12 अक्टूबर 2013 एक स्याह दिन हो सकता था... लेकिन इस
स्याह दिन को आम दिन में तब्दील कर दिया गया... जी हां हम बात कर रहे हैं सुपर
साइक्लोन पेलिन की जो अरब की खाड़ी से होता हुआ 12 अक्टूबर
को रात के तक़रीबन नौ बजे ओ़डिशा के ब्रह्मपुर को लगभग 200 किमी/घंटे
के रफ्तार से रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला गया... लेकिन मौसम के इस कहर से तब तक सात
लाख से ज़्यादा लोगों को बचाया जा चुका था... मौसम विभाग की पूर्व सूचना को
विभिन्न मीडिया के ज़रिए बख़ूबी लोगों तक पहुंचाया गया.. और बचा ली गई लाखों लोगों
की जान....
हाल के
दिनों में अरब देशों में भड़की क्रान्ति हो, या, मिस्र
ट्युनिशिया और लीबिया में तानाशाही का अंत, या फिर, अपने देश
भारत की सरज़मीं पर एक साधारण से कद-काठीवाले अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी
आन्दोलन को मिला जनसमर्थन हो। इन सभी बड़े बदलाव व ख़बरों के पीछे जो सबसे जीवंत
वजह है, जिसने हर जगह के आंदोलन के लिए ईंधन का काम किया, वो है – मीडिया।
मीडिया यानि संवाद का जरिया।
कैसे बढ़ रहा है मीडिया का
दायरा?
ज़्यादा
नहीं महज सौ-सवा सौ साल पहले सूचना पहुंचाने के लिए हम इंसानों को एक जगह से दूसरी
जगह चलकर जाना होता था। इस तरह संदेश या सूचना को गंतव्य तक पहुंचाने में महीने लग
जाया करते थे। फिर माध्यम के तौर पर जगह ली अख़बार ने। आज़़ादी की लड़ाई में
अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं ने अहम भूमिका निभाई। वहीं आज पलक झपकते ही सूचना
पहुंचाने के कई-कई तरीके हमारे पास हैं।
आमतौर पर
मीडिया कहते ही सबसे पहले जेहन में अख़बार-मैगज़ीन या टेलीविजन-रेडियो का ख़्याल
आता है। लेकिन, मीडिया का दायरा कहीं ज़्यादा विस्तृत है। मीडिया में सबसे पहले
प्रिंट मीडिया यानी अख़बार, मैगज़ीन, और सरकारी दफ़्तरों से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं का आते हैं। इनके
बाद रेडियो यानी आकाशवाणी का नंबर आता है। फिर, दूरदर्शन
और टेलीविजन के तमाम चैनल्स की बारी आती है। और आख़िर में सबसे युवा और अहम न्यू
मीडिया का नबंर आता है। न्यू मीडिया, मीडिया
का वो हिस्सा है जिसने पूरी दुनिया को गांव में तब्दील कर दिया है। जिसने न सिर्फ़
तमाम देशों के बीच की दूरी कम कर दी है बल्कि भौगोलिक सरहदों के मायने भी ख़त्म कर
दिए हैं। सूचना क्रांति के अग्रदूत बन चुके न्यू मीडिया ने अपना ठौर-ठिकाना लोगों
की जेब तक बना लिया है। जी हां, सूचना क्रान्ति के इस युग
में मोबाइल के रुप में इंटरनेट ने लोगों की जेबों में अपनी पैठ बना ली है।
क्यों बढ़़ रहा है मीडिया
का प्रभाव?
