Friday, February 19, 2016

चिन्तन – आत्महत्या (02)

आईआईटी कानपुर उमंग नाम से यूथ फेस्टिवल का आयोजन हर साल करता है. कॉलेज के दिनों में फिल्म एवं डाक्युमेंट्री मेकिंग कैटेगरी के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की टीम में इन पंक्तियों के लेखक को भी शामिल होने का सौभाग्य मिला. साल 2007 में हुए इस कॉम्पेटिशन में तक़रीबन पचास से ज़्यादा टीमों ने हिस्सा लिया, जिनमें से लगभग चालीस टीमों ने सुसाइड पर अपनी फिल्म या डाक्युमेंट्री बनाई थी. नतीजा चाहे जो रहा, लेकिन इतनी बड़ी तादाद में एक ही विषय पर बनी फिल्मों ने चौंकाया ज़रूर. आपको जानकर हैरानी होगी कि आईआईटी जैसे संस्थानों में पढ़नेवाले मेधावी छात्रों में आत्महत्या की प्रवृति सबसे ज़्यादा हावी है.
जिस तरह का दबाव वर्दीधारी सैनिक और सिपाही अपने काम को लेकर महसूस करते हैं कमोबेश वैसा ही दबाव पढ़ाई और करियर को लेकर हमारे छात्र-छात्राओं के ऊपर होता है. स्कूल के दिनों में नंबर बेहतर लाने का दबाव. पढ़ाई के साथ-साथ खेल-कूद और एक्स्ट्रा कर्रिकुलर एक्टिविटी में अच्छा-बेहतर करने का दबाव. नंबर बेहतर ला दिया और बढ़िया परफॉर्म भी कर दिया, उसके बाद अपनी पोजीशन को बनाए रखने का दबाव. हर तरह के मनवांछित नतीजे देने के बाद, आख़िर में बेहतर करियर यानी हाथ में एक बेहतर नौकरी होने का दबाव. मतलब एक अप्राकृतिक दबाव चौबीसो घंटे, आठो पहर, सालो-साल युवा मस्तिष्क पर बना ही रहता है.
युवाओं में आत्महंता की प्रवृति कैसे कम हो?  कैसे जिन्दा रखी जाए उनकी जीजीविषा? उनका उत्साह बनाए रखने के लिए कौन-सा तरीक़ा इज़ाद किया जाए?  ये यक्ष प्रश्न है. कुछ रास्ते हैं जो कि बेहद जाने-पहचाने हैं. हर कोई उन्हें जानता है लेकिन कोई भी शत-प्रतिशत उनका पालन नहीं करता. मसलन बच्चों में स्पोर्ट्समैनशिप डिवेलप करवाना उसके लड़ने की क्षमता को तो बढ़ाएगा ही है साथ ही ज़िन्दगी में हार-जीत को सकारात्मकता से लेने का सलीका भी सिखाएगा. पिछले कुछ दशक में क़िताबों के बोझ ने बच्चों को खेल से दूर कर दिया है. इसी तरह पढ़ाई के अलावा दूसरे तमाम विषयों जैसे संगीत, नृत्य, नाटक, पेंटिंग, फोटोग्राफी, इत्यादि क्षेत्रों में भी उनकी रूचि को बढ़ावा देने से उनमें जीवन के प्रति सकारात्मकता बढ़ेगी.
ऊपर उल्लेखित तमाम उपायों का कोई मतलब नहीं होगा अगर बच्चों के साथ उनके माता-पिता का व्यवहार दोस्ताना नहीं हो. बच्चे ख़ासकर युवा होते किशोर युवक-युवतियों को रोमांच में मज़ा आता है. इस रोमांच की वज़ह से वे झूठ बोलने से लेकर नशा करने की लत के शिकार हो जाते हैं. बाद में नशाखोरी उन्हें डिप्रेशन की ओर ले जाती है और अंततः उन्हें आत्महंता बना देती है. युवाओं में आत्महत्या या ख़ुदकुशी रोकने का सबसे बेहतरीन रास्ता है कि माता-पिता उनके दोस्त बनकर रहें. उनसे हर सुख-दुःख की बातें शेयर करें. उनकी मनःस्थिति को जानने-समझने की कोशिश करने के साथ एक अभिभावक की चौकन्नी नज़र भी उनपर हमेशा बनाए रखें. रिश्ता मज़बूत हो लेकिन किसी भी क्षण में बोझिल न बने. इस तरह के दोस्ताना माहौल में पले-बढ़े बच्चे मानसिक रूप से बेहद सुदृढ़ होते हैं. किसी भी हार या निराशा की वज़ह से नकारात्मकता उनपर हावी नहीं होती.

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