्ट्रपतियों के चुनाव, समझदारी
और विशेष कार्यों का आलोचनात्मक स्मरण किया जाए। यहां हम याद दिलाना चाहेंगे कि
देष के दो बार राष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद की डॉ. लोहिया ने इस बात के लिए
कड़ी आलोचना की थी कि उन्होंने राष्ट्रपति रहते बनारस के पंडितों के पैर पखारे थे।
संविधान निर्माण के समय की राष्ट्रपति संबंधी बहसों का स्मरण भी किया जा सकता है।
संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने की जो बात अक्सर होती है -
अक्सर यह मान कर कि अमेरिका की तरह भारत में भी राष्ट्रपति प्रणाली अपना ली जाए तो
सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी - उस पर गंभीर बहस चलाई जाए। कहने की जरूरत नहीं कि
संविधान का अभिरक्षक (कस्टोडियन) होने के नाते राष्ट्रपति के व्यक्तित्व, पद
और भूमिका को लेकर पूरी चर्चा भारत के संविधान की संगति में हो, न
कि उससे स्वतंत्र। इस तरह राष्ट्रपति चुनाव का अवसर हमारे संवैधानिक नागरिक बोध को
पुष्ट करने में सहायक हो सकता है।
लेकिन जो चर्चा चल रही है उससे लगता है कि
हमारे लिए राष्ट्रपति चुनाव कोई महत्व का अवसर नहीं है। मीडिया और राजनीतिक
पार्टियां दोनों का संदेष यही है कि महत्व की बात केवल यह है कि कौन राजनीतिक
पार्टी या नेता अपना आदमी राष्ट्रपति बना कर राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करता है।
(आगे देखेंगे कि यह जरूरी नहीं कि राजनीति से बाहर का सर्वसम्मति से चुना गया
व्यक्ति राजनेता के मुकाबले संविधान की कसौटी और अन्य अपेक्षाओं पर ज्यादा खरा
उतरता हो।) इस बार के चुनाव में राजनीतिक पार्टियां और नेता दांव-पेच में कुछ
ज्यादा ही उलझे हैं। किसी ने गुगली फेंकी है तो कोई पांसा फेंक रहा है!
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति बनाने का सुझाव फेंका गया तो यह पूरा
प्रकरण एक एब्सर्ड ड्रामा जैसा लगने लगा। जो दांव-पेच हुए और आगे होने की संभावना
है,
उनका पूरा ब्यौरा देने लगें तो कॉलम उसी में सर्फ हो जाएगा।
एक वाक्य में कहें तो यह पूरा प्रकरण भारतीय राजनीति की दिषाहीनता दर्षाता है। कई
बार दिषाहीनता का संकट सही दिषा के संधान में सहायक हो सकता है। बषर्ते उसके पीछे
एक वाजिब दिषा की तलाष की प्रेरणा निहित हो। लेकिन मुख्यधारा भारतीय राजनीति की
दिषाहीनता की एक ही दिषा है - नवउदारवाद की तरफ अंधी दौड़। राष्ट्रपति का चुनाव उसी
अंधी दौड़ की भेंट चढ़ चुका है। राष्ट्रपति संविधान का अभिरक्षक कहलाता है, लेकिन
पूरी चर्चा में - चाहे वह विद्वानों की ओर से हो, नेताओं
या उम्मीदवारों की ओर से - वह नवउदारवाद के अभिरक्षक के रूप में सामने आ रहा है।
किसी कोने से यह चर्चा नहीं आई है कि राष्ट्रपति को पिछले 25
सालों में ज्यादातर अध्यादेषों के जरिए नवउदारवाद के हक में बदल डाले गए संविधान
की खबरदारी और निष्ठा के साथ निगरानी करनी है; कि
ऐसा राष्ट्रपति होना चाहिए जो संविधान को पहुंचाई गई चौतरफा क्षति को समझ कर उसे
दुरुस्त करने की प्रेरणा से परिचालित हो; और
जो संविधान के समाजवादी लक्ष्य से बंधा हो।
जाहिर है, नवउदारवाद
को अपना चुकी कांग्रेस और भाजपा की तरफ से ऐसा उम्मीदवार नहीं आएगा। क्षेत्रीय
पार्टियां भी कांग्रेस-भाजपा के साथ नवउदारवादी नीतियों पर चलती हैं। उनमें कई
अपने को समाजवादी भी कहती हैं। उनमें एक जनता दल (यू) है जिसके प्रवक्ता ने
कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी के समर्थन में कहा है कि नवउदारवादी आर्थिक
नीतियां अटल हैं। उनके मुताबिक भाजपा के प्रवक्ता रवि प्रसाद वित्तमंत्री बन जाएं
तो वे भी वही करेंगे जो प्रणव मुखर्जी ने किया है। सीधे समाजवादी नाम वाली
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह की भूमिका को देख कर लगता नहीं कि जिस
लोहिया को वे मायावती के अंबेडकर की काट में इस्तेमाल करते हैं, उस
महान समाजवादी चिंतक की एक पंक्ति भी उन्होंने पढ़ी है। बीजू जनता दल और अन्ना
द्रमुक पीए संगमा की उम्मीदवारी के प्राथमिक प्रस्तावक हैं। संगमा ने प्रणव
मुखर्जी को बहस की चुनौती दी है। इसलिए नहीं कि बतौर वित्तमंत्री उन्होंने
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करके संविधान विरोधी कार्य किया है। बल्कि
नवउदारवादी आर्थिक नीतियां तेजी से लागू करने में उनकी विफलता उद्घाटित करने के
लिए वे प्रणव मुखर्जी से षास्त्रार्थ करना चाहते हैं। वे अपने को नवउदारवादी
नीतियों का प्रणव मुखर्जी से बड़ा विषेषज्ञ और समर्थक मानते हैं।
प्रणव मुखर्जी के समर्थन पर जिस तरह से
राजग में विभाजन हुआ है, उसी तरह वाम मोर्चा
भी विभाजित है। हालांकि वाम मोर्चा का विभाजन ज्यादा महत्व रखता है, क्योंकि
वह समाजवाद के लक्ष्य से परिचालित एक विचारधारात्मक मोर्चा है जो पिछले करीब चार
दषकों से कायम चला आ रहा है। वाम मोर्चा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने
प्रणव मुखर्जी का समर्थन किया है जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का मतदान में
हिस्सा नहीं लेने का फैसला है। माकपा के साथ फारवर्ड ब्लॉक है और सीपीआई के साथ
आरएसपी। माकपा ने पिछली बार भी प्रतिभा पाटिल की जगह प्रणव मुखर्जी का नाम
कांग्रेस अध्यक्ष के सामने रखा था। तब वाम मोर्चा की ताकत ज्यादा थी और पष्चिम
बंगाल में माकपा नीत वाम मोर्चा की सरकार थी।
समर्थन का माकपा का तर्क अजीब और खुद की
पार्टी की लाइन के विपरीत है। जैसा कि प्रकाष करात ने कहा है, राष्ट्रपति
का चुनाव विचारधारा के बाहर कैसे हो गया? अगर
मार्क्सवादी विचारधारा के बाहर मान भी लें, तो
क्या वह संविधान की विचारधारा के भी बाहर माना जाएगा? राष्ट्रपति
संविधान का अभिरक्षक होता है, फिर इसके क्या मायने
रह जाते हैं? भारत में मार्क्सवादी विमर्ष और पार्टी
अथवा संगठन तंत्र की अपनी दुनिया है। उसका अपना षास्त्र एवं षब्दावली और उसके आधार
पर आपसी सहयोग और टकराहटें हैं। माकपा के इस फैसले पर कम्युनिस्ट सर्किल में बहस
चल रही है और उसे सही नहीं माना जा रहा है। खुद माकपा के षोध प्रकोष्ठ के एक युवा
नेता ने फैसले को सिरे से गलत और पार्टी लाइन के विपरीत बताते हुए अपने पद से