समाज की
जीवंतता संवाद से है। संवाद, इंसान का इंसान से और
इंसानी समाज का इसके इर्द-गिर्द मौजूद अवयवों से। संवाद, समाज के
अंदर इसके तमाम अवयवों के बीच जितना ज़रूरी है, उतना ही
ज़रुरी है समाज के बाहर इसके जीवन के लिए ज़रूरी अवयवों से होनेवाला संवाद। इतना
ही नहीं एक समाज का दूसरे समाज से जुड़ने से कहीं ज़्यादा मायने रखता है, उनके बीच
होनेवाले संवाद। संवाद के लिए ज़रूरत होती है माध्यम की। और अलग-अलग संवाद के लिए
काम आनेवाले अलग-अलग माध्यमों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है – मीडिया । आज बेहतर जीवन के लिए
संवाद की ज़़रूरत, मीडिया की प्रासंगिकता को नई ऊंचाइयां दे रहा है, उसे
बुलंदियों पर पहुंचा रहा है। और इस पूरे उपक्रम में मीडिया का दायरा ही नहीं बल्कि
उसका प्रभाव भी बढ़ रहा है ।
समाज पर
और लोगों के जीवन पर मीडिया दो तरह का प्रभाव परिलक्षित होता है।
अ) तात्कालिक प्रभाव- लोगों
की जानने की इच्छा शुरू से रही है। और मीडिया के तमाम साधन लोगों की इस भूख को
शांत करने में कामयाब हैं। मीडिया के कुछ खास तरीके मसलन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और
न्यू मीडिया (ख़ासतौर पर सोशल मीडिया) की पहुंच और असर अचूक है। इस वजह से इसके कई
तात्कालिक प्रभाव देखने को मिलते हैं। प्रिंस नाम का वो मासूम बच्चा जो खेलते वक्त
ग़लती से बोरवेल में जा गिरा था। उसकी जान बचाने में मीडिया की भूमिका अहम रही।
इसी तरह कई ऐसे मौके आए जब लोगों को जागरूक करने और उन्हें जिम्मेदार बनाने का काम
भी मीडिया ने बखूबी निभाया। फिर चाहे प्रियदर्शनी मुट्टू मामला हो या जेसिका लाल
हत्याकांड। दोषियों को घेरने और पीड़ित को न्याय दिलाने में मीडिया ने अहम भूमिका
निभाई। सबसे बड़ी बात तो लोगों में समाज के लिए उनकी जिम्मेदारी का एहसास भरना है, जो ऐसे
मौके पर बखूबी दिखता है।
ब) दूरगामी प्रभाव- दो
राष्ट्रों के बीच की कूटनीतिक खाई को पाटने का काम भी मीडिया ने जबर्दस्त ढंग से
किया है। भारत-पाकिस्तान के खटास को कम करने की कवायद में, दोनों
देशों के नागरिकों के बीच संवाद बढ़ाने में, एक-दूसरे
के लिए उनके जज़्बों को उभारने में मीडिया की भूमिका के दूरगामी प्रभाव हाल के
दिनों में देखने को मिला है। लगातार की गई कोशिश का सबसे अहम उदाहरण है ये रहा कि
पाकिस्तान ने हाल भारत को मोस्ट
फेवर्ड नेशन का
दर्ज़ा दिया है। पाकिस्तान के इस क़दम से दोनों देशों के बीच रिश्तों की तल्ख़ी ही
कम नहीं होगी, बल्कि, कारोबार के अवसर भी बढ़ेंगे। यक़ीनन फायदा दोनों देशों में रहने वाले
लोगों को होगा। इसी तरह कई अंतरराष्ट्रीय मौके पर ताकतवर देशों पर दबाव बनाने का
काम भी मीडिया ने बखूबी किया है। क्योटो प्रोटोकॉल में विकसित देशों औऱ अमेरिकी
दादागीरी को ख़ारिज़ करने से लेकर ताईवान-तिब्बत तक के मुद्दे पर मीडिया के
सकारात्मक रवैये की ही वजह से ग़लत फैसलों को रोका जा सका है।
इसके साथ
ही विकासशील देशों में सांस्कृतिक तौर पर भी बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। इन
परिवर्तनों के पीछे निसंदेह मीडिया की भूमिका अहम है। सबसे अहम बात तो ये है कि हर
गुजरते दिन के साथ लोगों में जागरूकता भी बढ़ रही है। शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़
