Saturday, October 30, 2010

नीतीश और मीडिया



तो नीतीश जी चुनाव जीत ही जाएंगे. बिहार में अगली सरकार फिर से उनकी ही बनेगी. जब हर कोई यही मान रहा है तो हमें भी मान ही लेना चाहिए. आखिर उन्होंने पिछले पांच सालों में काम किया है, बिहार का विकास किया है, सड़कें चमचमा रही हैं, ऑफिसों में कर्मचारी पहुंच रहे हैं तो सरकार तो उनकी बननी ही चाहिए. लेकिन ये इन मीडियावालों को क्या हो गया है. कल तक हर कोई नीतीश को तानाशाह, अक्खड़, अड़ियल, घमंडी, जाने क्या-क्या कह रहा था. फिर चुनाव आते ही सब उनका गुणगान कैसे करने लगे. अखबार वाले हों या टीवी चैनल वाले, चुनाव की घोषणा होने के बाद से ही जैसे उनकी सरकार बनाने पर तुले हैं. उन्हें बिहार का विकास पुरुष घोषित करने की जैसे होड़ लगी है. लेकिन ये आखिर हुआ कैसे? क्या मीडिया को यह नहीं दिख रहा कि विकास दर 11 प्रतिशत से ज्यादा भले हो, लेकिन कृषि की विकास दर केवल 1 फीसदी के आसपास ही है. नए उद्योग लगे नहीं हैं और पुरानी चीनी मिलें अभी भी बंद हैं. उसे यह नहीं सूझ रहा कि सीमांचल के लोग अभी भी हर साल कोसी की बाढ में बहते हैं. सड़कें बनी जरूर हैं, लेकिन केवल 17 प्रतिशत. लालू राज के मुकाबले कानून-व्यवस्था की हालत सुधरी जरूर है, लेकिन माओवाद का बढता प्रकोप धीरे-धीरे पूरे सूबे को अपनी आगोश में लेता जा रहा है. दरअसल, मामला विकास का ही नहीं है. जरा बिहार के अखबारों पर नजर डालिए. तकरीबन हर दिन किसी न किसी अखबार में पूरे पन्ने पर नीतीश के मुस्कराते चेहरे के साथ उनकी सरकार का विज्ञापन छपा होता है, साथ में वोट की अपील भी होती है. तो फिर मीडिया उनका गुणगान क्यों न करे. अब राज्य का विकास हो या नहीं, लेकिन मीडिया वालों का विकास तो हो ही रहा है.

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