इस्तीफा दिया है। माकपा ने उसे पार्टी से ही बाहर कर दिया है। माकपा का कहना है कि प्रणव मुखर्जी की
व्यापक स्वीकृति है और माकपा की ताकत विरोध करने की नहीं है। सवाल है कि क्या
व्यापक स्वीकृति नवउदारवाद की नहीं है? तो
क्या उसका विरोध न करके उसके साथ हो जाना चाहिए? स्पष्ट
है कि माकपा का फैसला पष्चिम बंगाल की राजनीति से संबद्ध है। अपनी प्रतिद्वंद्वी
ममता बनर्जी द्वारा प्रणव मुखर्जी के विरोध के चलते माकपा ‘बंगाली
मानुष’
को रिझाने के लिए मुखर्जी का समर्थन कर रही है।
लेकिन इसमें विचारधारात्मक उलझन भी षामिल
है। संकट में घिरी माकपा भारतीय समाजवाद की बात करने के बावजूद पूंजीवाद के बगैर
समाजवाद की परिकल्पपना नहीं सोच पाती है। उसके सामने दो ही रास्ते हैं - या तो वह
पूंजीवाद का मोह छोड़े या एकबारगी पूंजीवाद के पक्ष में खुल कर मैदान में आए। एक
दूसरी उलझन भी है। मार्क्सवादियों के लिए भारत का संविधान (और उसके तहत चलने वाला
संसदीय लोकतंत्र) समाजवादी क्रांति में बाधा है। उन्होंने मजबूरी में उसे स्वीकार
किया हुआ है। इसलिए संविधान के प्रति सच्ची प्रेरणा उनकी नहीं बन पाती। तीसरी उलझन
यह है कि आज भी वे राजनीति की ताकत के पहले पार्टी की ताकत पर भरोसा करते हैं।
संगठन से बाहर - चाहे वह पार्टी का हो, लेखकों
का,
या सरकार का - मार्क्सवादी असहज और असुरक्षित महसूस करते
हैं। लिहाजा, बाहर की दुनिया उनके लिए ज्यादातर सिद्धांत
बन कर रह जाती है। इसके चलते राजनीतिक ताकत का विस्तार नहीं हो पाता।
अच्छा यह होता कि वाम मोर्चा अपना
उम्मीदवार खड़ा करता। चुनावी गणित में वह कमजोर होता, लेकिन
जब तक जनता तक यह संदेष नहीं जाएगा कि उसकी पक्षधर राजनीति कमजोर है, तब
तक वह उसे ताकत कैसे देगी? अभी तो यह हो रहा है
कि खुद जनता की पक्षधर राजनीति के दावेदार यह कह कर मुख्यधारा के साथ हो जा रहे
हैं कि उनकी चुनाव लड़ने की ताकत नहीं है। अकेली आवाज, अगर
सच्ची है,
तो उसे अपना दावा पेष करना चाहिए। नवउदारवादी साम्राज्यवाद
के इस दौर में समाजवादी राजनैतिक चेतना के निर्माण का यही एक रास्ता है जो संविधान
ने दिखाया है। जरूरी नहीं है कि नवउदारवाद की पैरोकार राजनीतिक पार्टियों के सभी
नेता और कार्यकर्ता नवउदारवाद के समर्थक हों। वे भी उठ खड़े हो सकते हैं और अपनी पार्टियों
में बहस चला सकते हैं। कहने का आषय यह है कि नवउदारवाद समर्थक प्रणव मुखर्जी और
पीए संगमा के मुकाबले में वाम मोचा्र की तरफ से एक संविधान समर्थक उम्मीदवार दिया
जाना चाहिए था।
वह उम्मीदवार राजनीतिक पार्टियों के बाहर
से भी हो सकता था। जैसे कि जस्टिस राजेंद्र सच्चर का नाम सामने आया था। लेकिन उस
दिषा मेंं आगे कुछ नहीं हो पाया। जबकि नागरिक समाज संविधान के प्रति निष्ठावान
किसी एक व्यक्ति को चुन कर नवउदारवादी हमले के खिलाफ एक अच्छी बहस इस बहाने चला
सकता था। ऐसे व्यक्ति का नामांकन नहीं भी होता, तब
भी उद्देष्य पूरा हो जाता। लेकिन भारत के नागरिक समाज की समस्या वही है जो
मुख्यधारा राजनीति में बनी हुई है। वहां समाजवादी आस्था वाले लोग बहुत कम हैं।
ज्यादातर आर्थिक सुधारों की तेज रफ्तार के सवार हैं। यही कारण है कि जस्टिस सच्चर
अथवा किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में नागरिक समाज की ओर से मजबूत प्रयास नहीं हो
पाया।
कह सकते हैं कि राष्ट्रपति का यह चुनाव
संकट के समाधान की दिषा में कोई रोषनी नहीं दिखाता। बल्कि संकट को और गहरा करता
है। प्रणव मुखर्जी की राष्ट्रपति के रूप में जीत को मनमोहन सिंह और मंटोक सिंह
आहलुवालिया आर्थिक सुधारों को तेज करने का अवसर बनाएंगे। प्रणव मुखर्जी के
राष्ट्रपति चुनाव जीतते ही सबसे पहले संभवत: खुदरा क्षेत्र में 51
प्रतिषत विदेषी निवेष के स्थगित फैसले को लागू कर दिया जाएगा।
यह भी कह सकते हैं कि इस संकट से जूझा जा
सकता था,
बषर्ते नागरिक समाज संविधान की टेक पर टिका होता। हम
नक्सलवादियों को बुरा बताते हैं और उन पर देषद्रोह का अपराध जड़ते हैं, क्योंकि
वे भारत के संविधान को स्वीकार नहीं करते। लेकिन नक्सलवादियों को देषद्रोही बताने
वाले राजनेताओं और नागरिक समाज एक्टिविस्टों की संविधान के प्रति अपनी निष्ठा
सच्ची नहीं हैं। पिछले 25 सालों में यह
उत्तरोत्तर सिद्ध होता गया है। इस चुनाव से भी यही सबक मिलता है।
टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री समेत उनकी
केबिनेट के जिन मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं उनमें प्रणव मुखर्जी भी
हैं। वे राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि टीम अन्ना की लड़ाई
भ्रष्टाचार से उतनी नहीं, जितनी कांग्रेस से
ठन गई है। प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति बनना कांग्रेस की जीत है। भाजपा कांग्रेसी
उम्मीदवार को रोकने की, या कम से कम उसे
मजबूत टक्कर देने की रणनीति नहीं बना पाई। उसके वरिष्ठतम नेता अडवाणी दयनीयता से
कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के नाम पर सर्वसम्मति बनाने के लिए
भाजपा से बात नहीं की। ममता बनर्जी अभी यूपीए से निकली नहीं हैं और मुलायम सिंह
झोली में गिरने को तैयार बैठे हैं। भाई रामगोपाल यादव को उपराष्ट्रपति का पद मिल
जाए,
दूसरे भाई षिवपाल यादव और बहू डिंपल केंद्र में मंत्री बन
जाएं तो परिवार के मुखिया का कर्तव्य संपूर्ण हो जाएगा! आरएसएस हालांकि मोदी पर
अड़ेगा नहीं, लेकिन ‘विनाष
काले विपरीत बुद्धि’ हो जाए तो राजग के
घटक दल ही नहीं, भाजपा में भी विग्रह तेज होगा। ऐसी स्थिति
में 2014
में कांग्रेस की पक्की हार मानने वाले टीम अन्ना के कुछ सदस्य अभी से अलग लाइन पकड़
सकते हैं। वैसे भी राजनीति से दूर रहने की बात केवल कहने की है। केजरीवाल और
प्रषांत भूषण चुनाव लड़ने की संभावनाएं तलाषते घूम रहे हैं। रामदेव गडकरी से लेकर
बर्द्धन तक न्ेता-मिलाप करते घूम रहे हैं। ये सब एक ही टीम है - नवउदारवाद की
पक्षधर और पोषक। इनके पास सारा धन इसी भ्रष्ट व्यवस्था से आता है। अपने नाम और
नामे के फ्रिक्रमंद ये सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट भला किसी सही व्यक्ति के नाम पर
अड़ कर अपनी ऊर्जा क्यों बरबाद करते?