रहा है। इन तमाम उपलब्धियों को मीडिया के दूरगामी प्रभाव के रूप में देखा जाना
चाहिए।
मीडिया
के स्वरूप में अहम बदलाव हुए हैं। दिलचस्प बात ये है कि इन बदलावों के बावजूद इसकी
अहमियत और मौजूदगी हर स्वरूप में बढ़ी है। कहने का मतलब ये कि बात चाहे पारंपरिक
मीडिया की हो या आधुनिकतम मीडिया की, दोनों ने
अपना दायरा बढ़ाया है। दोनों की अहमियत अपनी-अपनी जगह खासी है। और सबसे अहम ये कि
दोनों ही समाज को प्रभावित कर रहे हैं।
अ) पारंपरिक मीडिया यानी
प्रिंट मीडिया का प्रभाव- लोगों में पढ़ने की चाहत
पहले से कई गुनी बढ़ी है। और ये प्रिंट मीडिया का ही प्रभाव है कि देश में अखबार
और मैगज़ीन समेत पुस्तक के लिए बाज़ार बढ़ा है। लोगों की आदत में आई सुधार की वजह
है प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता। जी हां, गंभीरता
के दृष्टिकोण से प्रिंट मीडिया की प्रासंगिकता और महत्ता पहले की तुलना में कहीं
ज़्यादा बढ़ी है। देश-दुनिया में साक्षरता के साथ-साथ शैक्षणिक योग्यता में इज़ाफा
हुआ है। जिसका सबसे बढ़िया और सकारात्मक प्रभाव पत्र-पत्रिकाओं पर पड़ा है। हमारे
देश में सबसे पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में गुणात्मक सुधार इस बात का प्रमाण है।
महज कुछ दशक पहले गिने-चुने अख़बार और मैगज़ीन होते थे, जिनपर
पाठकों की हर ज़रूरत को पूरा करने की अहम ज़िम्मेदारी होती थी। लेकिन, अब हर
संभावित क्षेत्र-विषय के लिए बाज़ार उपलब्ध होने की वजह से हर क्षेत्र और विषय के
लिए विशेष तौर पर मैगज़ीन और अख़बार निकल रहे हैं। (भाषाई स्तर पर प्रिंट मीडिया
के प्रभाव का विश्लेषण ‘संस्कृति
पर प्रभाव’’ खंड में
किया गया है।)
ब) आधुनिक मीडिया यानी न्यू/सोशल
मीडिया का प्रभाव- एक रिसर्च के अनुसार सोशल
मीडिया में रेडियो, टी वी, इंटरनेट और आईपॉड आता है।
रेडियो को कुल 73 साल हुए हैं, टीवी को 13 साल और
आईपॉड को 3 साल । लेकिन, इन सब
मीडिया को पीछे छोड़ते हुए सोशल मीडिया ने अपने चार साल के अल्प समय में 60 गुना
अधिक रास्ता तय कर लिया है, जितना अभी तक किसी मीडिया ने तय नहीं किया।
वैसे, इस मीडिया का उद्भव आई-टी
और इंटरनेट से हुआ है। मुख्य रूप से वेबसाइट, न्यूज पोर्टल, सिटीजन जर्नलिज्म आधारित
वेबसाईट, ई-मेल, ब्लॉग, सोशल-नेटवर्किंग वेबसाइटस, जैसे माइ स्पेस, आरकुट, फेसबुक आदि, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट
टिवटर, ब्लॉग्स, फोरम, चैट सोशल मीडिया का हिस्सा
है। यही एक ऐसा मीडिया है जिसने अमीर, गरीब और मध्यम वर्ग के अंतर
को समाप्त किया है। अगर हम
अपने देश भारत की बात करें तो देश में आठ करोड़ से अधिक नेट उपयोक्ता हैं, जबकि 60 करोड़ से
ज्यादा यानि भारत की कुल आबादी के 54 प्रतिशत से अधिक लोगों के
पास मोबाइल हैं, जिनमें से एक तिहाई से अधिक मोबाइल फोन पर इंटरनेट की सुविधा है।
गौरतलब
है कि पोर्टल व न्यूज बेवसाइट्स ने छपाई, ढुलाई और कागज का खर्च
बचाया तो ब्लॉग ने शेष खर्च भी समाप्त कर दिए। ब्लॉग पर तो कमोबेस सभी प्रकार की
जानकारी और सामग्री वीडियो छायाचित्र तथा तथ्यों का प्रसारण निशुल्क है, साथ में
संग्रह की भी सुविधा है। यह
