Saturday, April 28, 2012

घिर गई है भारत माता-ये भी तो मादरे हिंद की बेटी है!




                           प्रेम सिंह
(डॉ प्रेम सिंह, लेखक जाने माने राजनीतिक समीक्षक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)
करीब पांच साल पहले की बात है। हम परिवार के साथ कार में रात के करीब साढ़े ग्यारह बजे नोएडा से एक शादी से लौट रहे थे। गाजीपुर चौराहे पर अंधेरा था और कड़ाके की ठंड थी। करीब पंद्रह साल की एक लड़की लाल बत्ती पर गजरा बेच रही थी। लिबास से वह खानाबदोश या फिर आदिवासी समाज से लग रही थी। वह थोड़ी ही दूरी पर खड़ी थी लेकिन धूसर शरीर और कपड़ों में उसकी शक्ल साफ नहीं दिख रही थी। लेकिन यह साफ था कि वह कुपोषण के चलते पतली-दुबली है। हमने इधर-उधर नजर दौड़ाई। उसके साथियों में और कोई नजर नहीं आया। वह चौराहा शहर के बाहर और सुनसान था, जहां लड़की के साथ कुछ भी हो सकता था। हमने यह मान कर मन को तसल्ली दी कि उसके कोई न कोई साथी जरूर आस-पास कहीं होंगे; लड़की अकेली नहीं है। इतनी रात गए अकेली कैसे हो सकती है? हमें तब नागार्जुन की उपर्युक्त काव्य-पंक्ति अनायास याद आई थी। मादरे हिंद की एक बेटी यह भी है!
हम काफी दिनों तक उस लड़की की दशा पर कोई लेख या कविता लिखने की बात सोचता रहे। हालांकि लिखा नहीं गया। सोचा, लोग कब से गरीबों, वंचितों, शोषितों को विषय बना कर लिखते आ रहे हैं। उसे मुक्ति का, क्रांति का साहित्य कह कर उसका संघर्ष और सौंदर्य मूल्य भी सिद्ध कर दिया जाता है। लेकिन भारत के शहरों की गंदी बस्तियों, झुग्गियों, लाल बत्तियों, फुटपाथों पर भीड़ बढ़ती ही जाती है। उन्हें मानव कहना मुश्किल लगता है; नागरिक तो कभी बन ही नहीं सकते। उस दिन खास बात थी तो यही कि वह अकेली लड़की एक-दो रुपये के लिए इतनी रात गए वहां थी।
हमें लगा कि जिस तरह पूंजीवादी कंपनियों के लिए जल, जंगल, जमीन संसाधन हैं, लेखकों के लिए कंपनियों द्वारा उनकी जड़ों से उजाड़ा गया जीवन भी संसाधन है। कंपनियों को जैसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा चाहिए, रचना के बदले लेखकों को भी नाम और नकद पुरस्कार चाहिए - ज्यादा से ज्यादा और बड़ा से बड़ा। जो सरकार कंपनियों को ठेके देती हैं, वही लिखने वालों को पद और पुरस्कार देती हैं। इधर कंपनियां भी अपने पुरस्कार देने लगी हैं। रचना सत्ता का प्रतिपक्ष होती है, ‘सत्ता रचना/रचनाकार से भय खाती है - इस तरह की टेक को ऊंचा उठाए रखते हुए लेखकों ने वे पुरस्कार लेने भी शुरू कर दिए हैं। आने वाले समय में कंपनियों की ओर से कुछ पद भी ऑफर किए जा सकते हैं। यूरोप और अमेरिका में लंबे समय से यह चल रहा है।
बहरहाल, हमने उस लड़की पर कुछ लिखा नहीं। उसे रात के अंधंरे में वहां देख कर सहानुभूति का एक तीव्र ज्वार उठा था। आज साफ लगता है कि लिखे जाने पर जो भी मुक्ति होती, वह अपनी ही होती। उस लड़की की मुक्ति से उसका कोई साझा नहीं होता। पांच साल बाद देखते हैं कि वह लड़की और ज्यादा अकेली होती और अमानवीय परिस्थितियों में घिरती जा रही है। इतिहास, विचारधारा, मुक्ति, प्रतिबद्धता, सरोकार, सहानुभूति आदि पद निकम्मे घोषित किए जा चुके हैं। उस लड़की के संदर्भ उन्हें एक दिन निकम्मे साबित होना ही था। क्योंके वे पूंजीवाद के पेट से उठाए गए थे। जिस दिन पूंजीवाद को मानव सभ्यता के विकास में क्रांतिाकरी चरण होने का प्रमाणपत्र मिला था, उसी दिन यह तय हो गया था कि वह लड़की महानगर के चौराहे पर रात के अंधेरे में अकेली कोई सामान बेचेगी। और उसकी एक अन्य बहन को उसका मालिक ताले में बंद करके सपरिवार निश्चिंत विदेश घूमने निकल जाएगा। यह तय हो गया था कि यह भारत सहित पूरी दुनिया में अनेक जगहों पर अनेक रूपों में होगा। भारत में पिछले 20-25 सालों में इस प्रक्रिया में खासी तेजी आई है।    
पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली की मध्यवर्गीय आवास कॉलोनी द्वारिका के एक मकान से पुलिस ने एक 13 साल की घरेलू नौकरानी को डॉक्टर दंपत्ति के घर की कैद से छुड़ाया। डॉक्टर दंपत्ति मार्च के अंतिम सप्ताह में उसे घर में बंद करके अपनी बेटी के साथ थाईलैंड की सैर पर गए थे। 6 दिन बाद बालकनी से पड़ोसियों ने लड़की की पुकार सुनी। वह पहले भी पुकार करती रही थी लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। 30 मार्च को एक एनजीओ की मदद से पुलिस को बुलाया गया। पुलिस ने फायर इंजिन बुला कर लड़की को कैद से बाहर निकाला। यह मामला मीडिया में काफी र्चर्चित रहा। खबरों में आया कि लड़की भूखी, डरी हुई और बेहाल थी। मालिकों ने लड़की को उसके लिए छोड़े गए खाने के अलावा रसोई से कुछ और नहीं खाने के लिए सख्ती से मना किया था। खबरों के मुताबिक लड़की ने मालिकों द्वारा अक्सर प्रताड़ित किए जाने की बात भी कही।
मामला टीवी और अखबारों में आने से, जाहिर है, डॉक्टर दंपत्ति के रिश्तेदारों ने उन्हें बैंकॉक में सूचित कर दिया। वे आए और पुलिस से बचते रहे। उन्होंने कहा कि उनकी नौकरानी बच्ची नहीं, 18 साल की बालिग है और उसके साथ कोई दुर्व्यहार नहीं किया जाता रहा है। वे उसे साथ ले जाना चाहते थे लेकिन लड़की ने जाने से इंकार कर दिया। जो भी हो, मामला पकड़ में आ गया था, पुलिस ने डॉक्टर दंपत्ति को न्यायिक हिरासत में लिया। अब वे जमानत पर हैं और अदालत में केस दायर है। लोग अभी से उसके बारे में भूल चुके हैं। हो सकता है कोई गंभीर पत्रकार मामले में आगे रुचि ले और केस की प्रगति और नतीजे के बारे में बताए। और उस लड़की के बारे में भी कि उसका क्या हुआ? उसे क्या न्याय मिला
जैसा कि अक्सर होता है, इस मामले में भी मीडिया की खबरों में लड़की को मेड (उंपक) अथवा घरेलू नौकरानी लिखा/कहा गया है। लड़की का उत्पीड़न करने वाले डॉक्टर दंपत्ति का नाम - संजय वर्मा, सुमित्रा वर्मा - हर खबर में पढ़ने/सुनने में आया। काफी खोजने पर हमें लड़की का नाम एक जगह सोना लिखा मिला। हालांकि हमें यह नाम असली नहीं लगता। लड़की की मां जब झारखंड से आई तो उसका नाम भी मीडिया में पढ़ने को नहीं मिला। उसे लड़की की मां लिखा और कहा गया है। भारत का मध्यवर्ग अपने बच्चों के नामकरण के पीछे कितना पागल होता है, इसकी एक झलक अशोक सेकसरिया की कहानी राइजिंग टू द अकेजन में देखी जा सकती है। पिछले, विशेषकर 25 सालों में सुंदर-सुंदर संस्कृतनिष्ठ नाम रखने की देश में जबरदस्त चल्ला चली हुई है। केवल द्विज जातियां ही नहीं, शूद्र और अनुसूचित जाति और जनजाति से मध्यवर्ग में प्रवेश पाने वाले दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोग द्विजों की देखा-देखी यह करते हैं। लाड़लों पर लाड़ तो उंड़ेला जाता ही है; भारत का मध्यवर्ग अपने सांस्कृतिक खोखल को सांस्कृतिक किस्म के नामों से भरने की कोशिश करता है। इस समाज में झारखंड के आदिवासी इलाके से आने वाली निरक्षर मां-बेटियों का नाम नहीं होता।