बहरहाल, कई
नाम चर्चा में आने के बाद दो उम्मीदवार तय हो गए हैं। यूपीए की तरफ से प्रणब
मुखर्जी और एनडीए की तरफ से पीए संगमा। कांग्रेस में राष्ट्रपति पद के लिए
कांग्रेस प्रत्याषी का चुनाव सोनिया गांधी ने किया। पार्टी के नेताओं ने इसके लिए
बाकायदा उनसे गुहार लगाई। जैसे संसद में सब कुछ तय करने का अधिकार सोनिया गांधी का
है और विधानसभा में एमएलए प्रत्याशी से लेकर मुख्यमंत्री तक तय करने का अधिकार है, उसी
तरह राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भी वे स्वयं ही तय करती हैं। पिछली बार भी
उन्होंने यही किया था। इससे कांग्रेस पर तो क्या फर्क पड़ना है, राष्ट्रपति
पद की गरिमा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
जैसा कि कहा जा रहा है, प्रणव
मुखर्जी बहुत हद तक सर्वस्वीकार्य हैं। लेकिन सोनिया गांधी ने उस वजह से उन्हें
उम्मीदवार नहीं बनाया है। सोनिया गांधी के प्रति व्यक्तिगत और नवउदारवाद के प्रति
विचारधारागत समर्पण की लंबी तपस्या के बाद उन्हें रायसीना हिल पर आराम फरमाने का
पुरस्कार दिया गया है। हालांकि तपस्यारत प्रणव मुखर्जी को, कहते
हैं,
प्रधानमंत्री पद की आषा थी। लेकिन सोनिया गांधी किसी
राजनीतिक व्यक्ति को इस पद के आस-पास नहीं फटकने दे सकतीं। नवउदारवादी प्रतिष्ठान
सोनिया गांधी को स्वाभाविक तौर पर अपना मानता है। सोनिया गांधी की ताकत का स्रोत
केवल कांग्रेसियों द्वारा की जाने वाली उनकी भक्ति नहीं है। केवल उतना होता तो अब
तक तंबू गिर चुका होता। वैष्विक पूंजीवादी ताकतें उन्हें सत्ता के षीर्ष पर बनाए
हुए हैं।
जाहिर है, सर्वस्वीकार्य, अनुभवी
और योग्यतम प्रणव मुखर्जी किसी गंभीर दायित्व-बोध के तहत राष्ट्रपति के चुनाव में
नहीं हैं। बल्कि यह चुनाव उनका अपना है ही नहीं। वे चुनाव जीतेंगे और संविधान की
एक बार फिर हार होगी। पार्टी और सरकार से विदाई के बिल्कुल पहले तक आर्थिक सुधारों
की रफ्तार तेज करने की जरूरत बताने वाले प्रणव मुखर्जी की डोर राष्ट्रपति भवन में
भी सुधारों के साथ बंधी रहेगी।
दूसरे उम्मीदवार संगमा भी किसी गंभीर
दायित्व-बोध के तहत चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। बल्कि अपने अब तक के राजनैतिक कैरियर
का उत्कर्ष हासिल करने के लिए मैदान में हैं। वे सत्ता के सुख में मगन रहने वाले
नेता हैं जो 1977 से अब तक आठ बार लोकसभा के सदस्य चुने गए
हैं। वे केंद्र में मंत्री रहे हैं, मेघालय
के मुख्यमंत्री रहे हैं और सर्वसम्मति से लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं। उनकी
बेटी केंद्र में मंत्री है और बेटा मेघालय में। कांग्रेस से राकांपा, राकांपा
से तृणमूल कांग्रेस, फिर राकांपा और अपनी
उम्मीदवारी न छोड़ने के चलते अब राकांपा से बाहर हैं। इस पद पर उनकी पहले से नजर
थी। कोई आदिवासी अभी तक राष्ट्रपति नहीं बना है, यह
तर्क उन्होंने अपने पक्ष में निकाला और पांच-छह लोगों का ट्राइबल फॉरम ऑफ इंडिया
बना कर खुद को उस फॉरम का उम्मीदवार घोषित कर दिया। यह कहते हुए कि वे देष के
करोड़ों आदिवासियों के प्रतिनिधि हैं।
संयोग से हमें एक टीवी चैनल पर संगमा का
इंटरव्यू सुनने को मिल गया। तब तक भाजपा ने उन्हें अपना उम्मीदवार स्वीकार नहीं
किया था। इंटरव्यू के अंत का भाग ही हम सुन पाए। उनके जवाब कहीं से भी राष्ट्रपति
के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं थे। जिस सर्वोच्च पद के लिए वे खड़े हैं, अपने
को उसके के लिए उन्होंने कतई तैयार नहीं किया है। वे राजनीति का मतलब अपने और अपने
बच्चों के लिए बड़े-बड़े पदों की प्राप्ति मानते हैं। यह सब उन्हें मिला है, इसके
लिए उन्होंने ईष्वर को धन्यवाद दिया। लेकिन राजनीतिक सत्ता की उनकी भूख किंचित भी
कम नहीं हुई है। वे अपनी और अपने बच्चों की और बढ़ती देखना चाहते हैं। जब एंकर ने
पूछा कि अभी तो वे काफी स्वस्थ हैं और आगे की बढ़ती देख पाएंगे तो उन्होंने कहा कि
राजेश पायलट कहां देख पाए अपने बेटे को मंत्री बने? यानी
जिंदगी का कोई भरोसा नहीं कब दगा दे जाए, इसलिए
जो पाना है जल्दी से जल्दी पाना चाहिए। उन्होंने अंत में यह संकेत भी छोड़ा कि इस
बार न सही, अगली बार उन्हें राष्ट्रपति बनाया जाए।
उपनिवेषवादी दौर रहा हो, आजादी
के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था का दौर रहा हो या पिछला 25
सालों का नवउदारवादी दौर - विकास के पूंजीवादी मॉडल की सबसे ज्यादा तबाही
आदिवासियों ने झेली है। संगमा उत्तर-पूर्व से हैं। वहां के आदिवासियों और षेष भारत
के आदिवासियों की स्थितियों में ऐतिहासिक, भौगोलिक
व सांस्कृतिक कारकों के चलते फर्क रहा है। पूंजीवाद का कहर बाकी भारत के
आदिवासियों पर ज्यादा टूटा है। संगमा आदिवासियों की तबाही करने वाली राजनीति और
विकास के 1977 से अग्रणी नेता रहे हैं। उन्होंने कभी
आदिवासियों के लिए आवाज नहीं उठाई। आदिवासियों को उजाड़ने वाली राजनीति के सफल नेता