ई-मीडिया का ही असर है कि अब वेब जर्नलिज्म पर पुरस्कार और कोर्स चालू हो गए हैं।
कुल मिलाकर सोशल मीडिया का दायरा और असर बढ़ता ही जा रहा है। एक
अध्ययन के अनुसार आज हर रोज लगभग दो लाख नये ब्लॉग बनते हैं, लगभग चालीस लाख नयी
प्रविष्टियां हर रोज दर्ज की जाती हैं। यही कारण है कि युवा पीढ़ी ने इसे तेजी से
अपनाया है। अलबत्ता कुछ लोग दुर्भाग्यवश इस सुविधा का गलत इस्तेमाल भी करने लगे
है। अभी
दुनिया में ब्लॉगरों की संख्या 13.3 करोड़ के लगभग है जबकि भारत
में 32 लाख से अधिक लोग ब्लॉगिंग
कर रहे हैं। वैसे तो ब्लागर की संख्या से लेकर ब्लाग की भाषा शैली में कई परिवर्तन
आए हैं लेकिन आर्थिक रूप से यह अभी बहुत पीछे है, हिन्दी ब्लाग का आर्थिक
मॉडल बनने में अभी न केवल समय लगेगा, वरन् इसमें सुधार की भी
गुंजाइश है। एक अनुमान के अनुसार भारत में एक इंटरनेट कनेक्शन का लगभग 6 व्यक्ति
उपयोग करते हैं।
समाज पर बढ़ते मीडिया के प्रभाव को मुख्य तौर पर दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
समाज पर बढ़ते मीडिया के प्रभाव को मुख्य तौर पर दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
अ) विभिन्न वर्गों पर मीडिया
का बढ़ता प्रभाव
ब) संस्कृति पर मीडिया का
प्रभाव
अ) विभिन्न वर्गों पर मीडिया
का बढ़ता प्रभाव
i) बच्चों
पर मीडिया का प्रभाव – कहते हैं
बच्चों में सीखने की ललक सबसे ज़्यादा होती है। ऐसे में मीडिया के बढ़ते प्रभाव का
असर उनपर न हो, ये कैसे हो सकता है? हालिया हुए सर्वे के
मुताबिक टेलीविजन में दिखाए जानेवाले कार्यक्रमों का असर बच्चों पर सबसे ज़्यादा
होता है। मनोरंजन के लिए कार्टून देखने के अलावा बच्चों के लिए खासतौर से तैयार
कार्यक्रमों का असर उन कितना है। इस बात का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है
कि देश के अलग-अलग हिस्सों में शक्तिमान नाम के धारावाहिक के मुख्य किरदार की नकल
कर कई बच्चों ने अपनी जान गंवा दी। ऐसा नहीं है कि टेलीविजन बच्चों पर सिर्फ
नकारात्मक असर ही डाल रहा है। बच्चों को जानकारी बढ़ाने में डिस्कवरी और हिस्ट्री
जैसे तमाम चैनल कई कार्यक्रमों को रोचक बनाकर प्रस्तुत कर रहे हैं। यकीनन इसके साथ
विभिन्न मीडिया की वज़ह से आज की पीढ़ी के बच्चे अपने करियर को लेकर पहले से कहीं
ज़्यादा सजग हुए हैं। अपने हुनर को पहचान कर उन्हें निखारने की चाह बच्चों में
बढ़ी है। और उनकी चाह में कहीं न कहीं मीडिया बड़ी भूमिका निभा रहा है।
ii) युवाओं
पर मीडिया का प्रभाव – मौज़ूदा
आंकड़ों के मुताबिक देश में सबसे बड़ी तादाद युवाओं की है। देश की तकरीबन 58 फीसदी
आबादी युवाओं की है। ये वो वर्ग है जो सबसे ज़्यादा सपने देखता है और उन सपनों को
पूरा करने के लिए जी-जान लगाता है। मीडिया इन युवाओं को सपने दिखाने से लेकर
इन्हें निखारने तक में अहम भूमिका निभा रहा है। अख़बार-पत्र-पत्रिकाएं जहां युवाओं
को जानकारी मुहैया कराने का गुरू दायित्व निभा रहे हैं, वहीं
टेलीविजन-रेडियो-सिनेमा उन्हें मनोरंजन के साथ आधुनिक जीवन जीने का सलीका सिखा रहे
हैं। लेकिन युवाओं पर सबसे ज़्यादा और अहम असर हो रहा है न्यू- मीडिया का। जी हां, इंटरनेट
से लेकर तीसरी पीढ़ी (थ्री-जी) की मोबाइल तक का असर यूं है कि देश-दुनिया की