यह मामला सुख्रियों में आने पर नागरिक समाज ने ऐसा भाव प्रदर्शित किया मानो वे स्वयं ऐसा कुछ नहीं करते जो डाक्टर दंपत्ति ने किया। मानो वह कॉलोनी, दिल्ली या देश में एक विरल मामला था, जो भले पड़ोसियों के चलते समय पर सामने आ गया। कानून तोड़ने और लड़की के साथ अमानवीय व्यवहार करने वाले शख्स को गिरफ्तार कर लिया गया। अब पुलिस और कानून अपना काम करेगा। ऐसा सोचने में उसका पीड़िता से कोई सरोकार नहीं, खुद से है। ऐसा सोच कर वह अपने को कानून का पाबंद नागरिक और परम मानवीय इंसान मानने की तसल्ली पा लेता है। इस तसल्ली में अगर कुछ कमी रह जाती है तो वह बाबाओं के दर्शन और प्रवचन से पूरी करता है। इस झूठी तसल्ली में वह इतना सच्चा हो जाता है कि गंदी राजनीति और राजनेताओं पर अक्सर तीखे हमला बोलता है। उनके द्वारा कर दी गई देश की दुर्दशा पर आक्रोश व्यक्त करता है। राजनीति को बुरा बताते वक्त भी राजनैतिक सुधार उसकी इच्छा नहीं होती, वैसा करके वह अपने अच्छा होने का भ्रम पालता है। यह सच्ची बात है कि भारत की मौजूदा राजनीति बुरी बन चुकी है। लेकिन बुरी राजनीति की मलाई काटने की सच्चाई मध्यवर्ग छिपा लेता है।
हम सब जानते हैं भारत में कारखानों, ढाबों, दुकानों से लेकर घरों तक में बाल मजदूरों की भरमार है। शहर की लाल बत्तियों पर छोटे-छोटे लड़के-लड़कियां तमाशा दिखाते, कोई सामान बेचते या भीख मांगते मिलते हैं। जो 14 साल से ऊपर हो जाते हैं उन्हें भी हाड़तोड़ श्रम के बदले सही से दो वक्त पेट भरने लायक मेहनताना नहीं मिलता। सुबह 6 बजे से रात 8 बजे तक माइयां कॉलोनियों में इस घर से उस घर चौका-बर्तन, झाड़ु-बुहारू, कपड़े धोने, बच्चे सम्हालने और खाना बनाने के काम में चकरी की तरह घूमती हैं। वे दस-बीस रुपया बढ़ाने को कह दें तो सारे मोहल्ले में हल्ला हो जाता है। उनके मेहनताने - ज्यादा से ज्यादा काम, कम से कम भुगतान - को लेकर पूरे मध्यवर्गीय भारत में गजब का एका है।
दूसरी तरफ, मध्यवर्ग के लोग जिस महकमे, कंपनी या व्यापार में काम करते हैं, अपने सहित पूरे परिवार की हर तरह की सुविधा-सुरक्षा मांगते और प्राप्त करते हैं। इसमें संततियों के लिए ज्यादा से ज्यादा संपत्ति जोड़ना भी शामिल है। फिर भी उनका पूरा नहीं पड़ता। वे कमाई के और जरिए निकालते हैं। रिश्वत लेते हैं। टैक्स बचाते हैं। अपने निजी फायदे के लिए कानून तोड़ते हैं। अभिनेता, खिलाड़ी, विश्व सुंदरियां, कलाकार, जावेद अख्तर जैसे लेखक अपने फन से होने वाली अंधी कमाई से संतुष्ट नहीं रहते। वे विज्ञापन की दुनिया में भी डट कर कमाई करते हैं। सरकारें ऐसी प्रतिभाओं से लोक कल्याण के संदेश भी प्रसारित करवाती हैं। वे अपनी अंधी कमाई को लेकर जरा भी शंकित हुए देश की आन-बान-शान का उपदेश झाड़ते हैं। इस तरह अपनी बड़ी-छोटी सोने की लंका खड़ी करके उसे और मजबूत बनाने में जीवन के अंत काल तक जुटे रहते हैं। इनकी हविस का कोई अंत नहीं है। रोजाना करोड़ों बचपन तिल-तिल दफन होते हैं, तब उनकी यह दुनिया बनती और चलती है।