रहे संगमा अब उनके नाम पर राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। सत्ता की उनकी भूख इतनी ‘सहज’ है
कि वे किसी भी समझौते के तहत मैदान से हट कर उपराष्ट्रपति बनने को तैयार हो सकते
हैं। ताकि आगे चल कर राष्ट्रपति बन सकें।
हवाई सपनों के सौदागर डॉ. कलाम
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का नाम
भी देर तक चलता रहा। ममता बनर्जी ने उन्हें उम्मीदवार बनाना चाहा और भाजपा ने।
मुलायम सिंह ने जो तीन नाम उछाले थे उनमें डॉ. कलाम का नाम भी था। जिस तरह पिछली
बार डॉ. कलाम ने दूसरा कार्यकाल पाने के लिए कोषिष की थी, इस
बार भी सक्रिय नजर आए। पिछली बार की तरह इस बार भी फेसबुक पर उनके लिए लॉबिंग की
गई। उन्हें षायद आषा रही होगी कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की दाब में कांगेस
उन्हें समर्थन दे देगी और वे एक बार फिर सर्वसम्मत उम्मीदवार बन जाएंगे। लेकिन
प्रणव मुखर्जी का नाम तय होने और उन्हें व्यापक समर्थन मिलने के बाद जब देखा कि
जीत नहीं फजीहत होने वाली है, अपनी उम्मीदवारी से
इनकार कर दिया।
याद करें प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने
पर काफी नाक-भौं सिकोड़ी गई थी। इसलिए नहीं कि वे बतौर राष्ट्रपति अपेक्षाएं पूरा
नहीं कर सकती थीं, या उन्होंने चुनाव
के पहले ही अपने दिवंगत गुरु से वार्तालाप संबंधी ‘रहस्य’ का
उद्घाटन कर दिया था। या इसलिए कि सोनिया गांधी ने उन्हें थोप दिया था। बल्कि
इसलिए कि उनका अपीयरेंस एक ग्रामीण महिला जैसा है; वे
विदेष में भारत की बेइज्जती कराएंगी। हमने यह खास तौर गौर किया था कि मध्य वर्ग से
आने वाले हमारे छात्र, जिनके अपने
माता-पिता प्रतिभा पाटिल जैसे लगते होंगे, देश
की बेइज्जती कराने का तर्क ज्यादा दे रहे थे। उनमें भी खास कर लड़कियां। उन्हें यह
भी शिकायत थी कि प्रतिभा पाटिल फर्राटे से अंग्रेजी नहीं बोलती। उन्हें डॉ. कलाम
जैसा हाईफाई राष्ट्रपति चाहिए था।
प्रतिभा पाटिल अपना कार्यकाल ठीक-ठाक निभा
ले गईं। उन्होंने कुछ भी खास नहीं किया। संविधान पर जो कुठाराघात हो रहा है, उस
तरफ उन्होंने इशारा तक नहीं किया। स्त्री सशक्तिकरण का तर्क सोनिया गांधी ने दिया
था। उस दिषा में उन्होंने कुछ भी विषेष नहीं किया। लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि
उन्होंने डॉ. कलाम जैसी हवाई बातें कभी नहीं कीं। हम इसे उनका एक बड़ा गुण मानते
हैं। अपनी छवि चमकाने के लिए जिस तरह से डॉ. कलाम ने राष्ट्रपति के ओहदे से हवाई
बातें की,
वह गलत परंपरा थी जिसे प्रतिभा पाटिल ने तोड़ा। डॉ. कलाम की
हाई-हवाई बातों में युवा ही नहीं, कई वरिष्ठ लोग भी आ
गए थे। उसीका सरमाया खाने के लिए वे दो बार फिर से राष्ट्रपति बनने के लिए उद्यत
दिखे। उनकी अवकाश-प्राप्ती के अवसर पर हमने ‘युवा
संवाद’
(अगस्त 2007) में ‘हवाई
सपनों के सौदागर डॉ. कलाम’ षीर्षक से लेख लिखा
था जो इस प्रकार है :
‘‘जिन कलाम साहब के बारे में यह कहा गया कि
उन्होंने अपने कार्यकाल में ‘प्रेसीडेंसी’ के
मायने बदल दिए, मैं कभी उनका प्रषंसक नहीं हो सका। मैंने
काफी कोषिष की उनकी सराहना कर सकूं, लेकिन
वैसा नहीं हुआ। यह मेरी सीमा हो सकती है और उस सीमा के कई कारण। मुझे उनके विचारों
में न कभी मौलिक चिंतन की कौंध प्रतीत हुई, न
इस देष की विषाल वंचित आबादी के प्रति करुणा का संस्पर्ष। जिस तरह की हाई-हवाई
बातें वे करते रहे और उनके गुणग्राहक उनका बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करते रहे, उसके
बाद यह सोचना मुष्किल है कि अपनी ऊंची उड़ान में कलाम साहब कभी इस ‘अपराधबोध’ का
षिकार होते हों कि ‘आदर्षवादियों’ ने, मुक्तिबोध
के षब्दों में, देष को मार कर अपने आप को जिंदा रखा है।
राष्ट्राध्यक्षों का प्रेरणादायी भाषण देना, सपने
दिखाना आम रिवाज है। लेकिन निराधार प्रेरणा और सपने का कोई अर्थ नहीं होता। उनके
नीचे ठोस जमीन होनी चाहिए।
यह लेख मैं नहीं लिखता अगर सुरेंद्र मोहन
और कुलदीप नैयर जैसे समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा में विष्वास रखने
वाले दो वरिष्ठतम विद्वान अवकाष ग्रहण करने के अवसर पर राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल
कलाम की अतिरंजनापूर्ण बड़ाई नहीं करते। सुरेंद्र मोहन जी तो अपनी प्रषंसात्मक
अभिव्यक्ति को ‘न भूतो, न
भविष्यति’
तक खींच लाए। वे लिखते हैं : ‘सपनों
को जगाने वाला, आषाओं और उमंगों को हर दिल में बसाने वाला
और नई दृष्टियों का संवाहक डॉ. अब्दुल कलाम जैसा राष्ट्रपति फिर कभी भारत को मिल
पाएगा यह कहना कठिन ही है। राष्ट्र को ऐसा विज्ञानवेत्ता और यांत्रिकी का विषेषज्ञ
राष्ट्रपति अब तक नहीं मिला था। न वे भाषणकला के धनी थे और न ही डॉ. राजेंद्र
प्रसाद या वेंकटरमण की तरह संविधानवेत्ता ही थे। डॉ. जाकिर हुसैन और डॉ. षंकरदयाल
षर्मा राजनीतिक, प्रषासन और षिक्षा के क्षेत्रों के
सम्मानित विद्वान थे, इन गुणों से भी डॉ.
