Wednesday, February 11, 2015

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं


अपना गुज़रा हुआ कल अभी ज़्यादा पीछे नहीं गया है

फिर उसी सिफ़र से शुरू करते हैं

नाम-रंग-जाति-धर्म हर कुछ

जिन-जिन का वास्ता है क़िस्मत के साथ

उन सबको बदलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


मैं कुछ भी नहीं सोचूंगा... तुम सोचना

मैं कुछ भी नहीं बोलूंगा.... तुम बोलना

मैं किसी से नहीं लडूंगा... तुम लड़ना

मैं कुछ नहीं चाहूंगा... तुम चाहना

तुम सपने देखना... तुम ही उन्हें पूरा करना

हां तुम्हारी शर्तों पर ही ये खेल खेलते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


तुम मेरी ज़िन्दगी बस एक बार जी लो

मैं तुम्हारी हर ज़िन्दगी बग़ैर शिक़ायत किए जी लूंगा

चलो तुम्हारी मनचाही मुराद पूरी करते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...


चलो एक और वादा करता हूं

मैं नहीं चिढ़ाउंगा तुम्हें हर हार पर

जैसे तुम और बाक़ी लोग चिढ़ाया करते थे

मैं नहीं जलील होने दूंगा तुम्हें सबके सामने

और हां आईने में शक़्ल देखने से भी नहीं रोकूंगा


क़बूल कर लो कि अब ये मेरी भी ख़्वाहिश है

आओ एक-दूसरे की ज़िन्दगी जीते हैं

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

 

Thursday, January 29, 2015

सही मायने में मिस्टर भारत लगे अक्षय

अमूमन देशभक्ति फिल्म का ख़्याल ज़ेहन में आते ही श्री मनोज कुमार और उनकी मिस्टर भारत की छवि उभरती है। लेकिन बेबी देखने के बाद देशभक्ति फिल्मों को लेकर तमाम मिथकीय धारणाएं दिलो-दिमाग से जाती रहीं।  अब लगता है कि मनोज कुमार जी की फिल्में देशभक्ति से कहीं ज़्यादा देश की संस्कृति से सराबोर हुआ करती थीं। ‘ ‘बेबी एक यथार्थवादी फिल्म होने के बावजूद अपने पहले फ्रेम से आख़िरी फ्रेम तक दर्शकों को कुर्सी से बांधे रखती है। बिना किसी देशभक्ति से लिपटे गीत-संगीत और गाने के ये फिल्म एक आम भारतीय को देश के लिए सोचने पर मजबूर करती है, देश के प्रति उनके कर्तव्य की याद दिलाती है। एक वाक्य में कहें तो देशभक्ति का जज़्बा जगाती है।

विषम परिस्थितियों में, साज़िशों के बीच अपनों में छिपे दुश्मनों की पहचान कर अपने देश और देशवासियों की रक्षा करता नायक कहीं भी हिन्दी फिल्म का औसत नायक नहीं लगता। बतौर नायक अक्षय कुमार ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। वहीं श्री नीरज पांडे अपनी तीसरी फिल्म के ज़रिए समकक्षों को ये दिखा पाने में कामयाब हुए हैं कि निर्देशन क्या होती है? इस फिल्म के लिए यदि श्री अक्षय कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का और श्री नीरज पांडे को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिले तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

महामहिम राष्ट्रपति और माननीय प्रधानमंत्री से अनुरोध है कि श्री नीरज पांडे की फिल्म बेबी ज़रूर देखें। देशभर में इस फिल्म को टैक्स-फ्री करने के साथ ही इस बात की गारंटी तय करें कि देश का हर नागरिक इस फिल्म को कम-से-कम एक बार ज़रूर देखे। (दुःख के साथ स्वीकार करता हूं) भौतिकवादी परिवेश में देश के लिए संवेदनशीलता कम हुई है, हो रही है, ऐसे में फिल्म बेबी दिलो-दिमाग पर बेहद गहरा असर छोड़ती है। बेबी एक ऐसी फिल्म है जो शास्त्रीय पारिवारिक फिल्म की कसौटी पर सटीक बैठती है। यह एक मनोरंजक फिल्म है, पूरे परिवार के साथ बैठकर देखने लायक फिल्म है, देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत बेहद गंभीर फिल्म है।

Friday, July 11, 2014

आदमक़द

पिता उसके लिए किसी रिश्ते का नाम न होकर महज़ एक शब्द था। वैसे ही जैसे दुनिया के तमाम वर्णमालाओं को कंठस्थ कराने के लिए, हर वर्ण के साथ एक शब्द चस्पां कर दिया जाता है। रिश्ता, दायरा, मर्यादा, समाज, दुनिया कहने पर शायद ही कोई तस्वीर इन शब्दों के पढ़नेवालों के ज़ेहन में उभरती हो, लेकिन शब्द के मायने ज़रूर समझ में आते हैं। ठीक वैसे ही पिता के साथ जुड़े भाव के अभाव में वो बस पिता को एक शब्द समझता। आजकल वो पिता के बारे में सोच रहा है।

उसके जन्म के तीसरे ही साल पिता गुज़र गए थे। मां ने परवरिश ऐसे की थी कि कभी पिता की कमी महसूस ही नहीं होने दिया। बेहद मुश्किल भरे दौर में भी, मां के साए में, उसे किसी चीज़ की कमी नहीं खली। ऊंची से ऊंची शिक्षा के साथ बेहद अच्छे संस्कारों के साथ बड़ा किया था, उसे। उसको देखकर लोग बरबस ही कह उठते कि आदमी बने तो ऐसे। पिता होते तो क्या ऐसा हो पाता?’ – वो सोच रहा है।

उसे याद है कि कैसे शुरुआत के फांकी के दिन बीते ?  कुछ सुधार हुआ, फिर दो वक़्त की रोटी मिलने लगी। और सुधार हुआ, उसके बाद चार शाम के खाने का इंतज़ाम होने लगा। और फिर दुनिया को खिलाने की कुव्वत हो गई। उसने हर दिन, एक सार्थक क़दम बढ़ाते हुए अब तक ज़िन्दगी जी थी। पिता की कमी किसी वक़्त नहीं महसूस हुई। उस वक़्त भी नहीं जब दोस्तों के पिता उन्हें मैट्रिक की परीक्षा का फॉर्म भरवाने स्कूल के हेडमास्टर के पास आए थे या फिर मैट्रिक का एक्ज़ाम दिलवाने एक्ज़ामनेशन सेंटर तक पहुंचे थे या फिर कॉलेज में दाखिला दिलाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था। वह इन सब वाकयों को देखकर भी उस भाव से अनजान था। नहीं समझ सका था सिर पर पिता के साए का मर्म। कोई भाव कभी नहीं रहा, न कभी जन्मा। पिता के होने के असल मायने, वो अब जानना चाहता है।

जिसे जब ज़रूरी होता जितनी मदद की वो पीछे नहीं हटता। जो नहीं कर सकता या नहीं कर पाता सीधे-सीधे कह देता। दोस्तों के पिताओं के साथ भी वो दोस्तों जैसे ही बातचीत करता। दोस्तों के साथ उनके पिताओं का मज़ाक बनाता। लोग कोशिश करके बिन्दास-बेलौस बनते हैं, यहां एक रिश्ते की कमी ने उसे बेलौस-बिन्दास बना दिया था। हां इतना ज़रूर रहा कि वो कभी बदतमीज़ या बेहूदा नहीं लगा। ख़ुद के पिता ज़िन्दा होते, तो आज वो जैसा है, वैसा ही होता या इससे अलग ? इनदिनों अपनी सोच में वो, एक तलाश पर है।

सोच की तलाश, जब थकान के दहलीज़ पर जा पहुंची तो उसकी सोच ने जाने कहां से एक गली ढूंढ़ निकाली और आगे बढ़ गई। अब तलाश की जगह एक कमी ने ले ली। मतलब पहली बार अब्बू को याद करने की कोशिश शुरू की। अम्मी छोटे भाई के घर गई थी। बेग़म दिनभर अपने कामों में व्यस्त होतीं और वो अपनी सोच में किसी अनजान गली में मुड़कर आगे बढ़ता जा रहा है। अलमारी खोला, पुराने एल्बम्स से अब्बू की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें निकाली और बड़े ग़ौर से उन तस्वीरों को देखा। फिर तस्वीरें एल्बम्स में और एल्बम्स अलमारी में वैसे ही सहेज कर रख दिया। ख़ुद आईने के सामने खड़े होकर, अपने पिता की तस्वीर को याद कर, अपने चेहरे में उनके अक्स ढ़ूंढने की कोशिश की। बड़ी देर तक आदमक़द आईने के सामने खड़ा रहा।

Wednesday, June 18, 2014

रोम-रोम में बसनेवाले राम....