भोग की लालसा में फंसे मध्यवर्ग का एक और रोचक पहलू है जो फिल्मों और साहित्य में भी देखा जा सकता है। यह सब करते वक्त उन्हें अपनी मजबूरी सोना की मां की मजबूरी से भी बड़ी लगती है, जिसे अपनी नाबालिग लड़की अंधेरे में धकेलनी पड़ती है। पापी पेट की मजबूरी में वे झूठ बोलने, धोखा देने, फ्लर्ट करने, प्रपंच रचने की खुली छूट लेते हैं। कई बार यह पैंतरा भी लिया जाता है कि हम भी तो कुछ पाने के लिए अपनी आत्मा को अंधेरे में धकेलते हैं! रोशनी दिखाने वाले बाबा लोग न हो तो जीना कितना मुश्किल हो जाए!      
लोग यह भी जानते हैं कि देश में चाइल्ड लेबर (प्रोहिबिशन एंड रेगुलेशन) एक्ट 2006 है। लेकिन उसकी शायद ही कोई परवाह करता है। कुछ एनजीओ और स्वयंसेवी संस्थाएं ही इस मुद्दे पर सक्रिय रहते हैं। बाकी कहीं से कोई आवाज नहीं उठती कि बचपन को कैद और प्रताड़ित करने वालों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई हो; अगर मौजूदा कानून में कमी है तो उसे और प्रभावी बनाया जाए। कड़क लोकपाल की स्वतंत्र संस्था और कानून बनाने के लिए आसमान सिर पर उठाने वाले लोग ये ही हैं। उनके लिए ही बाल मजदूरी और सस्ती मजदूरी की यह प्रथा चल रही है। वह न चले तो इनका जीवन भी चलना असंभव हो जाएगा।
आइए सोना की बात करें। सोना अपनी मां की बेटी है। लेकिन क्या वह भारत माता की भी बेटी है? नागार्जुन ने अपनी कविता में जब आराम फरमा मादा सुअर का चित्रण किया तो वे उसकी मस्ती और स्वतंत्र हस्ती पर फिदा हुए लगते हैं - देखो मादरे हिंद की गोद में उसकी कैसी-कैसी बेटियां खेलती हैं! कविता का शीर्षक पैने दांतों वाली ...कविता की अंतिम पंक्ति है। शायद कवि कहना चाहता है कि ‘‘जमना किनारे/मखमली दूबों पर/पूस की गुनगुनी धूप में/पसर कर लेटी .../यह ... मादरे हिंद की बेटी ...’’ अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में समर्थ है।
सोना का वह भाग्य नहीं है। उससे भारत माता की गोद छीन ली गई है। भारत माता सोना की मां जैसी ही मजबूर कर दी गई है, जिसे अपनी बेटी अनजाने देश भेजनी पड़ती है, जहां वह सीधे वेश्यावृत्ति के धंधे में भी धकेली जा सकती है। वह चाह कर भी अपनी बेटी को अपने पास नहीं रख सकती। पूंजीवादी आधुनिक सभ्यता आदिवासियों को उनके घर-परिवेश-परिजनों से उखाड़ कर जमती है। ऐसा नहीं है कि नागरिक समाज में ईमानदार और दयालु लोग नहीं हैं या नवउदारवाद के चलते आगे नहीं रहेंगे। लेकिन उससे अनेकार्थी विषमताजनित शोषण नहीं रुकेगा। आदिवासी लड़कियों, महिलाओं, लड़कों, पुरुषों को अपने घर-परिवेश से निकल कर हमारे घरों और निर्माण स्थालों पर आना ही होगा।     
आपको याद होगा अन्ना आंदोलन के दौरान दिल्ली में पोस्टर लगे थे कि देश की बेटी किरण बेदी जैसी होनी चाहिए - देश की बेटी कैसी हो, किरण बेदी जैसी हो। किरण बेदी काफी चर्चा में रहती हैं। कहती हैं, जो भी करती हैं, देश की सेवा में करती हैं। सवाल है - मादरे हिंद की बेटी कौन है? किरण बेदी या सोना? आप कह सकते हैं दोनों हैं। लेकिन हम सोना को मादरे हिंद की बेटी मानते हैं। इसलिए नहीं कि हमारी ज्यादा सही समझ और पक्षधरता है। सोनाएं किरण बेदियों के मुकाबले भारी सख्या में हैं और किसी का बिना शोषण किए, बिना बेईमानी किए, बिना देश सेवा का ढिंढोरा पीटे, दिन-रात श्रम करके, किफायत करके अपना जीवन चलाती हैं। यौन शोषण समेत अनेक तरह की प्रताड़नाएं सहती हैं। अपनी ऐसी गरीब बेटियों के लिए हर मां मरती-पचती और आंसू बहाती है। सोनाओं की मांओं के समुच्चय का नाम ही भारत माता है। इस भारत माता को कपूतों ने एकजुट होकर अपनी कैद में कर लिया है। 