कलाम का संबंध नहीं था। इसके बावजूद जो अपार लोकप्रियता, खास
कर नई नस्लों का असीम प्यार डॉ. कलाम को मिला, वह
षायद अन्य किसी पूर्व राष्ट्रपति को नहीं मिला। सपनों, कल्पनाओं, उमंगों
और अरमानों से सभी दिलों को भरने वाला ऐसा प्रेरणादायक षिक्षक न तो कभी इस
गौरवपूर्ण पद पर बैठा है है, न बैठेगा - न भूतो, न
भविष्यति।’ (‘दैनिक भास्कर’, 22
जुलाई 2007)
इस तरह सुरेंद्र जी ने ‘सपनों
के सौदागर’ कलाम साहब को षाीषे में उतार दिया है, जो ‘अर्थषास्त्रियों
से कहते रहे हैं कि मनुष्य सिर्फ पेट की भूख से ही नहीं तड़पता, उसे
ज्ञान का प्रकाष भी चाहिए।’ (वही) यह अफसोस की
बात है कि सुरेंद्र जी की पैनी नजर सतह पर तैरती यह सच्चाई नहीं देख पाती कि कलाम
साहब जैसों की दुनिया में ज्ञान का प्रकाष पाए लोगों का पेट कभी नहीं भरता। कलाम
साहब के कार्यकाल में उन्हीं के हस्ताक्षर से स्वीकृत हुआ सांसदों और विधायकों के
लाभ के पद से संबंधित विधेयक इसका एक छोटा-सा उदाहरण है। यह कहना कि कलाम साहब खुद
सादगी पसंद हैं, कोई मायने नहीं रखता। जिस देष में सरकार के
अनुसार देष की आधी से ज्यादा आबादी - नौनिहालों, नौजवानों, महिलाओं, बुजुर्गों
समेत - हर तरह और हर तरफ से असुक्षिरत है, वहां
कलाम साहब और मनमोहन सिंह जैसों की सादगी ‘षाही’ कही
जाएगी। उस तंत्र का हिस्सा होना जो ऐष्वर्य और ऐषोआराम में मध्यकालीन षासकों को
लज्जित करने वाला है, सादगी के अर्थ को
षून्य कर देता है।
उपर्युक्त कथन के पूर्व सुरेंद्र जी ने
लिखा है : ‘डॉ. कलाम देष को उस अंधी दौड़ से ऊपर उठाना
चाहते हैं, जो हमें अमेरिका की राह पर ले जाती है, जहां
अमीरी और गरीबी में बहुत अंतर है और एक सैंकड़ा लोग देष के पचीस सैंकड़ा गरीबों की
समूची संपत्ति से भी अधिक संपत्ति के स्वामी हैं।’ हमें
याद नहीं पड़ता कि कलाम साहब ने देष की अर्थनीति से लेकर राजनीति तक को अमरीकी पटरी
पर डालने वाली मौजूदा या पिछली सरकार को कभी इसके प्रति आगाह किया हो। हमें यह भी
नहीं लगता कि देष के अमरीकीकरण का विरोध करने वाले आंदोलनों और उनके
नेताओं-विचारकों के बारे में कलाम साहब को कोई जानकारी या सहानुभूति हो। वे देष
में दो राजनीतिक पार्टियां होने के समर्थक हैं। वे दो पार्टियां कांग्रेस और भाजपा
ही हो सकती हैंं। ये दोनों देष को अमरीका के रास्ते पर चलाने वाली हैं। इनके अलावा
कलाम साहब वामपंथी, सामाजिक न्यायवादी
या क्षेत्रीय पार्टियों को देष के विकास में बाधा मानते हैं, जिनके
चलते कांगे्रस और भाजपा को गठबंधन सरकार चलाने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कलाम
साहब की जिस लोकप्रियता का विरुद गाया जाता है वह उसी जनता के बीच है जो विषाल
भारत के भीतर बनने वाले मिनी अमेरिका की निवासी है। मिनी अमेरिका के बाहर की जनता
पर उनकी लोकप्रियता लादी गई है।
नैयर साहब को मलाल है कि कलाम साहब के रहते
राष्ट्रपति पद के लिए किसी दूसरे उम्मीदवार के बारे में सोचा गया। अवकाष प्राप्त
करने की बेला में उन्होंने कलाम साहब से मुलाकात की और उनसे कोई खास खबर निकालने
की कोषिष की। लेकिन कलाम साहब का कमाल कि वे उनके ‘विजन
2020’,
जिसके तहत सन 2020 तक
भारत दुनिया का महानतम देष हो जाएगा, के
गंभीर रूप से कायल होकर बाहर निकले। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और बहसों
पर गहरी पकड़ रखने वाले नैयर साहब ने ‘मिसाइल
मैन’
के समक्ष यह सवाल नहीं उठाया कि अगर सभी देष विकसित, महाषक्ति
और महानतम बनेंगे तो किसकी कीमत पर? भारत
2020 तक
विकसित महाषक्ति और महानतम हो जाएगा तो किस विचारधारा और रास्ते के तहत? नैयर
साहब की खुषी और बढ़ गई होगी जब कलाम साहब ने अपने विदाई भाषण में यह घोषणा की कि 2020 से
पहले भी भारत दुनिया का महानतम राष्ट्र बन सकता है। यह षीषे की तरह साफ है कि कलाम
साहब उसी राष्ट्र के विकास और महानता की बाात कर रहे हैं जिसे नवउदारवादी पिछले
डेढ़ दषक से बनाने में लगे हैं। कलाम साहब का आह्वान पूरी तरह से
अमरीकावादियों-नवसाम्राज्यवादियों की संगति में है। वरना कोई बताए कि एक अरब 20
करोड़ की आबादी का देष आधुनिक विज्ञान और तकनीकी, जिसके
कलाम साहब विषेषज्ञ हैं, पर आधारित पूंजीवादी
विकास के मॉडल के मुताबिक 2020 तक कैसे विकसित हो
सकता है?
क्या कहा जा सकता है कि अपने कार्यकाल में कलाम साहब ने
सपने नहीं, अंधविष्वास परोसे हैं!
सरकारी तंत्र और मीडिया में कलाम साहब की
गुणगाथा पूरे पांच साल सतत चलती रही। वह अगले पांच साल और चलती रहे इसके लिए कलाम
साहब के गुणगायकों ने एसएमएस के जरिए जोरदार प्रयास किया। लेकिन जब लगा कि
राष्ट्रपति का पद, जिसे उनकी नजर में
कलाम साहब ने अभूतपूर्व महानता और पवित्रता से मंडित कर दिया था, राजनीति
के गंदे कीचड़ में लथेड़ा जा रहा है, तो
गुणग्राहक दुखी हो गए। राजनीति कलाम साहब को बुरी लगती है तो उनके गुणगायकों को
कैसे अच्छी लग सकती है! गठन के समय से ही कलाम साहब के गुणगायक तीसरे मोर्चे का
उपहास उड़ाने और उन पर लानत भेजने में अग्रणी थे। लेकिन जैसे ही मोर्चे ने अपनी तरफ
से कलाम साहब का नाम चलाया, गुणगायक और खुद कलाम
साहब मोर्चे के मुरीद हो गए। काष कि मोर्चा उनकी जीत सुनिष्चित कर पाता और
गुणगायकों को कलाम साहब को आखिरी सलाम नहीं करना पड़ता! ‘कमाल
के कलाम साहब’ का आखिरी सलाम का कार्यक्रम एक ‘ग्रांड
फिनाले’
रहना ही था। हैरत यही है कि उसमें सबसे ऊंचा स्वर हमारे
आदरणीय सुरेंद्र मोहन जी और कुलदीप नैयर साहब का रहा।
कहना न होगा कि कलाम साहब के कमाल का मिथक
उनके गुणगायकों और मीडिया का रचा हुआ था। उनके पद से हटने के बाद अब वह कहीं नजर
नहीं आएगा। (ये गुणगायक और मीडिया अब किसी और बड़ी हस्ती को पकड़ेंगे जो उनके ‘मिषन
अमेरिका’
को वैधता प्रदान करे।) अंत की घोषणाओं के बावजूद इतिहास चल
रहा है। वहां ठोस विचार अथवा कार्य करने वाले लोगों की जगह बनती है। इसलिए इतिहास
में कलाम साहब की जगह गिनती भर के लिए होगी, जो
पदासीन हो जाने के नाते किसी की भी होती है। ऐसे में ज्ञान और अनुभव में पगे दो
वरिष्ठतम विद्वानों की कलाम साहब के बारे में इस कदर ऊंची धारणा का औचित्य किसी भी
दृष्टिकोण से समझ में नहीं आता। अगर अवकाष-प्राप्ति के अवसर की औपचारिकता मानें तो
वह वंदना के सुरों में एक सुर और मिलाने जितनी ही होनी चाहिए थी। लेकिन दोनों का
सुर भानुप्रताप मेहता सरीखों को भी पार कर गया, जिन्होंने
वंदना में व्याजनिंदा का भी थोड़ा अवसर निकाल लिया। (देखें, ‘इंडियन
एक्सप्रैस’ 25 जुलाई 2007
में प्रकाषित उनका लेख ‘प्राइम मिनिस्टर
कलाम?’)
धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में भी कलाम साहब
के राष्ट्रपतित्व पर कुछ चर्चा की जा सकती है। राष्ट्रपति के पद के लिए कलाम साहब
का नाम भले ही मुसलमानों को रिझाने के लिए समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम
सिंह ने चलाया हो, उनके नाम पर सहमति
बनने का वास्तविक कारण गुजरात में सांप्रदायिक फासीवादी नरेंद्र मोदी की सरकार
द्वारा हजारों मुसलमानों की हत्या और बरबादी था। अगर गुजरात में राज्य-प्रायोजित
हिंसा में मुसलमानों का नरसंहार न हुआ होता तो कलाम के नाम पर भाजपा तो तैयार नहीं
ही होती,
उस सांप्रदायिक हिंसा और उसके कर्ता को रोकने में खोटा
सिक्का साबित हुई कांग्रेस भी कदापि तैयार नहीं होती। यह कहने में अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन
वास्तविकता यही है कि कलाम साहब को राष्ट्रपति का पद एक मुसलमान होने के नाते
गुजरात में मुसलमानों की हत्याओं के बदले तोहफे में मिला था। अगर कोई संजीदा इंसान
होता तो वह विनम्रतापूर्वक उस ‘सांप्रदायिक’ आम
सहमति से इनकार कर देता और वैसा करके धर्मनिरपेक्षता के साथ ही मानवता की नींव भी
मजबूत करता। हमारी यह मान्यता अनुबोध (ंजिमत जीवनहीज) पर आधारित नहीं है। गुजरात
के कांड के बाद उनके नाम पर बनी सहमति के वक्त हमने अपनी भावना एक कविता लिख कर अभिव्यक्त की थी जो
‘सामयिक
वार्ता’
में प्रकाषित हुई थी। अपने लेख की षुरुआत में सुरेंद्र मोहन
जी ने भी इस वास्तविकता का जिक्र किया है : ‘जब
इस पद के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने उनका नाम प्रस्तावित किया
था,
तब उसे अपनी छवि सुधारने के लिए एक मुस्लिम नाम की जरूरत थी, क्योंकि
गुजरात के घटनाक्रम के कारण उसका चेहरा दागदार बन गया था। लेकिन इन पांच वर्षों
में किसी नागरिक को यह पहचान याद नहीं आई। वे ऐसी सांप्रदायिक, जातिगत
या क्षेत्रीय गणनाओं से कहीं ऊपर उठे हुए थे और पूरे देष में यह सहमति थी कि वे
उसी पद पर दोबारा आसीन हों।’ यह सही है कि कलाम
साहब सांप्रदायिक, जातिगत और क्षेत्रीय
गणनाओं से ऊपर रहे। यह बड़ी बात है और अभी तक देष के हर राष्ट्रपति ने इसका निर्वाह
किया है। लेकिन इससे यह वास्तविकता निरस्त नहीं होती कि कलाम साहब का चयन, जैसा
कि खुद श्री सुरेंद्र मोहन जी ने कहा है, सांप्रदायिक
आधार पर हुआ था। अगर वे सांप्रदायिक आधार पर होने वाले अपने चयन को नकार देते तो
उनका बड़प्पन हमारे जैसे लोग भी मानते और उन्हें बगैर राष्ट्रपति बने भी सलाम करते।’’
जाहिर है, राष्ट्रपति
चुनाव के संदर्भ में कलाम साहब का व्यवहार भी गरिमापूर्ण नहीं कहा जा सकता। वे
पिछली बार भी राष्ट्रपति बनना चाहते थे और इस बार भी ऐन चुुनाव के मौके पर सक्रिय
हो गए। सवाल सर्वानुमति का नहीं, जीत का था। अगर जीत
की संभावना होती तो वे कंटेस्ट भी कर सकते थे। पहले की तरह उन्हें इससे फर्क नहीं
पड़ता कि कौन-सी पार्टियां उनका समर्थन कर रही हैं। जैसे उनकी भारत के महाषक्ति होने
की धारणा पर अढ़ाई लाख किसानों की आत्महत्याओं से कोई फर्क नहीं पड़ता।
धर्मनिरपेक्षता के दावेदार :
कितने गाफिल कितने खबरदार
राष्ट्रपति के उम्मीदवारों की चर्चा में
भाजपा के भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार पर भी चर्चा चल निकली। आरएसएस ने नरेंद्र
मोदी का नाम आगे किया तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने को धर्मनिरपेक्षता
का बड़ा दावेदार सिद्ध करने के लिए आगे आ गए। क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव पर 2014
में होने वाले आम चुनाव की छाया है। लिहाजा, नीतीष-नरेंद्र
मोदी प्रकरण पर भी थोड़ी चचा्र वाजिब होगी।
‘गुड़ खाना परंतु गुलगुलों से परहेज करना’ - बिहार
के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर इस कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। 2004 के
पहले केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी थी तो
उसका समर्थन करने और उसमें शामिल होने वाले नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने कहा था कि
भाजपा की तरफ से ‘उदार’ वाजपेयी
की जगह अगर ‘कट्टर’ अडवाणी
प्रधानमंत्री बनाए जाते तो वे राजग सरकार का न समर्थन करते, न
उसमें शामिल होते। धर्मनिरपेक्षता की दावेदारी जताते हुए अपनी इस शर्त का उन्होंने
काफी ढिंढोरा पीटा था। हालांकि कुछ समय बाद उसी सरकार में अडवाणी उपप्रधानमंत्री
बनाए गए और मंत्री बने नीतीश कुमार ने कोई आपत्ति नहीं उठाई थी। वे पूरे समय राजग
सरकार में मंत्री रहे और बिहार में भाजपा के साथ मिल कर बतौर मुख्यमंत्री दूसरी
बार सरकार चला रहे हैं। गुजरात कांड उनके लिए घटना से लेकर आज तक कोई मुद्दा नहीं
रहा। लेकिन बीच-बीच में नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत विरोध का शगल करते रहते हैं।
गोया नरेंद्र मोदी अपने संगठन से अलग कोई बला है!