बीजेपी जिस राम-राज्य की बात करती रही है... वस्तुतः हम भाजपा के उसी राम-राज्य में जी रहे हैं... हम यानी भारत वर्ष में रहने वाला हर नागरिक... फिर चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान या किसी और मजहब का... हर कोई राम-राज्य में जी रहा है.... और राम-मय है... इन पंक्तियों को पढ़ते वक़्त यक़ीनन आप ज़ेहन आपसे सवाल कर रहा होगा.. कि भला हर कोई कैसे राम-राज्य में जी रहा है वो भी इस दौर में.. तो जनाब जवाब हाज़िर है... ज़रा ग़ौर से पढ़िए और समझने की कोशिश कीजिएगा....ऐतिहासिक तौर पर तो ये अब तक प्रमाणित नहीं हो पाया है कि राम कभी हुए भी थे, या नहीं, लेकिन, पुराण के इस पात्र के प्रति हमारी आस्तिकता... हमें भक्त और अनुयायी बनाती है... रोम रोम में बसनेवाले राम... एक रूपक हैं... भारतीय समाज की आस्था के.... हम भारतीयों के श्रद्धा और भक्ति के... बदलते वक्त के साथ-साथ... राम नाम के इस रूपक के मायने बदलते गए हैं... आगे की पंक्तियों को और गहराई से समझने की ज़रूरत है.... इसलिए तनिक और ध्यान से पढ़िए... हमारी आस्था हमें बताती है कि रोम-रोम में बसने वाले राम ही कहलाते हैं... और आज के हालात में करप्शन हमारे रोम-रोम में व्याप्त है... इसलिए भी करप्शन को मौजूदा दौर का राम कहना सर्वथा उचित है... अब ज़रा सोचिए हम राम-राज्य में जी रहे हैं कि नहीं... अब ये राम-राज्य भाजपा की देन है या कांग्रेस की  कहना मुश्किल ही नहीं नामुमक़िन है..... बस राम-राम भजिए... जय श्रीराम कहिए... क्योंकि राम रूपक हैं... एक ऐसा रूपक जो समय और हालात के मुताबिक़ बदल लेते हैं अपने मायने... और अपनी आस्था में यक़ीन कीजिए... अपने भरोसे का भरोसा बनाए रखिए... क्योंकि आज रोम-रोम में बसते हैं राम !!!!

Tuesday, March 18, 2014

बदल रहा है गुनहगार होने के मायने

 

पिछले कुछ महीनों की घटनाएं देखकर कहा जा सकता है कि देश में जिसके पास अकूत पैसा है, वो कुछ भी कर पाने में सक्षम है। पिछले साल के आख़िर में मुकेश अंबानी के बेटे ने अपनी महंगी गाड़ी के नीचे दो लोगों को कुचलकर मार दिया। क़ायदे से तो मुकेश अंबानी के बेटे पर भी हिट-एंड-रन के तहत केस दर्ज़ करके ग़ैर-इरादतन हत्या का मामला चलाना चाहिए था लेकिन नहीं, पूरे मामले को इतनी जल्दी और इतने बेहतरीन तरीक़े से मैनेज किया गया कि देश में बहुत कम लोगों को ही इस बात की जानकारी भी हुई। क्या पैसे से किए गए गुनाह को मुआफ़ करवाया जा सकता है? अगर हां, तो फिर ये सुविधा सबको दीजिए ना। यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की मांग यहां भी जायज़ नहीं बनती क्या? अदालत से बाहर समझौते की सुविधा के नाम पर हत्या जैसे संगीन मामले में छूट कैसे दी जा सकती है? ये बात समझ से परे है। हरदिल अज़ीज़ सलमान ख़ान के मामले में अब यक़ीनन ऐसा ही कुछ किया जा रहा है। मामला एक दशक से ज़्यादा लंबा खिंच गया है। इस दौरान अदालती कार्यवायी क्या हुई इससे कहीं अहम हो जाता है कि अब अदालत के बाहर क्या कुछ करने की तैयारी चल रही है। सलमान की कार से कुचल कर मरने वालों के परिजन के ज़ख़्म वक़्त ने एक हद तक भर दिए हैं वहीं बाक़ी की कसर, सलमान के परिवारवाले मुंहमांगी क़ीमत चुका कर, पूरी करने को तैयार हैं। और सबसे अहम इस मुहिम को देश के तमाम नामचीन हस्तियों का समर्थन मिल रहा है। यदि अदालत के बाहर पैसे देकर समझौता होता है तो यक़ीन मानिए देश की दुर्दशा दूर नहीं है...अराजकता दूर नहीं है...सिविल वार दूर नहीं है। सहाराश्री सुब्रत रॉय के लिए देश के तमाम वर्गों में सहानुभूति देखी जा रही है। सबसे ज़्यादा तक़लीफ़ सुप्रसिद्ध लोगों को है। कपिलदेव ने सहाराश्री को देशभक्त बताया अरे हुज़ूर बताने वाले नाथूराम गोडसे को भी देशभक्त बताते हैं। बॉलीवुड के नामचीन लोगों ने बक़ायदा प्रेस कॉन्फ्रेन्स के ज़रिए अपना समर्थन सुब्रत रॉय को दिया। जबकि प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर रहे लोगों में एक भी शख़्स ऐसा नहीं था जिसे सुब्रत रॉय के गुनाह की भनक भी हो। तमाम लोग इसलिए उनके समर्थन में सामने आने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उनके लिए सुब्रत रॉय का व्यवहार बेहद मीठा रहा है। क्या व्यवहार कुशल लोग अपराधी नहीं होते? क्या मीठा बोलने वाले गुनाह नहीं करते? अमीर होने का मतलब अपराध करने की आज़ादी मिलना है क्या? किस क़ानून में लिखा है कि मक़बूलियत का मतलब है गुनाह करने की आज़ादी है? किस संविधान में लिखा है पढ़े-लिखे अमीर अपराधी नहीं होते? हक़ीक़त तो ये है जो जितना बड़ा जानकार है वो उतने शातिराना अंदाज़ से गुनाह को अंजाम देता/दे रहा है। क्या है सहाराश्री से जुड़ा मामला? सहारा समूह पर निवेशकों के 20 हजार करोड़ रूपए बकाया हैं। यह मामला निवेशकों को उनके 20 हजार करोड़ रूपए नहीं लौटाए जाने का है। सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले की सुनवाई में सेबी को निवेशकों के पैसों की वसूली के लिए कंपनी की संपत्ति की बिक्री करने की इजाज़त दे दी थी। न्यायमुर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमुर्ति जेएस खेहर की खंडपीठ ने सेबी को पिछली सुनवाई में यह निर्देश दिया था कि वह निवेशकों के 20 हजार करोड़ रूपए की उगाही के लिए सहारा ग्रुप की संपत्ति को बेच दे। सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त , 2012 में दिए गए अपने फैसले में सेबी को पैसों की वसूली के लिए सहारा कंपनी की संपत्ति की कुर्की करने का आदेश दिया था। जिसके बाद से सहारा प्रमुख, अदालत और सेबी के बीच चूहे-बिल्ली-बंदर का खेल शुरू हुआ। सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय के समर्थन में तर्क देने वाले कुछ लोगों का ये भी कहना है कि उनकी वज़ह से लाखों लोगों के घरों में चूल्हा जलता है। ये बात इन पंक्तियों के लेखक को हास्यास्पद प्रतीत होती है। जिनदिनों जेसिका लाल हत्याकांड का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन था उस वक़्त मामले के मुख्य अभियुक्त सिद्धार्थ मनु शर्मा के पिता श्री विनोद शर्मा जी ने अदालत के सामने कुछ ऐसे ही तर्क प्रस्तुत किए थे। पक्षकार के वक़ील की दलील थी कि सिद्धार्थ मनु शर्मा कई कंपनियों के संचालक हैं, जिन कंपनियों में हज़ारों लोग काम करते हैं, उनकी रोज़ी-रोटी चल रही है वगैरह-वगैरह। अदालत ऐसे दलीलों से प्रभावित होती तो जेसिका को न्याय कैसे मिलता? जिन लाखों लोगों के घरों में चूल्हा सहारा प्रमुख की वज़ह से जलता है, क्या जाने-अनजाने सुब्रत रॉय के साथ-साथ वो देश की पूरी जनता के गुनहगार नहीं बन चुके हैं? सहारा प्रमुख के धंधों में बराबर के हिस्सेदार। इन्हीं लाखों लोगों के कंधों पर बंदूक रखकर सुब्रत रॉय जैसे लोग अपना निशाना लगाते रहते हैं। जनता के पैसे के ज़रिए धंधा करने वाला बंदा देश के नामचीन हस्तियों में शुमार हो जाता है, नामचीन हस्तियों से रिश्ते बनाता है, उन्हें तमाम तरह से उपकारित कर बेहद शातिराना अंदाज़ से अपने गुनाह में शामिल कर लेता है। आलम तो ये है कि बग़ैर गुनाह की पड़ताल किए कुछ नामचीन लोग प्रेस कॉन्फ्रेन्स करके न्याय-प्रक्रिया पर हावी होने की कोशिश में जुटे हैं। क्या दो लोग की जान बचाने के एवज में दुनिया का कोई क़ानून दो लोग की हत्या करने की इजाज़त देता है। अपराध करने के बाद जब तक मामला अदालत में विचाराधीन हो उस दौरान कोई कुछ सामाजिक काम करना शुरू कर दे तो क्या उसका गुनाह मुआफ़ कर दिया जाएगा। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब सभी को पता है लेकिन फिर भी एक रास्ता तैयार करने की जुगत में हर पैसे वाला अपराधी जुटा है। आम आदमी की नज़र में हत्या सबसे बड़ा गुनाह हो सकता है लेकिन क़ानून की नज़र में आर्थिक गुनाह उससे कहीं ज़्यादा बड़ा और ख़तरनाक गुनाह है। हर्षद मेहता और तेलगी का मामला ऐसा ही कुछ मामला था। ऐसे मामले को केवल देश की जनता से धोखाधड़ी का मामला ही नहीं कहा जा सकता। आप अंदाज़ा तो लगाकर देखिए जितने करोड़ का घपला-घोटाला ऐसे लोग करते हैं, उतने पैसे से कितने लोगों को रोज़गार मिल सकता है? कितने लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि आर्थिक आज़ादी के बग़ैर आज़ादी का कोई मतलब नहीं है। आमजन के लिए हर्षद मेहता, तेलगी और सहाराश्री सुब्रत रॉय जैसे लोग ही आर्थिक आज़ादी में रोड़ा बने हुए हैं। फिलहाल जबतक कोई ठोस नतीज़े सामने नहीं आते हम इस राग का अलाप तो लगा ही सकते हैं - “समरथ को नाहीं दोष गोंसाई” ।

Monday, February 10, 2014

अगला नंबर सरकारी बैंकों का है...