Tuesday, March 6, 2012

दिल्ली प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी का नगर निगम चुनाव लड़ने का फैसला



दिल्ली प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी की राज्य समिति की बैठक में फैसला किया गया है कि पार्टी 15 अप्रैल को होने वाले नगर निगम चुनावों में सीमित सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करेगी। सीटों और उम्मीदवारों के चयन के लिए दिल्ली प्रदेश की अध्यक्ष श्रीमती रेणु गंभीर, प्रदेश समिति के वरिष्ठ सदस्य प्रोफेसर द्विजेंद्र कालिया, शऊर खान व डॉ. मौहम्मद यूनुस, दिल्ली से केंद्रीय पार्लियामेंटरी बोर्ड के सदस्य अनिल नौरिया, सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य डॉ. हेमलता व नीरज सिंह, एसवाईएस के शिक्षक संयोजक डॉ. अश्वनी कुमार और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव डॉ प्रेम सिंह को मिला कर एक चुनाव समिति का गठन किया गया है। श्रीमती रेणु गंभीर इस समिति की संयोजक हैं। पार्टी का घोषणापत्र तैयार करने की जिम्मेदारी भी चुनाव समिति को दी गई है।
चुनाव प्रचार के लिए अलग से एक अभियान समिति का गठन किया गया है। दिल्ली प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सदस्य व प्रवक्ता इंद्रदेव अभियान समिति के संयोजक और धर्मवीर खारी, केदारनाथ, उपेंद्र सत्यार्थी, डॉ. कुणाल, मुस्तफा अंसारी, निरंजन महतो, नीतू जयसिंघानी, अर्चना रानी, बालेंद्र कुमार, चितरंजन, निखिल कुमार और राजीव कुमार सदस्य हैं। एक मीडिया समिति का भी गठन किया गया है जिसके संयोजक जयंत कुमार कश्यप और सदस्य राकेश कुमार दूबे, चंदन राय, सुशील कुमार शुक्ला, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, योगेश पासवान, अनूप तिवारी और शशि शेखर सिंह हैं। युवजन सांस्कृतिक मंच की संयोजक पूनम नाट्‌कर्मियों की टीम के साथ नुक्कड़ नाटकों के जरिए पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव प्रचार करेंगी।
जस्टिस राजेंद्र सच्चर, वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व सांसद कुलदीप नैयर, वरिष्ठ समाजवादी नेता व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जैन, जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार, एचएमएस के टे्रड यूनियन नेता कामरेड हरभजन सिंह सिद्धू, पूर्व विधायक रामगोपाल सिसोदिया, समाजवादी शिक्षक मंच के अध्यक्ष व डूटा के उपाध्यक्ष डॉ. हरीश खन्ना, समाजवादी शिक्षक मंच के सचिव डॉ. बिक्रम सिंह, वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली, अरुण त्रिपाठी और डॉ. एके अरुण चुनाव प्रचार के दौरान आयोजित जनसभाओं को संबोधित करेंगे।