राजनीतिक सफलता ने नीतीश कुमार को आश्वस्त
कर दिया है कि आरएसएस-भाजपा के साथ लंबे समय तक राजनीति करके भी वे धर्मनिरपेक्ष
बने रह सकते हैं। यह स्थिति नीतीश कुमार से ज्यादा धर्मनिरपेक्षता के अर्थ पर एक
गंभीर टिप्पणी है। मुख्यधारा राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ भाजपा के साथ रह
कर या भाजपा का भय दिखा कर मुसलमानों के वोट हासिल कर लेना है। जाहिर है, धर्मनिरपेक्षता
का यह अर्थ संविधान में प्रस्थापित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य के पूरी तरह विपरीत और
विरोध में है। भाजपा आरएसएस का राजनैतिक मंच होने के नाते स्वाभाविक रूप से
सांप्रदायिक है। भारतीय संविधान के तहत राजनीति करने की मजबूरी में उसे अपनी
सांप्रदायिकता को ही सच्ची धर्मनिरपेक्षता प्रचारित करना होता है। दूसरे शब्दों
में,
एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा संविधान के साथ धोखाधड़ी
करती है। लेकिन भाजपा के साथ या उसका भय दिखा कर मुस्लिम वोटों की राजनीति करने
वाले दल और नेता भी संविधान के साथ वही सलूक करते हैं।
कहने का आशय है कि पिछले 25
साल की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के मूल्य को जो लगातार ठोकरें खानी पड़ रही हैं, उसके
लिए अकेले सांप्रदायिक ताकतों को दोष नहीं दिया जा सकता। सांप्रदायिकता उनका ‘धर्म’ है।
इसमें धर्मनिरपेक्ष ताकतों का दोष ज्यादा है, क्योंकि
वे धर्मनिरपेक्षता की दावेदार बन कर उसका अवमूल्यन करती हैं। यह परिघटना राजनीति
से लेकर नागरिक समाज तक देखी जा सकती है। और असली खतरा यही है।
नरेंद्र मोदी का विरोध करने पर आरएसएस ने
भले ही नीतीश कुमार को धता बताई हो, लेकिन
नीतीश कुमार आरएसएस की बढ़ती का ही काम कर रहे हैं। आरएसएस शायद यह जानता भी है।
उसने सेकुलर नेताओं और बुद्धिजीवियों को अपने ‘आंतरिक
झगड़े’
में उलझा लिया है। वह नरेंद्र मोदी पर दांव लगा कर अडवाणी
के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ कर रहा है। जैसे अडवाणी के सामने वाजपेयी ‘उदार’ हुआ
करते थे,
वैसे अब नरेंद्र मोदी के मुकाबले अडवाणी उदार बन जाएंगे।
आगे चल कर जब ‘गुजरात का शेर’ अडवाणी
जैसा नखदंतहीन बूढ़ा हो जाएगा तो उसके प्रधानमंत्री बनने का रास्ता भी साफ होगा।
क्योंकि तब तक हिंदुत्व का कोई और नया शेर आरएसएस में पैदा हो चुका होगा। खुद मोदी
उस तरह के कई शेरों के साथ प्रतियोगता करके अव्वल आए हैं। जब मोदी को गुजरात का
मुख्यमंत्री बनाया गया था तो उनसे पहले उस समय कट्टरता के मामले में उनसे कहीं
ज्यादा प्रख्यात प्रवीण तोगड़िया का नाम था। मोदी ने उन्हें पछाड़ कर मुख्यमंत्री का
पद हासिल किया था। यह जानकारी अक्सर दोहराई जाती है कि मोदी की कट्टरता से वाकिफ ‘उदार’ वाजेपयी
ने आरएसएस-भाजपा को आगाह किया था। साथ ही यह कि गुजरात कांड के मौके पर वाजपेयी ने
मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत दी थी। लेकिन होने वही दिया जो हुआ। आरएसएस की ‘उदारता’ की
बस इतनी ही सिफत है।
आरएसएस यह जानता है कि मनमोहन सिंह के बाद
देश के पूंजीपतियों की पहली पसंद नरेंद्र मोदी हैं। खुद मनमोहन सिंह के वे चहेते
हैं। नरेंद्र मोदी को भी अपनी हिंदुत्ववादी हुंकार के साथ सबसे ज्यादा भरोसा
पूंजीपतियों का है। वे पूंजीपतियों के बल पर इठलाते हैं। पूंजी के पैरोकार इधर
लगातार कह रहे हैं कि गुजरात कांड अब को भुला देना चाहिए। उनका तर्क है इससे देश
के विकास में बाधा पैदा हो रही है। यानी मोदी ने गुजरात को विकास का मरकज बना दिया
है। अब उन्हें देश के विकास की बागडोर सौंप देनी चाहिए। विदेशी पूंजी को मुनाफे से
मतलब होता है। वह मुनाफा मनमोहन सिंह कराएं या मोदी, इससे
विदेशी पूंजी को सरोकार नहीं है। इसलिए हो सकता है मोदी को अडवाणी जैसा लंबा
इंतजार न करना पड़े। दरअसल, यह खुद नरेंद्र मोदी
के हक में है कि वे इस बार अडवाणी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में आगे
रहने दें। वे रहने भी देंगे। फिलहाल वे जो फूं-फां वे कर रहे हैं, वह
भविष्य के कतिपय दूसरे दावेदारों को दूर रखने के लिए है।
आरएसएस के भीतर कट्टरता और उदारता का यह द्वंद्व
चलते रहना है। भारतीय समाज की बहुलताधर्मी बनावट के चलते आरएसएस के लिए अपने भीतर
इस तरह का द्वंद्व बनाए रखना जरूरी है। इससे गतिशीलता का भ्रम तो रहता ही है; ऊर्जा
भी मिलती है। अडवाणी नीत उग्र राममंदिर आंदोलन ने आरएसएस-भाजपा कार्यकर्ताओं में
अपूर्व ऊर्जा का संचार किया। मस्जिद टूटी, दंगे
हुए,
मुस्लिम अलगाववाद बढ़ा और अंत में ‘उदार’ वाजपेयी
प्रधानमंत्री बने। मस्जिद ध्वंस के 10
साल बाद हुए गुजरात कांड ने भी आरएसएस-भाजपा कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार
किया। उस ऊर्जा का रूप भयानक था। उसकी फसल ‘उदार’ अडवाणी
काट सकते हैं। हिंदू धर्म का बाजार में जो तमाशा बन रहा है, उसके
चलते कभी ऐसा हो सकता है कि हिंदू धर्म की वास्तवकि उदार धारा आरएसएस की छद्म
उदारता से भ्रमित (कन्फ्यूज) हो जाए। आरएसएस की वह बड़ी जीत होगी।
आरएसएस जितनी आरामदायक स्थिति में आज है, वैसा
कभी नहीं रहा। समाज में उसकी व्यापक स्वीकृति और प्रभाव है जो निरंतर बढ़ता जा रहा
है। राजनीति में तथाकथित सेकुलर पार्टियां और नेता तथा गैर-राजनीतिक सिविल सोसायटी
आंदोलन उसमें मदद कर रहे हैं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दोनों सितारे - अन्ना
हजारे और रामदेव - नरेंद्र मोदी और आरएसएस के प्रशंसक ही नहीं हैं; यह
पूरा आंदोलन फासीवादी-तानाशाही रुझान लिए है। (आंदोलन के इस तरह के चरित्र का
विस्तृत विश्लेषण हमने ‘युवा संवाद’ में
लिखे कई लेखों में किया है।) आरएसएस के लिए इससे ज्यादा मुफीद क्या होगा कि अनेक
छोटी-बड़ी सेकुलर हस्तियां इस आंदोलन की कहार बनी हुई हैं। धर्म का राजनैतिक
इस्तेमाल सांप्रदायिकता का मुख्य किंतु अपूर्ण अर्थ है। धर्म को बाजार के भाव
बेचना और समाज को अंधविश्वासों में झोंकना भी सांप्रदायिकता में शामिल है। इस
भरे-पूरे अर्थ में सांप्रदायिकता का कारोबार जितना भरपूर आज चल रहा है, भारत
में पहले कभी नहीं चला।
इसे थोड़ा और पीछे जाकर देखें। देश की सबसे
बड़ी पार्टी कांग्रेस सांप्रदायिक कार्ड खेलती है तो वह भी आरएसएस का ही काम करती
है। कांग्रेस ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार करती है।