कुछ दिनों पहले मेरी मुलाक़ात एक कद्दावर नेता से हुई । नेताजी फाइनेंनशियल वर्ल्ड से जुड़े व्यवहारिक और क़ामयाब इंसान हैं। एक बैंक मुलाज़िम होने के नाते मैंने पूछना चाहा कि बैंकर्स वेतन बढ़ोतरी में कितनी उम्मीद रखें। लेकिन इस सीधे सवाल का जवाब बहुत सीधा और सरल होता इसलिए इसे दूसरे ढंग से पूछना मुनासिब समझा। इसके लिए मैंने नेताजी का एक छोटा-सा इंटरव्यु ले लिया

सवाल – आप कौन सा रेडियो चैनल सुनते हैं?
नेताजी – एफएम चैनल ज़्यादातर 92.7 बिग एफएम

सवाल – न्यूज़ के लिए कौन सा चैनल देखते हैं?
नेताजी – एनडीटीवी

सवाल – मनोरंजन के लिए कौन सा चैनल देखते हैं?
नेताजी – कलर्स

सवाल – आपके पास जो मोबाइल फोन है उसका सर्विस प्रोवाइडर कौन है?
नेताजी – वोडाफोन

सवाल – आपके घर पर जो लैंड-लाइन नंबर है उसका सर्विस प्रोवाइडर कौन है?
नेताजी – एयरटेल

सर आपके जवाबों से मैं ख़ासा प्रभावित हूं इसलिए कुछ सवाल और करना चाहता हूं इजाज़त हो तो...
नेताजी (टोकते हुए) – हां हां पूछो पूछो

सवाल - सरकारी मुलाज़िम होने के बावज़ूद आप आकाशवाणी क्यो नहीं सुनते हैं?

अगर कोई पेशेवर पत्रकार उनसे ये सवालात कर रहा होता तो यक़ीनन वो उसे बड़े पेशेवर तरीक़े से ही जवाब देते चूंकि किसी प्रोफेनल ने ये सवाल नेताजी से नहीं किया था इसलिए वो चुप होकर मुझे घूरने लगे.. शायद जानने की कोशिश कर रहे थे कि मैं कहना क्या चाहता हूं। उनके चेहरे के भाव ऐसे थे, मानो कहना चाह रहे हों – यार मैं क्या पूरा देश आकाशवाणी की जगह अब एफएम ही सुनता है।

लेकिन मैंने उनके भावों को नज़रअंदाज़ करते हुए अगला सवाल दाग दिया - न्यूज़ के लिए दूरदर्शन न्यूज़ क्यों नहीं देखते हैं?
इस सवाल पर चुप्पी की जगह एक झुंझालाहट भरा भाव चेहरे पर उभरा... मानों मैंने कोई महा बेवकूफी भरा सवाल पूछ दिया हो।

मैंने उनके ज्ञान में इज़ाफ़ा चाहता था इसलिए एक बार फिर पूछा – आपको पता है मनोरंजन के लिए दूरदर्शन के पास आज चैनलों का पूरा गुलदस्ता है फिर भी आप कलर्स क्यों देखते हैं?

इस बार नेताजी के चेहरे पर झुंझलाहट की जगह एक व्यंग्यात्मक मुस्कान आई मानों कर रहे हों बेटा कॉमेडी नाइट्स विद कपिल नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा।

मैं उनतक अपने दिल की आवाज़ पहुंचाना चाह रहा था इसलिए उनके तमाम मनोभावों को नज़रअंदाज़ करते हुए... एक और सवाल किया -  फोन के लिए लैंड-लाइन और मोबाइल के लिए आप एमटीएनएल या बीएसएनएल क्यों नहीं इस्तेमाल करते हैं?

ये सवाल नेताजी के लिए शायद इंतिहां थी। उन्होंने खीझते हुआ कहा – भई कहना क्या चाहते साफ-साफ कहो।
मैंने कहा - सर बहुत जल्दी प्राइवेट बैंकों के लिए आरबीआई लाइसेंस बांटना शुरू कर देगी...और आकाशवाणी, दूरदर्शन, बीएसएनएल-एमटीएनएल की फेहरिस्त में कम-से-कम 26 नाम और जुड़ेंगे और वो 26 नाम होंगे तमाम सरकारी बैंकों के... अगर इस बार भी वेतन सुधार के नाम पर महज़ खानापूर्ति का काम कर दिया गया तो अपने इंडस्ट्री में टैलेंट बचाना मुश्किल हो जाएगा। छठे वेतन आयोग के समय से बैंकिंग इंडस्ट्री का वेज रिविज़न पेंडिंग है और वोट बैंक की राजनीति की वज़ह से ही सही लेकिन सातवें वेतन आयोग का गठन हो चुका है। इसके बावज़ूद अगर हमें सिर्फ़ लॉलीपॉप पकड़ाया जाएगा तो आगे का अंजाम क्या होगा आपसे बेहतर कौन समझे और जानेगा आने वाले दिनों में हमें बेस्ट ऑफ़ द टैलेंट की जगह रेस्ट ऑफ़ द टैलेंट से काम चलाना होगा ये तय है...
नेताजी गंभीर हो गए (लेकिन, ये भाव एक राजनीतिक चेहरे के लिए बेहद आम भाव था)।


Friday, January 31, 2014

बैंकों में कासा की ज़रूरत

क्या है कासा’?
कासा हिन्दी का कोई शब्द नहीं और न ही हिन्दी भाषा में इसका कोई अर्थ होता है बल्कि ये तो अंग्रेजी वर्णमाला के चार अक्षर क्रमश सी, ए, एस, ए से मिलकर बना एक शब्द है जिसे समेकित तौर पर कासा के नाम से बैंकिंग जगत में जाना जाता है। करंट अकाउंट, सेविंग अकाउंट के पहले अक्षर को लेकर गढ़े गए इस शब्द की बैंकिंग दुनिया में ख़ासी अहमियत है। करंट अकाउंट यानी चालू खाता और सेविंग अकाउंट यानी बचत खाता, ये दो ऐसे अकाउंट होते हैं जिनके ज़रिए बैंकों को नियमित और ख़ासी आमदनी होती है। वज़ह ये कि करंट अकाउंट यानी चालू खाते में जहां खाताधारी को रक़म रखने के एवज में कोई ब्याज नहीं दिया जाता है। वहीं, सेविंग अकाउंट यानी बचत खाता में दिया जाने वाला ब्याज बहुत मामूली होता है। सबसे अहम बात तो ये है कि बैंकों के लिए पूंजी का प्रवाह नियमित बना रहता है अर्थात एक निश्चित अवधि में निश्चित रक़म बैंक को को पूंजी के तौर पर मिलती रहती है।
ब्याज न दिए जाने की सूरत में बैंक जमा रक़म का इस्तेमाल अपने व्यापार के लिए करके ज़्यादा मुनाफ़ा कमाते हैं। वहीं कम ब्याज या नहीं ब्याज मिलने के बदले में खाताधारियों को बैंक की ओर से कई तरह की दूसरी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। मसलन न्यूनतम रक़म को शून्य तक ले जाने की छूट से लेकर तमाम दूसरी सुविधाएं ताकि बैंक में ग्राहकों की रूचि व भरोसा बना रहे। यही वज़ह है कि बैंक कासा पर ख़ासा ज़ोर देते हैं। कासा अर्थात् चालू खाता और बचत खाता की महत्ता बैंक में क्या है और इसके कितने फायदे ये जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि चालू और बचत खाता किस तरह के अकाउंट होते हैं? इसे किस तरह के ग्राहक खोल सकते है? और इन दोनों तरह के अकाउंट में बैंकों की ओर से ग्राहकों को किस-किस तरह की सुविधाएं और फायदे दिए जाते हैं?