इंद्रदेव
मोबाइल : 9810804384

Socialist Party (India)

Delhi Pradesh

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Phone: 011-22756203 Email: socialistpartyindia@gmail.com

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Friday, March 2, 2012

लोक स्‍वराजः टीम अन्‍ना का नया आंदोलन


समय सीमा 2014. इससे पहले टीम अन्ना एक नया आंदोलन शुरू करेगी, नाम होगा लोक स्वराज. काग़ज़ी तैयारी हो चुकी है, ज़मीनी तैयारी भी लगभग शुरू हो गई है. दरअसल, लोक स्वराज आंदोलन की तैयारी दरअसल लोकपाल आंदोलन से काफी पहले हो चुकी थी. यह पूरी कहानी 2009 से ही शुरू होती है, जब क़रीब-क़रीब लोक स्वराज आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. दिल्ली के कुछ इलाक़ों में पीसीआरएफ और परिवर्तन जैसी संस्थाओं ने लोक स्वराज के प्रयोग भी शुरू किए थे, लेकिन सरकारी लोकपाल बिल बनने की ख़बर जैसे ही आई, वैसे ही लोक स्वराज के मुद्दे को स्थगित कर दिया गया. टीम अन्ना लोक स्वराज आंदोलन की ज़मीन तैयार करने के लिए सबसे पहले देश में वैचारिक मंथन के ज़रिए वैचारिक क्रांति पर जोर दे रही है. इसके लिए देश भर में चर्चा समूहों का गठन किया जा रहा है.. जिन्हें स्वराज चर्चा समूह या अन्ना चर्चा समूह का नाम दिया गया है...इन समूहों के ज़रिए जनता अपने सवालों को उठाएगी और ख़ुद ही उनका समाधान भी ढूंढेगी....

पूरी खबर के लिए इस लिँक पर क्लिक करेँ.

http://www.chauthiduniya.com/2012/02/lok-swaraj-team-annas-new-movement.html.

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Monday, February 6, 2012

टाटा स्टील और झारखंड सरकार की लूट


झारखंड खनिज संपदा से भरा पड़ा है. फिर भी वहां ग़रीबी है, नक्सलवाद है, बेरोज़गारी है और भुखमरी भी. बावजूद इसके कि इस राज्य में टाटा से लेकर मित्तल ग्रुप तक का अरबों का व्यापारिक साम्राज्य कायम है. नियमों की अनदेखी करते हुए बड़े-बड़े औद्योगिक समूह यहां की खनिज संपदाओं का दोहन कर रहे हैं. मामला झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के अंतर्गत आने वाले नोवामुंडी में लौह अयस्क खनन पट्टा से जुड़ा है, जहां टाटा को खनन पट्टा मिला हुआ है. 1980 में, जब एकीकृत बिहार हुआ करता था, टाटा (टिस्को) ने नोवामुंडी स्थित लौह अयस्क खान के नवीकरण के लिए फॉर्म जे के तहत बिहार सरकार के साथ क़रार किया. यह पट्टा अगले 32 साल के लिए टाटा को मिल गया. इस क़रार में स्पष्ट लिखा था कि इस खान का इस्तेमाल कैप्टिव माइनिंग के लिए होगा...