समाजवादी पार्टी से बाहर आने पर बेनीप्रसाद वर्मा ने बताया था कि जब बाबरी मस्जिद
का ध्वंस हो रहा था तो उन्होंने मुलायम सिंह को कहा था कि समाजवादी पार्टी को आगे
बढ़ कर इसका विरोध करना चाहिए। लेकिन, बेनीप्रसाद
वर्मा के मुताबिक, मुलायम सिंह ने यह
कहते हुए हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया कि मस्जिद ध्वंस से उनकी पार्टी की ताकत
मजबूत होगी। बाद में मस्जिद ध्वंस के नायक कल्याण सिंह के साथ उन्होंने सरकार बनाई
और भाजपा-आरएसएस का बखूबी सहारा लिया। फरवरी 2002
में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मुसलमानों के राज्य प्रायोजित खुले नरसंहार पर
कुछ कट्टर आरएसएस वालों ने भी दांतों तले उंगलियां दबा ली थीं। लेकिन उसके बाद
होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव में मायावती नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने
गुजरात गई थीं। उन्होंने मोदी के साथ एक मंच से उन्हें जिताने की अपील की थी।
क्योंकि यूपी में उन्हें भाजपा के साथ सरकार बनानी थी।
लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास
पासवान वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। भारत की राजनीति में झूठ बोलना बुरा नहीं, कला
माना जाता है। पासवान गुजरात कांड के बाद बाकायदा राजग सरकार में बने रहे।
उन्होंने दलित राजनीति में अपनी प्रतिद्वंद्वी मायावती को यूपी में समर्थन न देने
के लिए भाजपा पर दबाव डाला। भाजपा के उनकी बात न स्वीकार करने पर उन्होंने वाजपेयी
सरकार से इस्तीफा दिया। जबकि वे पाकिस्तान तक कह आए हैं कि उन्होंने गुजरात कांड
के विरोध में इस्तीफा दिया था। उड़ीसा में ग्राहम स्टेंस और उनके बच्चों को जिंदा
जलाने पर जॉर्ज फर्नांडीज ने संसद में आरएसएस का बचाव किया था। राजग सरकार में
शामिल रहे तेलुगु देशम के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू को भी सांप्रदायिक भाजपा से कोई
आपत्ति नहीं रही है। तृणमूल कांग्रेस, बीजू
जनता दल,
अन्ना द्रमुक, द्रमुक, जनता
दल (सेकुलर) असम गण परिषद, लोकदल, नेशनल
कांफ्रेंस आदि धर्मनिरपेक्ष माने जाने वाले दल और उनके नेता बिना झिझक
आरएसएस-भाजपा के सहयोगी बनते हैं।
जीवन की तरह राजनीति में भी तात्कालिक के
साथ दूरगामी लक्ष्य निर्धारित होते हैं। आरएसएस और इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों
में फर्क यह है कि ये दल महज सरकार बनाने अथवा सत्ता में हिस्सेदारी करने के
तात्कालिक लक्ष्य से परिचालित होते हैं। जबकि आरएसएस के लिए सरकार बनाने, राजनीतिक
सत्ता पाने से ज्यादा समाज में अपनी विचारधारा फैलाना महत्वपूर्ण है। हाल के
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में वह भाजपा की अगली सरकार बने, इससे
ज्यादा इसलिए शरीक है कि समाज में उसकी वैधता बढ़ रही है और विचारधारा भी।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के
बतौर नरेंद्र मोदी की जगह अडवाणी का नाम आएगा तो नीतीश कुमार उसे अपनी जीत
बताएंगे। लेकिन, जैसा कि ऊपर बताया गया है, वह
आरएसएस की जीत होगी। और भी, अडवाणी आएंगे तो
सिविल सोसायटी आंदोलन के कई सेकुलर नेता सरकार या उसे बनाने और चलाने के इंतजाम
में शामिल हो सकते हैं। यह तर्क देते हुए कि उन्होंने कट्टर नरेंद्र मोदी को आगे
नहीं आने दिया। नीतीश कुमार जैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेता
उनका स्वागत करने के लिए पहले से वहां मौजूद होंगे। उदाहरण के लिए, राजग
की सरकार बनने पर, अपने पिता का इतिहास
दोहराते हुए प्रशांत भूषण बहुत विनम्रतापूर्व कानून मंत्री बन सकते हैं। उस सरकार
अथवा इंतजाम में अडवाणी के विश्वासभाजन अरविंद केजरीवाल का भी ऊंचा मुकाम होगा।
रामदेव से राष्टीय स्वाभिमान का पाठ पढ़ने वाले पूर्व के कुछ जनांदोलनकारी और
विकल्पवादी भी उसमें कुछ न कुछ काम का पा जाएंगे। कहने की जरूरत नहीं, अन्ना
हजारे और रामदेव उस सरकार के नैतिक प्रतीक और प्रेरणास्रोत होंगे।
अभी तक के अनुभव से कह सकते हैं पिछले 25
सालों का नवउदारवाद सबसे ज्यादा आरएसएस को फला है। इन दोनों - नवउदारवाद और
संप्रदायवाद - ने मिल कर सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय संविधान का किया है। इस दौरान
संविधान के नीति- निर्देशक तत्व किसी भी राजनीतिक पार्टी और नेता के लिए प्रेरक
नहीं रहे हैं। देश के संसाधनों को उसकी मेहनतकश जनता के अधिकार से छीन कर
देशी-विदेशी मुनाफाखोर कंपनियों को मोटी रिश्वतें खा कर बेचा जा रहा है। शिक्षा से
लेकर सुरक्षा तक की व्यवस्था को पूंजीवादी सांचे में ढाला जा रहा है। आबादी के
अधिकांश हिस्से को नवउदारवादी नीतियों के उच्छिष्ट पर जिंदा रहने के लिए मजबूर कर
दिया गया है। यहां तक कि मौलिक अधिकारों पर गहरा संकट आ पड़ा है। बोलने की आजादी
छीन ली गई है। पूंजीवादी सत्ता के खिलाफ बोलने वालों पर देशद्रोह के मुकदमे दायर
किए जा रहे हैं और सजाएं सुनाई जा रही हैं। इसके खिलाफ न राष्ट्रपति चुनाव की बहस
में कोई पक्ष है, न दो साल बाद चुने
जाने वाले प्रधानमंत्री पर होने वाली बहस में। भारत की प्रगतिशील राजनीति
नवउदारवाद और उसकी घुट्टी पीकर और ज्यादा बलवान बने संप्रदायवाद के सामने झुक गई
है। नीतीश कुमार जैसे आत्मव्यामोह में गाफिल नेता शायद यह सच्चाई देख ही नहीं पा
रहे हैं। तभी उन्हें अपने टके के बोल सोने के लगते हैं - ‘गोल्डन
वर्ड्स कैन नॉट बी रिपीटिड!’
एक समय माना गया था कि जातिवादी राजनीति
सांप्रदायवादी राजनीति की काट करती है। उसे सामाजिक न्याय की राजनीति का अच्छा-सा
नाम भी दिया गया था। लेकिन अब स्पष्ट हो चुका है कि तथाकथित सामाजिक न्याय की
राजनीति सांप्रदायिक राजनीति की काट नहीं है। बल्कि उसे बढ़ाने का काम करती
है।
अंत में कह सकते हैं कि भारत की सरकारें
नवउदारवादी व्यवस्था को मजबूत करती जाएंगी, लेकिन
संविधान के अभिरक्षक राष्ट्रपति - वे प्रणव मुखर्जी हों, संगमा
साहब हों या डॉ. कलाम होते - उसके विरोध में परोक्ष टिप्पणी भी नहीं करेंगे। जो
कुछ लोग सच्चे संघर्ष में जुटे हैं वे अपने ज्ञापन महामहिम को पहले की तरह सौंपते
रहेंगे। केवल यह नहीं कि सरकारें उन पर कोई कार्रवाई नहीं करेंगी, खुद
राष्ट्रपति को वे निरर्थक लगेंगे। राष्ट्रपति चुनाव के साथ सार्थकता का संघर्ष
कितना कठिन हो गया है?
26 जून
2012
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