सरहदों का मतलब इन युवाओं के लिए ख़त्म हो गया है। इनके सपनों की उड़ान को तकनीक
ने मानों पंख लगा दिए हैं। ब्लॉगिंग के जरिए जहां ये युवा अपनी समझ-ज्ञान-पिपासा-जिज्ञासा-कौतूहल-भड़ास
निकालने का काम कर रहे हैं। वहीं सोशल मीडिया साइट्स के जरिए दुनिया भर में अपनी
समान मानसिकता वालों लोगों को जोड़ कर सामाजिक सरोकार-दायित्व को पूरी तन्मयता से
पूरी कर रहे हैं। हाल में अरब देशों में आई क्रांति इसका सबसे तरोताज़ा उदाहरण है।
इन आंदोलनों के जरिए युवाओं ने सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका का लोहा मनवाया तो
युवाओं के जरिए मीडिया का भी दम पूरी दुनिया ने देखा।
iii) महिलाओं
पर मीडिया का प्रभाव – कल्पना
चावला, इंदिरा नुई, चंदा कोचर, नैना लाल किदवई जैसी महिलाएं आज की युवा पीढ़ी की आदर्श बनकर उभरी
हैं। यकीनन इसके पीछे मीडिया की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मीडिया
की वजह से महिलाओं की क्षमता, उनकी उपलब्धियों को
मुक़म्मल पहचान मिलने की राह आसान हुई है। हर दिन महिलाओं पर होनेवाले अत्याचारों
की ख़बरें आती हैं। लेकिन ये मीडिया की ही पहल और संवेदनशीलता है, जिनकी
वज़ह से ऐसी ख़बरें दबाई नहीं जा रही हैं और उनके ख़िलाफ़ जुर्म करनेवालों को समाज
का गुनहगार घोषित किया जा रहा है। अपने हक़ और अधिकार को लेकर महिलाएं पहले से
ज़्यादा जागरूक हुई हैं, तो कहीं न कहीं मीडिया के तमाम माध्यम इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहे
हैं। चाहे उन्हें ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बात हो या उनकी सुरक्षा की या
फिर उनकी एकता की। आज से चंद दशक पहले देश में महिलाओं की हालात जैसी हुआ करती थी, उससे
हालात में गुणात्मक सुधार हुए हैं।
जहां तक
बात मीडिया के इस्तेमाल की है तो आज हर
तीसरी लड़की फेसबुक और ट्विटर से जुड़ी है। और पुरुषों की तुलना में महिलाएं
इंटरनेट के उपयोग में महज़ 10 फीसदी ही कम हैं।
iv) बुज़ुर्गों
पर मीडिया का प्रभाव – समाज में
बुज़ुर्गों के लिए संवेदनशीलता और सहिष्णुता कम हुई है, इस तथ्य
में कोई शक नहीं है। वृद्धाश्रम में बढ़ती भीड़ इस बात की तस्दीक करती है।
पढे-लिखे लोग और तथाकथित अतिमहत्वकांक्षी यानी प्रोग्रेसिव लोगों में इज़ाफा हुआ
है, ऐसे लोग अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए अपने बूढ़े मां-बाप को
बेसहारा छोड़ने से गुरेज़ नहीं करते हैं। ऐसे में मीडिया अपना दायित्व बखूबी निभा
रहा है। समाज को उसके कर्तव्यबोध की याद दिला कर और सामाजिक सरोकार से जुड़े लोगों
को जोड़ कर, बेसहारा बुज़ुर्गों के लिए जीने की उम्मीद को बरकरार रखने का गुरू
दायित्व मीडिया ही उठा रहा है। इसके साथ सबसे अच्छी बात ये हुई है कि एकाकी जीवन
जीने को मजबूर बुज़ुर्गों के लिए सोशल मीडिया सबसे बड़ा दोस्त और हमसफ़र बनकर उभरा
है। फिर चाहे 24 घंटे चलने वाला इंटरटेनमेंट, धार्मिक
और न्यूज़ चैनल्स हो या इंटरनेट पर मौजूद सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ब्लॉगिंग। ये
तमाम मीडिया के औज़ार बुज़ुर्गों के लिए हर तरह से रामबाण साबित हो रहे हैं।
ब) संस्कृति पर मीडिया का
प्रभाव
i) रहन-सहन/जीवन