क्या है पूरा मामला.. यहाँ क्लिक करेँ..

http://www.chauthiduniya.com/2011/10/tata-steel-and-the-spoils-of-jharkhand-government.html

Saturday, February 4, 2012

सुशासन मेँ बनता है फर्जी लिस्ट


बिहार में प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया में सालों का समय लगा. हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में मामला सालों तक चला. कई-कई बार सूची तैयार की गई. कहा गया कि अब जो सूची बनी है, वो फाइनल है. चौथी दुनिया की पड़ताल बताती है कि इस सूची में, जिसमें 34540 शिक्षकों को ज़िला आवंटित किया गया है, भारी गड़ब़डी है. फर्ज़ीवाड़ा है. हो सकता है कि सरकार ये दलील दे कि हम जिन शिक्षकों को नियुक्त कर रहे हैं, उन्हें एक साल के भीतर नियमित किया जाएगा. लेकिन सवाल है कि सालों की मेहनत के बाद भी आ़खिर इस दोषपूर्ण सूची को बनाने के लिए ज़िम्मेदार कौन लोग हैं?


पूरी खबर के लिए यहाँ क्लिक करेँ

http://bihar.chauthiduniya.com/2012/01/nitish-ji-list-of-34540-teachers-is-fake.html

Tuesday, January 24, 2012

सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) की तीन राज्यों में चुनाव लड़ने की तैयारी

सोशलिस्ट पार्टी ने विधानसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में 45 पंजाब में एक और गोवा में 5 उम्मीदवार चुनाव मैदान में खड़े किए हैं। उत्तराखंड में पार्टी का कोई उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ रहा है। वहां पार्टी सहमना संगठनों के उम्मीदवारों का समर्थन कर रही है। उत्तर प्रदेश में पार्टी लोक राजनीति मंच समर्थित उम्मीदवारों के साथ नवउदारवादी नीतियों, सांप्रदायिकता, जातिवाद, वंशवाद विरोधी साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों का समर्थन कर रही है। पार्टी का फैसला है कि इन चुनावों में उसका यूपीए और राजग (भाजपा-कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों) से पहले नंबर पर विरोध है। सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि ये दोनों पार्टियां और उनके नेतृत्व में चलने वाले गठबंधन देश में जन-विरोधी नवउदारवादी नीतियों के लिए पहले नंबर पर जिम्मेदार हैं। सोशलिस्ट पार्टी नवउदारवादी नीतियों का संपूर्णता में विरोध करती है। पार्टी का लक्ष्य देश में लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था कायम करना है।

चुनाव प्रचार के लिए केंद्रीय नेतृत्व से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भाई वैद्य, केंद्रीय पार्लियामेंटरी बोर्ड के अध्यक्ष पन्नालाल सुराणा, पार्टी के उपाध्यक्ष संदीप पांडे, महासचिव डॉ. प्रेम सिंह, नुरुल अमीन और ओंकार सिंह, जस्टिस राजेंद्र सच्चर, पूर्व सांसद एवं वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर पार्टी उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार करेंगे। उत्तर प्रदेश में पार्टी का चुनाव घोषणापत्र पार्टी उपाध्यक्ष संदीप पांडे, महासचिव ओंकार सिंह और उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष गिरीश पांडे 27 जनवरी को जारी करेंगे।

डॉ. प्रेम सिंह

महासचिव व प्रवक्ता

मोबाइल : 9873276726

Friday, September 30, 2011

सजप का सैद्धांतिक दिवालियापन


(यह टिप्पणी जनसत्ता में छपे एक लेख पर डॉ. अश्वनी कुमार, हिंदी विभाग, मोतीलाल नेहरू कॉलेज (सांध्य), दिल्ली यूनिवर्सिटी ने की है.)