काअर्थात् करंट अकाउंट अर्थात् चालू खाता के फायदे
चालू खाता मुख्यत: कारोबारियों, फर्मों, कंपनियों, सार्वजनिक उद्यमों आदि के लिए होता है जिनको हर दिन कई बार बैंकिंग लेन-देन की जरूरत पड़ती है। चालू खाते में बिना कोई नोटिस दिए कभी भी रकम की जमा या निकासी की जा सकती है। यह उधार चुकाने के लिए चेक से भुगतान करने के लिए भी अच्छा होता है। चालू खाता धारकों को सबसे महत्वपूर्ण फायदा होता है ओवरड्राफ्ट का। कारोबारियों को उनके टर्नओवर, मुनाफे आदि के हिसाब से ओवर ड्राफ्ट यानि खाते में जमा रकम से ज्यादा निकासी की सुविधा दी जाती है, लेकिन इसके लिए कारोबारी से कुछ जमानत जरूर ली जाती है। इस खाते में ग्राहक जितनी चाहे राशि जमा कर सकते हैं या निकाल सकते हैं। कोई भी प्रमुख व्यक्ति सिंगल या ज्वाइंट रूप में, सोल प्रोपराइटरीशिप फर्म, पार्टनरशिप फर्म, हिंदू अनडिवाइडेड फैमिली, लिमिटेड कंपनी, क्लब, सोसाइटी, ट्रस्ट, एक्जीक्यूटर्स और एडमिनिस्ट्रेटर, अन्य सरकारी एवं अर्द्ध-सरकारी संस्थाएं, स्थानीय प्राधिकरण आदि चालू खाता खोल सकते हैं। लेकिन इस खाते पर कोई ब्याज नहीं मिलता। इसमें आप चाहे जितनी बार लेन-देन कर सकते हैं, किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं है।
चालू खाता वे कारोबारी खोलते हैं जिन्हें नियमित रूप से बैंकों में जमा और निकासी करनी होती है। चालू खाता खोलने का उद्देश्य यह होता है कि कारोबारी अपने लेन-देन आसानी से कर सकें। आमतौर पर बैंक चालू खाते पर कोई ब्याज नहीं देते। लेकिन अब कुछ बैंक चालू खाते पर कुछ ब्याज भी देने लगे हैं। चालू खाता भी लगातार चलने वाला खाता है और इसके लिए कोई निश्चित अवधि नहीं होती। चालू खाता रखने वाला कारोबारी चाहे तो अपने महाजनों को चेक की मदद से सीधा भुगतान कर सकता है।
इंटरबैंक कनेक्शन के द्वारा ऐसे खाताधारकों को उधार देने वाले महाजन यह भी पता कर सकते हैं कि कर्ज चुकाने के मामले में उसका रिकॉर्ड यानि इतिहास कैसा रहा है, यानि उस पर कितना भरोसा किया जा सकता है। चालू खाते का बढऩा, देश में औद्योगिक प्रगति की निशानी मानी जाती है। यह खाता नहीं होता तो कारोबारियों को अपने कामकाज में काफी दिक्कत आती।
चालू खाते सुविधा और कारोबारियों के स्तर के लिहाज से कई तरह के हैं, जैसे प्रीमियम करेंट अकाउंट, रेगुलर करेंट अकाउंट, फ्लेक्सी करेंट अकाउंट आदि। इनमें लोकल चेक कलेक्शन और इन पर भुगतान की फ्री सुविधा, 24 घंटे फोन बैंकिंग, डोर स्टेप यानि आपके दरवाजे तक बैंकिंग, मुफ्त कैश डिपॉजिट, बड़ी रकम पर डीडी/पीओ जारी करने की फ्री सुविधा, एनईएफटी कलेक्शन और पेमेंट की फ्री सुविधा आदि दी जाती है।
सा अर्थात् सेविंग अकाउंट अर्थात् बचत खाता के फायदे
बचत खाता (सेविंग अकाउंट) बैंकों द्वारा चलाया जाने वाला ऐसा खाता होता है, जिसमें रखी गई रकम पर वे ब्याज देते हैं। आमतौर पर इस खाते से कारोबारी लेन-देन नहीं किया जाता। कोई भी व्यक्ति सिंगल या ज्वाइंट तरीके से यह खाता खोल सकता है। आमतौर पर इस अकाउंट के लिए कोई मेंटेनेंस चार्ज भी नहीं देना होता। इस बात का ध्यान रखें कि बचत खाते में 10 लाख से ऊपर के किसी भी लेन-देन की जानकारी आयकर विभाग को दी जाती है। आमतौर पर व्यक्ति अपनी बचत राशि का एक हिस्सा जमा करने के लिए बचत खाता खोलता है। बचत खाता आमतौर पर छोटे बचत कर्ता, छोटे कारोबारी, वेतनभोगी या नियमित आय वाले लोग खोलते हैं। इसी तरह छात्र, पेंशनर और वरिष्ठ नागरिकों को इस तरह के खाते खोलने की जरूरत होती है।
बचत खाते पर भी ब्याज मामूली ही मिलता है। हालांकि बचत खाते पर ब्याज दरों को रिजर्व बैंक ने नियंत्रणमुक्त कर दिया है, फिर भी कुछ बैंकों द्वारा बड़े जमा पर मिलने वाले 6 फीसदी ब्याज को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर बैंक 4 से 5 फीसदी सालाना ब्याज ही देते हैं। बचत खाते को चलाते रहने के लिए उसमें बहुत कम राशि रखने की जरूरत होती है। कमर्शियल बैंक और सहकारी बैंक अपने यहां बचत खाते के माध्यम से लोगों की जमा राशि स्वीकार करते हैं। भारत में बचत खाता 100 रु. से लेकर 5000 रुपए तक के जमा के साथ खोला जा सकता है। बचत खाते में खाताधारक जब चाहे अपने खाते से पैसा निकाल सकता है। इसमें कितनी भी बार और कितनी भी राशि जमा की जा सकती है, लेकिन रुपए 50,000 से ऊपर के जमा पर पैन (परमानेंट अकाउंट नंबर) देना अनिवार्य होता है और अगर आपकी आमदनी के हिसाब से रकम ज्यादा लग रहा है, तो बैंक मैनेजर आपसे इस रकम के स्रोत के बारे में पूछ सकता है। इसी तरह एक माह में अधिकतम लेन-देन की भी एक सीमा तय की जाती है।
इसमें निकासी के मामले में भी कुछ सीमाएं होती हैं। इसमें से पैसा या तो चेक, या संबंधित बैंक के विद्ड्रॉल स्लिप या एटीएम से ही निकाला जा सकता है। बचत खाता लगातार चलने वाला होता है और इसको रखने के लिए कोई अधिकतम अवधि नहीं होती। बचत खाते में रखी रकम के बदले किसी तरह का लोन नहीं मिलता। बिजली का बिल, टेलीफोन बिल और अन्य दैनिक खर्चों के लिए इलेक्ट्रॉनिक क्लीयरिंग सिस्टम (ईसीएस) या ई-बैंकिंग की सुविधा इस खाते पर मिलती है। आमतौर पर लोग हाउसिंग लोन, पर्सनल लोन, कार लोन इत्यादि के ईएमआई का भुगतान बचत खाते से ही करते हैं।
बैंक बचत खाता धारकों को कई तरह की सुविधा देते हैं। इस खाते को रखने वाला कोई जमाकर्ता चेक से किसी को पेमेंट कर सकता है। इसका वेतनभोगी या अन्य लोगों को यह फायदा होता है कि वे साल के अंत में अपनी पूरी जमा और निकासी का विवरण देख सकते हैं। बचत खाते का पासबुक किसी व्यक्ति की पहचान और एडे्रस प्रूफ के रूप में भी मान्य होता है। इस खाते को रखने वाला व्यक्ति किसी दूसरे के खाते में इलेक्ट्रॉनिक तरीके से फंड ट्रांसफर (ईएफटी) भी कर सकता है। बचत खाता रखने वाले ग्राहक इंटरनेट बैंकिंग सुविधा का लाभ उठाते हुए ऑनलाइन शॉपिंग भी कर सकते हैं। इस खाते में अकाउंट धारक द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के लेन-देन का रिकॉर्ड रखा जाता है। इस खाते को रखने वाले लोग जरूरत पडऩे पर तत्काल एटीएम के द्वारा पैसा निकाल सकते हैं।
सुविधाओं के लिहाज से अब बैंकों ने अपने बचत खाते को कई हिस्सों में बांट दिया है।
सुविधा के स्तर से ही इन्हें बेसिक, रेगुलर, सेविंग प्लस आदि नाम दे दिए जाते हैं। बुनियादी बचत खातों की बात करें तो एटीएम कार्ड, आईवीआर आधारित बैंकिंग, माह में एक निश्चित बार मुफ्त रकम निकासी की सुविधा मिलती है। इससे ऊपर के बचत खातों में इंटरनेशनल डेबिट कार्ड, एनईएफटी से फंड ट्रांसफर, सेफ डिपॉजिट लॉकर, स्वीप इन सुविधा, मोबाइल बैंकिंग, बिल भुगतान आदि की सुविधा दी जाती है। और उच्च स्तर के बचत खातों में इंटरनेशनल डेबिट कार्ड के अलावा, पर्सनलाइज्ड चेक, पेएबल ऐट पार चेकबुक, इंटरसिटी और मल्टी सिटी बैंकिंग, लॉकर रेंटल पर छूट, गोल्ड बार आदि खरीदने में विशेष छूट की सुविधा दी जाती है।
कासा से बैंकों को होनेवाले फायदे
करंट अकाउंट और सेविंग अकाउंट से ग्राहकों को कई तरह के फायदे हैं तो कहीं ज़्यादा फायदा बैंक को होता है फिर चाहे शुद्ध मुनाफे की बात हो या नियमित पूंजी की या फिर कारोबार में बढ़ोतरी की या बैंक के ब्रांडिंग की, कासा के ज़रिए बैंक को अनेकोनेक फायदे हैं। दूसरे शब्दों कहें तो कासा मतलब फायदे-ही-फायदे।  कैसे और कितना फायदा है बैंकों को –

