हालिया आई एक फिल्म का नायक, दौलतमंद पिता की
इकलौती औलाद है और पेशे से गायक है। उसके पास दुनिया में मौज़ूद हर वो सुख-सुविधा
है जिसकी चाहत किसी को हो सकती है। लेकिन वो दौलत-शोहरत, चमक-दमक से ऊब चुका है।
ये ऊब, खाए-पिए-अघाए हुए दौलतमंद शख़्स की ऊब है, जिसे ज़िन्दगी से कुछ नहीं चाहिए।
फिल्म देखते वक़्त बार-बार ये ख़्याल आता रहा कि क्या इस तरह की सोच भी किसी की हो
सकती है? क्या ऐसा भी कोई हो सकता है, जिसे
ज़िन्दगी से कुछ नहीं चाहिए? लेकिन
अभी-अभी ख़त्म हुए आईपीएल ने फिल्मी नायक के उस सोच को सही क़रार दिया।एक, दो, नहीं कई-कई ऐसी शख़्सियतें सामने आईं,
जिनके बारे में देश के ज़्यादातर लोग कुछ भी नहीं जानते थे या कम जानते थे या फिर
कुछ और जानते थे। लेकिन हैरान करने वाली बात तो ये है कि ये तमाम शख़्सयितें
खाए-पिए-अघाए लोगों की उसी क़ौम से ताल्लुक़ रखते हैं जिन्हें ज़िन्दगी से यक़ीनन कुछ
नहीं चाहिए और जिन्हें अपनी, अपने परिवार और अपने विरासत की भी कोई फ़िक्र नहीं।
जिनके लिए गाली और तारीफ़ का मतलब एक है, जिन्हें इज्ज़त और बेइज्ज़ती में कोई
फ़र्क नज़र नहीं आता। मेरे इस दावे के पीछे पुख़्ता वज़ूहात हैं।
सबसे पहले तो ये कि जितने लोग भी इस गोरखधंधे में
शामिल रहे उनके पास दौलत और शोहरत कमाने के तमाम रास्ते थे जिनके ज़रिए बेशुमार
दौलत-शोहरत बटोरी जा सकती थी। लेकिन फिर भी सिर्फ एक सनक को पूरी करने के लिए या
फिर ख़ुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए इन लोगों ने जो कुछ भी किया उससे पूरे देश
का ही नहीं बल्कि उस खेल का, खेल-प्रेमियों का और उनके परिवार की इज्ज़त मिट्टी-पलीद
हुई।सबसे पहले देश के नामी रेसलर स्वर्गीय दारा सिंहजी
के पुत्र बिन्दु की बात कीजिए। उसके पास रहने को आलीशान घर, पिता का दिया हुआ बैंक
बैलेंस, पूर्वज़ों की ज़मीन-ज़ायदाद और फिल्म इंडस्ट्री में बग़ैर संघर्ष काम सब
कुछ था (है?)। लेकिन न जाने कौन सी हवस कलेजे में समाई
हुई थी कि आईपीएल में सट्टा लगाने के साथ स्पॉट फिक्सिंग, मैच फिक्सिंग और
खिलाड़ियों को लड़कियां सप्लाई तक करने लगा। पहलवान का बेटा दलाल सुनने में कितना
अज़ीब लगता है न? लेकिन हक़ीक़त को झुठलाया नहीं जा सकता। कई
बार ख़ुद से पूछता हूं क्या पैसा इस क़दर इंसान को पागल कर सकता है? क्या सिर्फ ख़बर में बने रहने के लिए आदमी
कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो सकता है?
इंडिया सीमेंट लिमिटेड के मालिक और बीसीसीआई चीफ
एन श्रीनिवासन के दामाम गुरूनाथ मयप्पन के पास क्या नहीं था लंबा-चौड़ा कारोबार,
आईपीएल में सबसे दमदार टीम की मिलकियत और कॉरपोरेट वर्ल्ड की बैकिंग। एक कारोबारी
के लिए इससे ज़्यादा क्या चाहिए होता है। लेकिन नहीं, हर चीज़ को दांव पर लगा कर डी-कंपनी की
तर्ज़ पर धंधा करने में लग गए।श्रीसंथ, अजीत चंदीला और अंकीत चव्हाण देश के
मिडल क्लास के नुमाइंदे थे। क्रिकेट के ज़रिए इन्होंने ख़ुद के लिए एक मुक़ाम
हासिल की। इसमें भी कोई शक नहीं कि इनलोगों ने मेहनत की तब जाकर इनका सेलेक्शन
हुआ। लेकिन अपनी जगह बनाए रखने के लिए ज़रूरी एहतियात इन्होंने नहीं बरते और अंततः
डी-कंपनी के मामूली गुर्गे बनकर रह गए।ये तो चंद नाम भर हैं, पूरी लिस्ट में तो न जाने
कितने ऐसे फिल्मी नायक होंगे जिन्हें ज़िन्दगी में कुछ नहीं चाहिए... कुछ नहीं ।
बस एक सनक .. एक पागलपन को पूरा करने की ज़िद पाले चले जा रहे थे... बग़ैर अंजाम
की परवाह किए... अरे मूरख फिल्म ही देख ली होती... कम-से-कम ख़ुदकुशी तो
नहीं करनी पड़ती ना... अब तो इसके सिवा कोई रास्ता भी नहीं ;)
No comments:
Post a Comment