जनसत्ता, 27 सितंबर 2011 में छपी न्यूज स्टोरी समाजवादी जन परिषद करेगी सिद्धांत आधारित राजनीति का शीर्षक पढ़ कर जहां खुशी हुई वहीं पूरा समाचार पढ़ कर भारी धक्का लगा। अगले महीने बिहार के सासाराम में होने जा रहे समाजवादी जन परिषद(सजप) के राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्‌घाटन अन्ना हजारे करेंगे, यह समाचार किसी भी तरह नहीं पच पा रहा है। इसीलिए यह टिप्पणी लिख रहा हूं। सजप का गठन नवउदारवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम करने के लिए हुआ था। उसने एक नई राजनीतिक संस्कृति के निर्माण की बात की थी। लेकिन किशन जी की मृत्यु के कुछ समय पहले से ही सजप में अजीब तरह की स्थिति बनने लगी थी। कुछ लोग विदेशी धन लेने एनजीओ के साथ काम करने, कांग्रेस का साथ देने आदि की वकालत पार्टी मंच से करने लगे थे। जनसत्ता का समाचार पढ़ कर लगता है वे लोग कामयाब हो गए हैं। मेरे जैसे साधारण कार्यकर्ता की समझ से यह बाहर है कि जिन अन्ना हजारे का बड़े उद्योगपतियों के सभी संगठन, कारपोरेट लॉबी, अमरीकी सरकार, आरएसएस और एनजीओ समर्थन कर रहे हैं, उन्हें सजप के राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्‌घाटन करने के लिए किस समाजवादी सिद्धांत के तहत बुलाया जा रहा है. इंडिया अगेंस्ट करप्शन के निर्माताओं और सदस्यों में तरह-तरह के सांप्रदायिक, जातिवादी आरक्षण विरोधी और धर्म का व्यापार करने वाले लोग शामिल हैं। गांधीवादी अन्ना हजारे भ्रष्टाचारियों को बात-बात पर फांसी पर लटकाने और उनका मांस गिद्धों और कुत्तों को खिलाने का आह्नान करते रहते हैं। अप्रैल में जंतर-मंतर पर मिली कामयाबी के बाद उन्होंने सबसे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की प्रशंसा की थी। वे महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को पीटने वाले ठाकरे बंधुओं और बाबरी मस्जिद ढहाने वाले कारसेवकों के भी प्रशंसक हैं। उनकी टीम में सबसे प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने खुलेआम आरक्षण के विरुद्ध यूथ फॉर इक्वेलिटी संस्था, जो रातों-रात बन गई थी, को धन सहित सभी तरह की मदद की थी। समाचार में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की कड़ी आलोचना की गई है। लेकिन नितीश अन्ना हजारे के प्रिय मुख्यमंत्री हैं। अगर सजप के मंच से वे नितीश कुमार की प्रशंसा करेंगे तो सजप की आलोचना का क्या होगा. समाचार में सम्मेलन में योगेंद्र यादव के शामिल होने की सूचना खास तौर पर दी गई है। योगेंद्र यादव लंबे समय से राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सलाहकार हैं और कांग्रेस के लिए काम करते हैं। सजप की बैठकों में मैंने अनेक बार उनके फोर्ड फाउंडेशन जैसी बदनाम संस्थाओं से संबद्ध होने की चर्चा सुनी है। डॉ. प्रेम सिंह ने तीन लेखों -भ्रष्टाचार : विभ्रम और यथार्थ, नवउदारवाद की प्रयोगशाला में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार के घाट पर,- में यह अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि अन्ना हजारे का आंदोलन नवउदारवाद को मजबूत करने के लिए हुआ है। मैं उनके विचार से पूरी तरह से सहमत हूं। दलित विमर्श और दलित अस्मिता की राजनीति के दौर में एक दलित कार्यकर्ता के लिए दलित संगठन से अलग संगठन में सामाजिक या राजनीतिक काम करना आसान नहीं होता है। जो दलित कांग्रेस और भाजपा में शामिल होते हैं वे अपने स्वार्थ को आगे रखते हैं। उनका स्वार्थ वहां पूरा भी होता है। मैं सजप में रहा तो कुछ मूल्यों के चलते रहा। मैं किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा और अपने गुरु डॉ. प्रेम सिंह के विचारों से प्रेरणा पाकर समाजवादी आंदोलन और सजप में शामिल हुआ था। सुनील भाई के सादगीपूर्ण जीवन और शमीम मोदी के जुझारू व्यक्तित्व का भी मेरे ऊपर काफी प्रभाव पड़ा।अब सजप नवउदारवादी सिद्धांत की राजनीति करने जा रही है। सजप को नवउदारवाद के सिद्धांत से जोड़ने वाले लोग सोचते होंगे कि अन्ना हजारे के सहारे वे कोई पद-प्रतिष्ठा पा लेंगे। एक-दो लोगों के लिए यह संभव हो भी सकता है। लेकिन साधारण समाजवादी कार्यकर्ताओं के साथ यह एक और छल होगा।