शुद्ध बड़ा मुनाफा – चूंकि बैंकों का मुख्य काम है कम ब्याज पर पैसा जमा करना और ज़्यादा ब्याज पर क़र्ज़ देना ऐसे में कासा यानि चालू और बचत खाते की रक़म बैंकों के मुनाफे को कई गुना तक बढ़ा देती है। वज़ह ये कि करंट अकाउंट अर्थात् चालू खाता में जहां जमा रक़म पर बैंक कोई ब्याज नहीं देता वहीं सेविंग अकाउंट अर्थात् बचत खाता पर दिए जाने वाला ब्याज़ बहुत ही कम होता है। दोनों ही स्थिति में बैंक को बेहद सस्ते में पूंजी हासिल होती है। जिससे बैंक ऊंचे दरों पर क़र्ज़ देकर ज़्यादा बड़ा और शुद्ध मुनाफा कमाते हैं।

नियमित पूंजी का प्रवाह – करंट अकाउंट और सेविंग अकाउंट में रक़म के आने और जाने का वक़्त ज्ञात रहता है। इसके ज़रिए बैंकों को निश्चित वक़्त पर निश्चित राशि मिलती रहती है, इस वज़ह से पूंजी का प्रवाह बना रहता है। जिस पूंजी का इस्तेमाल बैंक अपने व्यापार बढ़ाने में बख़ूबी करते हैं।

कारोबारी जटिलता में कमी – तकनीक के तेज़ी से बदलते स्वरूप ने लोगों की ज़िन्दगी और ज़रूरतों को भी बहुत प्रभावित किया है जिसके असर से बैंकिंग उद्योग नहीं बचा है। बैंकिंग का वर्तमान स्वरूप हर गुज़रते दिन के साथ जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। ऐसे में पारंपरिक बैंकिंग की श्रृंखला में कासा की भूमिका सबसे अहम है क्योंकि ये आज भी रक़म जमा करने और रक़म निकालने के सीधे समीकरण पर आधारित। इन दो तरह के अकाउंट का प्रबंधन भी तुलनात्मक रूप में आसान होता है।

कारोबार में बढ़ोतरी – जैसा ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि बैंकिंग आज अपने पारंपरिक स्वरूप से काफी आगे निकल चुकी है। बैंक अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए तमाम दूसरे तरह के प्रयोग कर रहे हैं। ऋण और जमा के खेल के साथ बीमा और दूसरे तरह के तमाम योजनाओं को बैंक प्रोडक्ट की तरह लॉन्च कर रहे हैं और बेच रहे हैं। ऐसे में कासा के ज़रिए मिले ग्राहकों की संख्या और संपर्क बैंकों के कारोबार बढ़ाने में कारगर साबित हो रहे हैं।

एनपीए का ख़तरा कम – कासा के ज़रिए होने वाले व्यापार में आर्थिक ख़तरे (फिनान्शियल रिस्क) की गुंजाइश न्यूनतम होती है। एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) अर्थात ग़ैर-उत्पादक आस्थियां आज बैंकों को सिरदर्द बनते जा रहे हैं। पारंपरिक बैंकिंग का आधार होने के बावजूद कासा एनपीए पर नियंत्रण रख पाने में बैंकों के लिए मददगार साबित होता है।

बिना ख़र्च प्रचार-प्रसार और ब्रांडिंग – कासा के ज़रिए बैंकों की पहुंच लोगों के बीच गहरी पहुंचती है। अच्छी सेवा की गारंटी तय कर देने मात्र से बैंकों की साख बढ़ती है और बैंक के कारोबार के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का काम होता रहता है। बिना ख़र्च बैंक की ब्रांडिंग होती है।

बैंकों में कासा की स्थिति
कासा से बैंकों को फ़ायदा ज़्यादा है इस वज़ह से कासा की स्थिति बहुत अच्छी या सुदृढ़ है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को छोड़ दें तो 19 राष्ट्रीयकृत बैंकों में महज तीन बैंक क्रमशः पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र और युनाइटेड बैंक में कासा अनुपात लगभग 40 फीसदी है। सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, यूको बैंक, यूनियन बैंक, इलाहाबाद बैंक और देना बैंक में कासा का अनुपात प्रतिशत लगभग तीस है। और बाकी बचे बैंकों में ये अनुपात प्रतिशत 20 से 28 के बीच है। हालात ये हैं कि नियंत्रक की भूमिका  निभा रहे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को समय-समय पर बैंकों से कासा अनुपात प्रतिशत बढ़ाने की अपील करनी पड़ती है। बैंक भी ग्राहकों को लुभाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इन सबके बावज़ूद कासा की दर में गिरावट ज़ारी है।

क्यों घट रहा है कासा’?
टैक्स बचाने के लिए अपनाए जानेवाले तमाम नए हथकंडे की वज़ह से भी कासा में बढ़ोतरी कर पाना बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। एन ई एफ टी (नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर) व आर टी जी एस (रीयल टाइम ग्रॉस सेटेलमेंट) और पेमेंट यानि भुगतान के तमाम नए रास्ते ने कासा अनुपात प्रतिशत वृद्धि को बुरी तरह प्रभावित किया है। इन सबके के अलावा राष्ट्रीयकृत बैंकों को निजी बैंकों से मिल रही चुनौतियां सबसे अहम कारक बन कर उभरी हैं। निजी बैंकों के ऊपर रिज़र्व बैंक का नियंत्रण तो होता है लेकिन सरकारी नियंत्रण नहीं होता। जिस वज़ह से कई नियमों को ताक पर रखकर वो कारोबार करते हैं। इतना ही नहीं निजी बैंकों पर सरकारी बैंको की तरह किसी तरह का अतिरिक्त सरकारी बोझ या काम नहीं लादा जाता इस वज़ह से वो सिर्फ़ और सिर्फ़ कारोबार पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं। और यक़ीनन यही वज़ह है कि एक ओर जहां राष्ट्रीयकृत बैंकों को मौज़ूदा कासा अनुपात प्रतिशत स्थिर रखने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है, वहीं निजी बैंक तमाम तरह के हथकंडे अपनाकर बाज़ार में अपनी पैठ बनाने में क़ामयाब दिख रहे हैं।

कैसे बढ़ेगा कासा?
सरकारी योजनाओं के ज़रिए – सरकार के सभी तरह के काम-काज में मुख्य सहयोगी की तरह स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया जुड़ा रहता है। इस कारण, अधिकतर सरकार की आर्थिक गतिविधियां स्टेट बैंक के ज़रिए ही संपन्न होती है। और, कारोबार भी स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को ही मिलता है। वित्तीय समावेशन, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना, दिल्ली सरकारी की अन्न-श्री योजना जैसी तमाम ऐसी सरकारी योजनाएं बैंकों को कासा अनुपात प्रतिशत बढ़ाने के लिए कारगर मौक़ा मुहैया करा रही हैं। इन योजनाओं  को गंभीरता से लेकर काम करने वाले बैंकों के कारोबार में यक़ीनन इज़ाफ़ा हुआ है।

उन्नत तकनीक के साथ करना होगा मुक़ाबला – निजी क्षेत्र के बैंक अगर तमाम विपरीत परिस्थिति में भी कासा अनुपात प्रतिशत बढ़ाने में क़ामयाब हो रहे हैं तो यक़ीनन राष्ट्रीयकृत बैंक कहीं-न-कहीं किसी विसंगति का शिकार है। आज बाज़ार की ज़रूरत के मुताबिक़ स्कीम और प्रोडक्ट लॉन्च करने की आवश्यकता है। आमलोगों के लिए बैंकिंग आज भी जटिल प्रक्रिया है आम लोगों के लिए बैंकिंग का सरलतम रूप लाने का गुरू-दायित्व निभाना भी हमारा काम होना चाहिए। ताकि हम आमलोगों का भरोसा जीत सकें, उन्हें समझ सकें और उनसे कारोबार हासिल कर सकें।


अपनाना होगा कॉरपोरेट संस्कृति – बाज़ार का कॉरपोरेटाइज़ेशन हो चुका है। ऐसे में राष्ट्रीयकृत बैंकों के लिए कस्टमर फ्रेंडली बैंकिंग का नया अध्याय शुरू करना निहायत ही ज़रूरी है। 24-ऑवर्स बैंकिंग, बैंकिंग एट योर डोर स्टेप्स जैसे कॉन्सेप्ट्स को वास्तविकता का अमलीजामा पहनाने का वक़्त आ चुका है। इन्हीं मानदंडों पर ख़रा उतरकर हम राष्ट्रीयकृत बैंकों में कासा अनुपात प्रतिशत बढ़ा सकते हैं। यदि निजी बैंकों को निजी कंपनियां अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए सैलेरी अकाउंट बनाने की ज़िम्मेदारी दे रही हैं तो यक़ीनन हमें आत्म-निरीक्षण करना ही होगा। हमें वो रास्ता अख़्तियार करना ही होगा, जिनकी मदद से हम बाज़ार में मौज़ूद निजी कंपनियों के करंट अकाउंट और सेविंग अकाउंट को अपनी ओर खींच सकें।