शैली पर प्रभाव – आधुनिक
जीवन शैली पर सबसे ज़्यादा असर किसी का है तो मीडिया का ही है। दूसरे शब्दों में
कहें तो मीडिया का सबसे ज़्यादा असर समाज में रहनेवालों के जीवन शैली पर पड़ा है।
बोलचाल हो या खान-पान या फिर पहनावा हर कहीं एक ख़ास क़िस्म की समानता पूरे देश
में देखी जा सकती है।
हिन्दी
भाषी क्षेत्र में तो भाषा में बदलाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। न्यू मीडिया के
जरिए हिन्दी-अंग्रेजी यानी हिंग्लिश भाषा का जो नया स्वरूप सामने आया है उसकी
स्वीकार्यता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब फिल्में और टीवी पर आने
वाले धारावाहिकों तक में इस भाषा का बेधड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। और आमलोग
इसी भाषा को हिन्दी का वास्तविक स्वरूप मानने लगे हैं।
भाषा को
कौन कहे, पूरे देश में लोगों के फैशनपरस्ती और पहनावा तक में बदलाव और एकरूपता
देखने को मिल रही है।
कमोबेश
खान-पान को लेकर भी ये बदलाव दिख रहे हैं। लोग पहले की तुलना में अपने स्वास्थ्य
को लेकर कहीं ज़्यादा सजग हुए हैं। जिसका अच्छा असर हम सबके सामने है। और इन
बदलावों को हक़ीक़त में ढ़ालने का काम कर रही है वो जानकारी जो उन्हें मीडिया के
ज़रिए मिलती है।
ii) राजनीति
पर प्रभाव – भ्रष्टाचार
राजनीति की पैदाइश है या राजनीति में पारदर्शिता की मांग, इस तरह
की मांग आज से पहले इतनी शिद्दत से कभी नहीं उठी और उठाई गई। वजह सिर्फ एक है, लोगों की
जागरूकता में इज़ाफा। मीडिया के तमाम माध्यमों का अतिवादी होना (जो कई बार
नकारात्मकता की हद तक चला जाता है।)। देश के बीमारू राज्य माने जा रहे बिहार में
बदलाव की बयार बह रही है। कम साक्षरता के बावजूद लोग विकास की भाषा समझने लगे हैं
तो कहीं न कहीं मीडिया अपनी भूमिका में खरी ज़रूर उतर रही है। क्योंकि रेडियो
सुनने के लिए साक्षर होने की ज़रूरत नहीं है, न ही
टेलीविजन देखने के लिए शिक्षित होना ज़रूरी है। ज़रूरत तो बस समझ की कमी की थी
जिसे मीडिया के तमाम माध्यमों ने बखूबी पूरा कर दिया। नतीजा सबके सामने है।
बिहार के
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल में अपना ब्लॉग शुरु किया है। भाजपा के वरिष्ठ
नेता लालकृष्ण आडवाणी, मध्य
प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी
ने अपना ब्लाग और वेबसाईट भी शुरू की है। सोशल नेटवर्किंग साइटों का अधिकतम
इस्तेमाल कर रहे अमेरिका प्रशासन का मानना है कि ये ‘प्रभावी औजार’ हैं, जो
कूटनीति को बढ़ावा दे सकते हैं। इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के लगभग 60 मिलियन
पेजेस ऑनलाइन हैं। वहीं त्रिनिदाद और टोबैगो की हाल ही में भारतीय मूल की कमला
प्रसाद विसेसर प्रधानमंत्री चुनी गई है। कमला विसेसर ने अपना पूरा चुनाव अभियान
फेसबुक के जरिए चलाया।
iii) शिक्षा
पर प्रभाव – साक्षरता
बढ़ी है। जाहिर है ऐसे में शिक्षा के प्रति भी लोगों का रूझान बढ़ा है। और
शिक्षा
के मामले में पूरी दुनिया सिकुड़ कर छोटी हो गई है। अच्छी और ऊंची शिक्षा के लिए
प्रतिभावान छात्र को पहले की तरह धक्के नहीं खाने पड़ रहे हैं। बल्कि अच्छे
संस्थान ख़ुद इन छात्रों को चुन-चुनकर इनकी योग्यता के मुताबिक जगह दे रही हैं। ये