Tuesday, December 17, 2013

जनता सावधान... हज़ार राहुलों की फौज तैयार हो रही है

जनता अब बेचारी नहीं रही... जनता अब वक़्त की मारी भी नहीं रही... लेकिन फिर भी अक़्ल की मारी जनता को बार-बार शह-बचो की चेतावनी देना ज़रूरी है... हर बार उसे सावधान करना ज़रूरी है... कि आगे ख़तरा है... हालांकि ख़तरों के लिए जनता का रवैया बेहद ढुल-मुल होता है... और ख़तरों से निपटने के लिए... हर बार उसे एक आंदोलन के लिए तैयार करना पड़ता है... मानिए या न मानिए... एक ख़तरे की सुगबुगाहट फिर सुनाई दे रही है... पता नहीं कि जनता इस सुगबुगाहट को सुन-देख पा रही है या नहीं लेकिन... अगर आज इस सुगबुगाहट की अनदेखी कर दी गई तो... आने वाले वक़्त में इसकी बहुत बड़ी क़ीमत उसी जनता को चुकानी पड़ेगी जो ख़ुद के फटेहाली पर भी जश्न मनाने का माद्दा रखती है।

जो राहुल गांधी को शहज़ादा या राजकुमार या राजनेता या अभिनेता या कुछ और की उपाधि देने से नहीं चूकते ... वो ग़लत हैं... वो सरासर ग़लत हैं और उनकी ग़लती क्षम्य नहीं है। वज़ूहातों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसकी चर्चा यहां संभव नहीं है। वर्तमान परिपेक्ष्य में राहुल गांधी एक रूपक हैं... एक संस्कृति के वाहक हैं जिस संस्कृति का नाम राहुल संस्कृति दिया जाना ग़लत नहीं होगा...क्योंकि देश की राजनीति में दखल रखने वालों के लिए राहुल गांधी एक नज़ीर हैं ... दल और पार्टी के दंगल से परे... एक अनुकरणीय उदाहरण हैं... और सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि आने वाले दिनों में भारत वर्ष को हज़ार राहुलों की फौज मिलने जा रही है... चाहे-अनचाहे इसकी अच्छी शुरूआत हो चुकी है...

चूंकि राहुल देश की सवा सौ साल पुरानी पार्टी से ताल्लुक रखते हैं.. ऐसे में लाज़िमी है... शुरूआती बढ़त उनके घरवालों की उस पार्टी को ही मिलनी थी.. वो मिली भी... लेकिन यहां ये जान लेना ज़रूरी है कि कांग्रेस पार्टी के अंदर वो बढ़त एक हद तक ग्राह्य रही है... फिर चाहे मामला ज्योर्तिआदित्य सिंधिया का हो या सचिन पायलट का या फिर जितिन प्रसाद का... इन सबों को भारतीय इतिहास और संस्कृति की जानकारी जैसी और जितनी हो... इसकी चर्चा नहीं होती... इसलिए इनकी विरासत महफूज़ रही और इस तरह के तमाम नौसिखिए राहुल संस्कृति के वाहक बनते चले गए और गुज़रते वक़्त ने इनकी मौज़ूदगी को सहज़ बना दिया...

वहीं राहुल संस्कृति एक संक्रामक रोग के मानिन्द भाजपा समेत तमाम पार्टियों और दलों को भी अपने लपेटे में लिया... प्रवेश सिंह वर्मा... अजय कुमार मल्होत्रा... विनय मिश्रा... भाजपा के अंदर राहुल रूपक है... लेकिन ठहरिए... हर पार्टी में गिनती सिर्फ तीन तक ही है ऐसा नहीं है... पार्टी और उनके अंदर राहुल रूपकों की फेहरिस्त लंबी है... चिराग पासवान... तेजस्वी यादव... तेज प्रताप यादव और न जाने ऐसे कितने ?

राजनीति गलियारे की ये वो पौध हैं जो देश के इतिहास-भूगोल से अनजान हैं... ज्ञान के नाम पर जिनके पास पिता का नाम है... साथ में है बेशुमार पैसा... और एक चाह... चाह अपने पिता की ही तरह सियासी अखाड़े का नामचीन बनना ... लेकिन अफसोस इन रूपकों को इनके पिता के अतीत और संघर्ष की हक़ीक़त नहीं मालूम ... इन्होंने तो अपनी अब तक की ज़िन्दगी में ज़्यादा किंवदन्तियां ही सुन रखी हैं ... जबकि राहुल संस्कृति के तमाम फौज़ियों के वालिदों को अपने मुल्क़ का अतीत.. वर्तमान.. ताना-बाना... अहमियत... सबकुछ पता था.. पता है... वहीं इन लोगों को चाहिए जल्द से जल्द शोहरत सत्ता और ताक़त... इसलिए ये हर वो चीज़ करने को तैयार है, जिससे पिता की विरासत संभाली जा सके...

रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने तो पहले अदाकारी में हाथ आजमाया लेकिन पहली नाक़ामी के बाद ही जान गए कि वो जनसेवा के लिए ही बने हैं... ठीक इसी तरह लालू के पुत्र तेजस्वी यादव क्रिकेट में भाग्य आजमाने गए.. लेकिन जब जान गए कि क्रिकेट भाग्य भरोसे नहीं खेला जा सकता तो पिता की विरासत संभालने चले आए.. काश इन लोगों ने विरासत संभालने से पहले कुछ तैयारी कर ली होती और ज़्यादा नहीं तो उतनी ही कर ली होती... जितनी अपनी इकलौती फिल्म से पहले चिराग पासवान ने की थी...या क्रिकेटर बनने के लिए तेजस्वी यादव ने... लेकिन किसी तरह की तैयारी में राहुल संस्कृति के ये वाहक अपना वक़्त ख़राब नहीं करना चाहते... क्योंकि उनको पता है कि उनके देश की जनता पत्थर रख कर पूजने की आदी हो चुकी है... और राजनीति में उनके वालिद वो मील का पत्थर बन चुके हैं...

ख़ैर आने वाले संसद की रूप-रेखा तैयार हो रही है... जनता को तब तक बेख़बर बने रहने की आज़ादी है जब तक उनका आशियाना जलने न लगे... उसके बाद एक आंदोलन की शुरुआत तो हो ही जाएगी... क्यों?