सब मुमकिन हो सका है न्यू मीडिया के ज़रिए। आलम ये है कि किन्हीं कारणों तक कैम्पस
तक नहीं पहुंच पाने की सूरत में भी छात्रों की पढ़ाई नहीं बाधित होती है। इतना ही
नहीं टेली और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए एक गांव में बैठा हुआ छात्र भी अब
क्लास रूम स्टडी कर पाने में सक्षम है।
iv) व्यवसाय
पर प्रभाव – जीविकोपार्जन
अब समस्या नहीं रही। ना ही पढाई कर रहे छात्रों को अब नौकरी की समस्या उस क़दर
परेशान करती है जैसे आज से कुछ दशक पहले किया करती थी। अब अच्छे संस्थान में
दाखिला के साथ ही इस समस्या का हल हो जा रहा है। कैंपस प्लेसमेंट का आलम ये है कि
तिहाड़ जेल में सज़ायाफ्ता क़ैदी को भी पत्राचार से पढ़ाई पूरी करने के बाद अच्छे
पैकेज पर नौकरी मिल रही है।
बिजनेस
करने वाले साहसी युवाओं के लिए भी मीडिया किसी मनोवांछित वरदान से कमतर नहीं है।
व्यवासाय को आगे बढाने के लिए विज्ञापन करना हो या शेयरहोल्डर्स का भरोसा जीतना हो
या गुणवत्ता सुधारने के लिए अच्छे सहयोगी की ज़रूरत हो, सबकी कमी
मीडिया के ज़रिए पूरी हो रही है। इतना ही नहीं मीडिया ख़ुद भी जीविकोपार्जन का
बेहतर साधन बनकर उभरा है। और तो और स्वरोज़गार के कई रास्ते इससे होकर निकल रहे
हैं।
vii) मनोरंजन
पर प्रभाव – मीडिया
के बदलते स्वरूप का सबसे ज़्यादा फायदेमंद प्रभाव किसी क्षेत्र पर पड़ा है तो वो
है मनोरंजन। लोगों की जीवन स्तर में आए गुणात्मक सुधार की वजह से लोग मनोरंजन पर
खर्च करने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। ऐसे में मनोरंजन एक उद्योग की तरह स्थापित हो
चुका है। संगीत से लेकर तक अभिनय तक हर कुछ के लिए मीडिया ने इतना बड़ा बाज़ार
तैयार कर दिया है। जिससे इस पेशे से जुड़नेवालों को तो फायदा हो ही रहा है। साथ ही, लोगों के
पास किफायती मनोरंजन के साधन भी बढ़े रहे हैं।
निष्कर्ष- अभी
ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है, जब देश-विदेश हर कहीं भारत
की छवि एक ऐसे देश की थी जिसके बारे में कहा जाता था कि भारत एक ऐसा देश है जो एक
साथ कई शताब्दियों में रहता है। सूचना क्रांति के इस दौर में मीडिया की
अतिसक्रियता की वजह से कई शताब्दियों में एक साथ जीता आ रहा भारत एकबारगी ही एक
युग में जीना सीख गया। और आज पूरी दुनिया के सामने आर्थिक सुदृढ़ता की मिसाल बनकर
उभरा है। साक्षरता की दर भले ही कम है लेकिन, लोगों
में जागरूकता बढ़ी है, उनकी समझ बेहतर हुई है और साथ ही बढ़ी है और जानने की भूख
(उत्सुकता)। लोगों के अंदर जगी इसी भूख (उत्सुकता) ने विकास की दौड़ में हमें
बेहतर हालात में ला दिया है। यकीन मानिए मीडिया लोगों की इस भूख को शांत ही नहीं
कर रहा बल्कि, उनकी इस भूख को बनाए भी हुए है ताकि, विकास
अनवरत होता रहे, चलता रहे।
अभिषेक
पाटनी
7 comments:
nyc article....really awsum
Thank You So Much Mr./Ms. Anonymous
Gr8 article sir it helped me lot for my assignment.
Thank U :)
nyc article.....thanks a lot it helped me very much for my speech...
Nice Arcticle it haelped alot for my hindi FA
thannksss a lot ..it really helped me ...:) :)
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