Friday, August 30, 2013

प्रौद्योगिकी और आम आदमी

परिचय  साउदी अरब में रह रहे ईरानी गायक अली वर्दी, हिन्दी गाना गा कर, रातों-रात पूरी दुनिया में मशहूर हो जाते हैं। इंटरनेट के ज़रिए उनके गाने के प्रसार ने तमाम पुराने मिथक ध्वस्त कर दिए हैं। हुनरमंद लोगों के लिए आज पूरी दुनिया में बराबर मौक़े हैं। फिर चाहे वो किसी भी मुल्क़ का हो, किसी भी मज़हब को माननेवाला हो, किसी भी जाति या लिंग का हो। हर तरह की वर्जनाएं, प्रौद्योगिकी यानी तकनीक के फैलते जाल के सामने, टूटती जा रही हैं। तभी तो हर नामुमक़िन लगने वाली चीज़ मुमक़िन होने लगी है। आम आदमी की ज़िन्दगी हर गुज़रते दिन के साथ पहले से ज़्यादा सुविधाजनक होती जा रही है
अभी ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है, जब पूरी दुनिया में हमारे देश भारत की छवि एक ऐसे राष्ट्र की थी जो एक साथ कई-कई शताब्दियों में जीता था। लेकिन, प्रौद्योगिकी में हुए विकास ने एकबारगी भारत जैसे देश को भी विकसित देशों की तरह एक शताब्दी में जीने को बाध्य कर दिया है। और ये बाध्यता इतनी मौलिक और इतनी ग्राह्य है कि आज गांव में रहने वाला अनपढ़ इन्सान भी अपनी ज़िन्दगी बग़ैर मोबाइल फोन के अधूरा पाता है। हर गुज़रते दिन के साथ  विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकास हो रहा है और हर दिन प्रौद्योगिकी का दायरा आम आदमी के बीच बढ़ता जा रहा है। तकनीक में तेजी से हो रहे विकास के अपने फ़ायदे और नुक़सान हैं।  यह सही है कि तकनीकी विकास से देश का विकास हुआ हैदेश में शहरों की संख्या बढ़ी है, साथ ही बढ़ी है शहरी आबादी भी। लेकिन इन सबके बावज़ूद, यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि हमारे देश की आधी से ज़्यादा आबादी आज भी गांवों में रहती है। सही मायने में आम आदमी का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण है। यहां ये बताना सबसे ज़रूरी है कि तकनीकी विकास ने सिर्फ शहरी आबादी को फायदा नहीं पहुंचाया है बल्कि ग्रामीणों को भी इसका सीधा फ़ायदा मिला है। हक़ीक़त तो ये है कि प्रौद्योगिकी के विकास का मानदंड ही हमारे देश में यह है कि जिससे ज़्यादा से ज़्यादा आबादी को फायदा हो। और इसी मानदंड के तहत देश की सबसे बड़ी आबादी यानी किसानों के हक़ में प्रौद्योगिकी का उपयोग अहम हो जाता है। साथ ही अहम हो जाता है प्रौद्योगिकी के ज़रिए खेती को और बेहतर बनाना।
किसानों के लिए उपयोगी प्रौद्योगिकी तमाम दूसरे क्षेत्रों की तरह आज कृषि क्षेत्र का विकास भी प्रौद्योगिकी आधारित हो चला है। जिस तरह तकनीकी क्रांति ने आम आदमी का जीवन बदल दिया है ठीक उसी तरह कृषि प्रधान देश भारत में भी प्रौद्योगिकी सूचना क्रांति ने कृषि के काम को न केवल आसान बना दिया है बल्कि देश को उन्नत कर दुनिया के चुनिन्दा देशों में शामिल करवा दिया है। इस सूचना क्रांति में अहम योगदान दे रहा है, कम्प्यूटर आधारित सूचना प्रौद्योगिकी पक्ष। हम सब जानते हैं शुरुआती दौर में बेतार यंत्रमोर्सकोड और टेलीप्रिन्टर ही सूचना के अंग हुआ करते थे। जानकारी के लिए हम इन्हीं तकनीकों पर निर्भर थे। वहीं आज रेडियोट्रांजिस्टरटेलीफोनमोबाइल,वहीं आज रेडियो, ट्रांज़िस्टर, टेलीफोन, मोबाइल,  कम्प्यूटरटेलीविजनसेटेलाईटइन्टरनेटवीडियो फोनडिजिटल डायरी सभी सूचना क्रांति के उन्नत अंग हैं जिसने प्रौद्योगिकी को नया मायने दिया है। इन प्रौद्योगिकी के ज़रिए जानकारी के साथ सूचना संग्रहण का परिदृश्य ही बदल गया है। किसी भी तरह की जानकारी या ख़बर, इन यंत्रों के जरिए, कुछ मिनटों में ही गाँव-गाँव में किसान हो या मज़दूर तक पहुँच जाती है।
सही वक़्त पर सही जानकारी ने ही भारत में कृषि क्षेत्र को उन्नत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चाहे वर्षा का पूर्वानुमान लगाना हो या कि फसल की उन्नत तकनीकी देखभाल हो कम्प्यूटर के युग में यह काम सरल सहज और आसान हो गया है। गाँव-गाँव में मोबाइल टॉवर कम्प्यूटर इन्टरनेट के सतत् जाल से उपयोगी सूचना का सम्प्रेषण आसान हो गया है। इसका जीता जागता उदाहरण भारत में हरित क्रांति का लहलहाता परचम है। हमारे कृषकों ने हरित क्रांति से अपने खेतों में जो सोना उगाया हैउसी के दम पर हम न केवल खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हैंबल्कि उनका निर्यात भी करने में सक्षम हैं। यह उत्तम दिशा निर्देशनयोजना क्रियान्वयन का उत्कृष्ट वैज्ञानिक परिणाम का नतीजा है कि अत्याधुनिक कम्प्यूटर देश में फैले विभिन्न विक्रय केन्द्रों के आँकड़े नतीजों के आधार पर सफल उत्पादन कर कृषि को व्यवसाय का दर्जा भी दिलवा रहे हैं।
खेत की उपज बढ़ाते प्रौद्योगिकी डाटा विश्लेषण जिसमें मौसम उपग्रह के अनुप्रयोग से न केवल मौसम की सटीक स्थिति पता चलती है
बल्कि खेती में उन्नत प्रौद्योगिकी के प्रयोग की भी मदद मिल जाती है। अधिक फसल कम लागत बहुत कम नुकसान इस सूचना क्रांति का ध्येय बन गया है। आधुनिक कृषि यंत्र न केवल कम्प्यूटर द्वारा संचालित होते हैं बल्कि खेती योग्य जमीनउर्वराजल सिंचन योजना और आर्थिक उपयोगिता के बारे में भी भली प्रकार से जानकारी प्रदान कर हमारी मदद करते हैं। जलवायु के साथ-साथ पूरे देश में बदलते मौसम के पूर्वानुमान के साथ मृदा प्रौद्योगिकी और संरक्षणफसल का चयनबीजारोपण की आधुनिकतम प्रौद्योगिकी की जानकारी भी देते हैं। मृदा में कीटनाशक का प्रयोग कितने प्रतिशत तक सही होगा इसकी जानकारी भी कम्प्यूटर डाटा कार्यक्रम से चंद मिनटों में मिल जाती है।
आज नए सूचना संचार साधनों के विकास के साथ-साथ कम्प्यूटर के उपयोग की माँग भी बढ़ती जा रही है। इससे न केवल समय की बचत होने लगी है बल्कि उत्पादकता में वृद्धि भी दृष्टिगोचर हो रही है। आजकल सरकार भी इस प्रौद्योगिकी को सरल बनाकर किसानों को उनके ही गाँव में न केवल प्रशिक्षित कर रही है बल्कि उनको जमीनखसरा रिकार्ड इत्यादि को देखने और उसकी प्रतिलिपि भी तत्काल घर बैठे उपलब्ध करवा रही है। घर बैठे किसान अपने मोबाइल की स्क्रीन पर जमीन का रकवाकृषि जोतबोई गई फसल का रिकार्डमध्यप्रदेश की भू-अभिलेख की साइट पर जाकर देख लेता है और बाकायदा समय-समय पर उसे सरकारी जानकारी भी मिलती है। इससे अच्छी पारदर्शिता पूर्ण जानकारी किसानों को वक़्त पर मिल जाती है। दक्षता के साथ संपूर्ण जानकारी सिर्फ सूचना क्रांति से ही संभव थी जिसने सरकार और किसान को भावनात्मकसूचनात्मकसंदेशात्मक तौरपर आपस में एक कर दिया।
उपज बढ़ाने में सहायक मौसम का पूर्वानुमान किसान डाटा सेंटर में स्वचलित मौसम केन्द्रस्वचलित वर्षा मापक यंत्र से भी किसान परिचित हो गए है। यह यंत्र सोलर बैटरियों की सहायता से कम्प्यूटर नेट के ज़रिए हर पल के मौसम का हाल पूना स्थित केन्द्र पर संगणित हो मौसम विभाग की वेबसाइट पर भी उपलब्ध रहती है। इसी प्रकार कृषि मौसम एकक सलाह हर राज्य में राज्य के मौसम केन्द्र से प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को आनेवाले पाँच दिनों के लिए जारी की जाती है। इसमें राज्य की भौगोलिक संरचना तथा बोई जाने वाली फसलों के लिए मौसमीय तत्वकृषि कॉलेजों की सहायता से बीज चयन बचाव के तरीकेकीटनाशकों का छिड़काव एक संयुक्त समाचार प्रसारण के जरिए किसानों को उन्नत कृषि से सीधे जोड़ने का प्रयास करती है।
इसमें मौसम विज्ञान विभाग की वेबसाइट राज्य के प्रसारण केन्द्र क्रमशः आकाशवाणी और दूरदर्शन केन्द्रसमाचार पत्र जिला तहसील स्तर के कृषि अधिकारीई-मेलएस.एम.एस. की सहायता से संदेश और सूचना प्रदान कर देश के किसान भाइयों को प्रौद्योगिकी उन्नत बनाने में सरकार की मदद करते हैं। साथ ही किसानों द्वारा मौसम विभाग की टोल फ्री सेवा 18001801717 पर पूरे समय उपलब्ध जानकारी का फोन द्वारा लाभ उठाया जाता है। कुल मिलाकर यह देखा गया है कि आज मानव जीवन में जो जगह कम्प्यूटर की है वही जगह कृषि क्षेत्र में किसानों के लिए कम्प्यूटर के प्रयोग ने बना ली है और उन्नत किसान ने कृषि क्षेत्र में भारत को सूचना क्रांति के साथ दुनियाभर में अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है जो कृषि क्षेत्र में सुखद भविष्य की ओर एक क़ामयाब क़दम है।  
प्रौद्योगिकी आधारित वित्तीय समावेशन के जरिए गांव का विकास  कृषि और उससे जुड़े व्वसाय देश की महत्ता और ज़रूरत को ही देखते हुए सरकार ने ग्रामीण भारत को सुदृढ़ करने के लिए वित्तीय समायोजन यानी फिनान्सियल इन्क्लूज़न योजना बनाई है। इस योजना के तहत गांव के हर घर में कम-से-कम एक व्यक्ति का बचत खाता बैंक में ज़रूर हो। साल 2008 से लागू हुए भारत सरकार के अहम योजना को साकार करने के दायित्व को सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक बखूबी अंजाम दे रहे हैं। इस योजना के प्रथम चरण में सभी बैंकों को 73,000 गांवों के नागरिकों तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गई है। इस योजना के तहत गांवों तक पहुंचने के लिए बैंकों को ब्रान्च खोलने की ज़रूरत नहीं है। एक महंगी ग्रामीण शाखा की स्थापना करने के बजाय कोई बैंक किसी ग्रामीण क्षेत्र में सिर्फ अपने एक 'बैंकिंग संवाददाता' को नियुक्त करता है। वह बैंकिंग संवाददाता कोई भी हो सकता है।उदाहरण के लिए आप किसी किराना स्टोर के मालिक को ही ले लीजिए जिसे किसी बैंक ने एक बैंकिंग संवाददाता के रूप में नियुक्त किया है। वह बैंकिंग संवाददाता 20,000 रुपये की लागत वाले 'नियर फील्ड कम्युनिकेशंस' फोन, एक स्कैनर, एक थर्मल प्रिंटर की मदद से ग्राहकों को बैंक संबंधी सूचनाओं का विवरण मुहैया कराता है। उस फोन में वायरलेस कनेक्शन होता है जो वास्तव में बैंक के सर्वर से जुड़ा होता है। इसके जरिए ग्राहकों से जुड़े सभी विवरणों को भेजा जाता है। लिहाजा, किसी ग्रामीण शाखा की स्थापना में 3 से 4 लाख रुपये या उससे ज्यादा खर्च करने के बजाय बैंक महज 20,000 रुपये की नाममात्र की राशि पर ही वित्तीय समावेशन के काम को अंजाम दे रहे हैं। तुलानात्मक रूप से बड़ी आबादी वाले गांवों के लिए एटीएम जैसी मशीनों (कियॉस्क) का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसके लिए गांव के पढ़े-लिखे लोगों भी मदद कर रहे हैं। इस तरह हर गांव के सभी परिवारों को बैंक के जरिए जोड़ा जा रहा है।
बढ़ती जागरूकता और भागीदारी   सूचना क्रांति के इस दौर में सूचनाएं और ख़बरें तेज़ी से एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंच रही हैं और तकनीकी विकास ने ये मिथक भी तोड़ दिया है कि जो पढ़े-लिखे हैं जानकारी उनतक ही पहुंचेगी। रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से एक अनपढ़ व्यक्ति भी जानकारी हासिल कर पाने में कामयाब है। मोबाइल फोन के बढ़ते इस्तेमाल ने तो सूचना के आदान-प्रदान को निहायत ही आसान कर दिया है। छोटी-मोटी हर ज़रूरतों के लिए अपनाए जा रहे पारंपरिक तरीके ख़त्म होने लगे हैं। फिर चाहे ट्रेन में टिकट बुकिंग की बात हो या बैंक से पैसे निकालना  या जमा कराना। हर कुछ इंटरनेट और मोबाइल फोन के ज़रिए पहले से कहीं आसान तरीके से मुमक़िन है।
 तकनीकी उन्नयन और उपलब्धता के नुक़सान
तकनीक के ज़रिए बढ़ता अपराध – तकनीक के विकास का जितना फ़ायदा आम आदमी को हुआ है, उससे कहीं ज़्यादा फ़ायदा अपराधी उठा रहे हैं। ख़ास तौर पर इंटरनेट के ज़रिए होने वाले अपराधों की तादाद में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है। भोले-भाले लोगों को करोड़ों का ख़्वाब दिखा कर उनके एकाउंट से रक़म उड़ालेने की ख़बर हर दिन अख़बार में देखने को मिलते हैं। इंटरनेट और मोबाइल फोन के इस्तेमाल करने वाले हर शख़्स को इस तरह के मेल या कॉल आते हैं। इतना ही नहीं हैकिंग के ज़रिए बढ़ते अपराध का निशाना आम आदमी ही ज़्यादा हो रहे हैं। ये बात और है कि तकनीकी दक्षता में कमी के साथ-साथ सतर्कता में कमी और लालच इस तरह के शिकार लोगों की असली वजह है। बढ़ता आलस – हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने सर्वेक्षण में पाया कि पहले की तुलना में इंसानों की कर्मठता में कमी आई है। और संस्था ने इसके लिए ज़िम्मेदार तत्वों की पहचान भी की है जिनमें सबसे अहम बताया गया है प्रौद्योगिकी में हुए उन्नयन को। जी हां, ये बात सौ फीसदी सही है कि प्रौद्योगिकी में आई गुणात्मक सुधार ने हमारे मेहनत करने के जज़्बे पर ख़ासा असर डाला है। हमारी क्षमता-दक्षता भी इससे प्रभावित हुई है। इतना ही नहीं हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में लगातार हो रही गिरावट की भी एक वज़ह यही है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि प्रौद्योगिकी का फ़ायदा हम अपने आप की शर्त पर ही उठा रहे हैं। कमज़ोर होती पीढ़ी – कैलकुलेटर, कंप्यूटर, इंटरनेट, आई-पैड, मोबाईल फोन, इन तमाम चीजों ने निःसंदेह पूरी दुनिया को एक गांव में बदल कर रख दिया है। लेकिन सूचना क्रान्ति के इन तमाम अवयवों पर हमारी नई पीढ़ी ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर होती जा रही है। नतीज़तन उनकी लिखने-पढ़ने की आदत कम से कमतर होती जा रही है साथ ही साधारण जोड़-घटाव करने में भी वो ख़ुद को असहज पा रहे हैं। मोबाइल फोन और आई-पैड की टच स्क्रीन सुविधा ने तो हाथ कि लिखावट तक बुरी तरह प्रभावित किया है। वहीं इंटरनेट से बढ़ती नज़दीकी ने युवाओं को कमरे में बंद होने को मजबूर कर दिया है। नतीज़तन उनका स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग – रेफ्रिजरेटर, एयर-कंडीशनर, कूलिंग प्लांट, थर्मल पॉवर प्लांट, न्यूक्लियर पॉवर प्लांट इन तकनीकी शब्दों को पढ़ने में जितनी तकलीफ़ हमारी जीभ को होती है, उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़देह है इनकी मौज़ूदगी। ऊपर बताए गए तमाम नाम धरती के वातावरण को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुंचा रहे हैं। जिसका सीधा असर हम पर पड़ रहा है या आनेवाले दिनों में पड़ेगा फिर चाहे बड़े-बड़े ग्लेशियर का पिघलना हो या ओजोन परत में छिद्र का बढ़ता जाना इन सबकी वज़ह सिर्फ और सिर्फ एक है, वो है ग्लोबल वार्मिंग।  रेडिएशन और इलेक्ट्रॉनिक कचरा – माइक्रोवेव ओवन में रेडिएशन के ज़रिए खाना पकाया जाता है। निःसंदेह समय की बचत तो होती है, लेकिन स्वास्थ्य के लिहाज़ से खाना कितना बेहतर होता है इसकी पड़ताल शायद ही कोई करता है। ठीक इसी तरह मोबाइल फोन से निकलने वाले ध्वनि और दूसरी तरंगे स्वास्थ्य को कितना प्रभावित कर रही हैं बग़ैर इस बात की परवाह किए मोबाइल फोन को इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी तरह पारंपरिक टंग्सटन बल्ब की जगह सीएफएल ने ले ली है और अब एलईडी, सीएफएल की जगह ले रहा है। फ्यूज़ होने के बाद सीएफएल का क्या होगा? ये न तो इसका इस्तेमाल करनेवाले जानते हैं, न इसे बनानेवाले। कमोबेश यही हाल तमाम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का है। हर क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे तकनीकी विकास की वजह से इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या विकराल होती जा रही है। जिसका सबसे ज़्यादा नुक़सान वातावरण को हो रहा है। वजह है, ख़राब हो रहे तमाम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का सही निष्पादन न हो पाना।
निष्कर्ष तकनीक की मदद से भोजन की उपज और उपलब्धता तो ज़रूर बढ़ी लेकिन खाद्य भंडारण व सुरक्षा और पीने का पानी समस्या बन चुकी है। शिक्षा की क्षेत्र में तरक्की ज़रूर हुई लेकिन, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हम पिछड़ते जा रहे हैं। यातायात की सुविधा के लिए मेट्रो रेल जैसी उत्कृष्ठ सेवा हासिल होने के बावजूद घंटों सड़क जाम में फंसे रहने का दंश आम आदमी ही झेलने को मजबूर है। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी पर भले ही जीत मिल गई हो लेकिन, बर्ड-फ्लू, हेपाटाइटिस, डेंगी जैसी बीमारियां स्वास्थ्य सेवा के लिए चुनौती पेश कर रही हैं। मनोरंजन के साधन बढ़े ज़रूर लेकिन नैतिकता की शर्त पर । इतना ही नहीं सुरक्षा के क्षेत्र में तकनीकी विकास के बावजूद घर-बाहर हर कहीं, हर वक़्त आम आदमी ख़ुद को असुरक्षित महूसस करता है।
असुरक्षा की ये भावना आम आदमी के मन में गहरे पैठ चुकी है। फिर चाहे दायरा छोटा हो या बड़ा यानी बात गांव-मोहल्ले-क़स्बे-शहर के स्तर की  हो या राज्य के स्तर की या फिर देश के स्तर की ही क्यों न हो?  तकनीकी विकास की वजह से आम आदमी जितना खुशहाल हुआ है उतना ही असुरक्षित भी। लिहाजा अब तक हुए तकनीक के विकास को एक अहम पड़ाव हासिल करना बाक़ी है। वो अहम पड़ाव है, तकनीकी तौर पर पूर्ण रूप से सुरक्षित समाज की। अब देखना होगा कि तकनीक के विकास के उस दहलीज पर हम कब पहुंचते हैं और पहुंचते हैं भी या नहीं?
निःसंदेह प्रौद्योगिकी ने आम आदमी के जीवन को एक ओर, पहले की तुलना में जहां ज़्यादा आरामदेह और सुविधाजनक बना दिया है, तो वहीं, ज़िन्दगी के लिए ज़रूरतों के मायने बदल दिए हैं। अब देखना रोचक होगा कि दिनों-दिन विकसित होते प्रौद्योगिकी आनेवाले दिनों में किस हद तक आम आदमी के रहन-सहन और संस्कृति में बदलाव लाता है। और इससे कहीं ज़्यादा रोचक ये देखना होगा कि तकनीकी तौर पर समृद्ध होते भारतीय मानसिक तौर पर कितने परिपक्व और स्वस्थ्य होकर उभरते हैं।