Tuesday, February 16, 2016

चिन्तन – ‘ध्वनि प्रदूषण ‘

हमारी सबसे बड़ी ताक़त (या कमी?) है कि हम हमेशा तात्कालिक चीज़ों का ख़्याल रखते हैं. तात्कालिक से मेरा तात्पर्य उन चीज़ों से है जिनका हमें फ़ायदा तुरंत मिले या फिर तात्कालिक हल उन चीज़ों के ढूंढ़ते हैं जिनसे हमें नुक़सान होना शुरू हो चुका हो. ऐसी ही एक समस्या है प्रदूषण. प्रदूषण कहने के साथ ही सामान्य तौर पर हम सब गंदगी ख़ास तौर अपने आस-पास फैले प्रदूषण मसलन जल और वायु प्रदूषण ही समझते हैं. वज़ह है कि इन प्रदूषणों से हमें नुक़सान होना शुरू हो चुका है. लेकिन इन सबसे कई गुणा घातक प्रदूषण है - ध्वनि प्रदूषण. और इसके लिए हम जब तक जागेंगे तब तक हमारी अगली पीढियों पर असर शुरू हो चुका होगा.
जिस तरीक़े से बढ़ती आबादी के साथ ध्वनि प्रदूषण बढ़ रही है, वो दिन दूर नहीं जब बहरापन एक महामारी की शक़्ल अख़्तियार कर लेगा. जिस बे-परवाही से हम इस अहम प्रदूषण के नुक़सान का आकलन नहीं कर पा रहे हैं उसका ख़ामियाज़ा हमें आनेवाले दिनों में उठाने के लिए तैयार रहना होगा. हम और हमारी चुनी सरकारें कितनी अदूरदर्शी हो चुके हैं. हमें वाहन से निकलता धुआं तो दिखता है, लेकिन उसके हॉर्न और इंजन से निकलने वाला शोर नहीं सुनाई दे रहा है. हमने कहने को इन कल-कारखाने के ज़रिए निकलने वाले कचरे और धुएं पर चिन्ता करना शुरू कर दिया है, लेकिन इन कल-कारखानों से होने वाले शोर को कम करने की सोच नहीं पैदा हो रही है.
यहां सबसे अहम ये कि सिर्फ ज्ञात स्रोतों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण ही क्यों हर तरह के ध्वनि प्रदूषण को कम करने की कोशिश होनी चाहिए, लेकिन अफ़सोस हम रोज़मर्रा के कामों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग करने लगे हैं. मंदिर-मस्ज़िद-गिरजा-गुरूद्वारे, शादी-समारोह, पर्व-त्योहार, सभा-जलसा, धरने-प्रदर्शन की कौन कहे, अब तो स्कूल-कॉलेजों में माइक/लाउड स्पीकर के बग़ैर कोई काम नहीं होता. दिल्ली में जितने भी सरकारी स्कूल हैं, वहां बेहतर या अच्छी पढ़ाई भले न होती हो, लेकिन सुबह होने वाली असेंबली में प्रार्थना और राष्ट्रगान ध्वनि विस्तारक यंत्र के ज़रिए ही गवाई जाती है। ताकि, सरकार के साथ-साथ आम लोगों को भी पता चले कि सरकारी टीचर काम कर रहे हैं. क्या मज़ाक है?  कितना अच्छा होता यदि आडम्बरों की जगह ये सरकारी शिक्षक पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारने की कोशिश करते. लेकिन नहीं इन शिक्षकों को भी पता है कि ये शिक्षक बाद में पहले वोटबैंक हैं. और काम दिखाने का सबसे बेहतर साधन है माइक/लाउड स्पीकर.
ध्वनि अपरिहार्य है, लेकिन कृपया शोर को अपरिहार्य मत बनने दीजिए. ट्रेन-हवाई जहाज के शोर भले ही शहर से दूर होते हों, लेकिन वो दिन दूर नहीं जब हर शहर में ध्वनि संतृप्तता बढ़ जाएगी, उसके बाद तो हर तरह की आवाज़ शोर साबित होने लगेगी. इससे पहले कि हर तरह की आवाज़ हमें शोर लगने लगे, हम जग जाएं, हमारी सरकारें जग जाएं. एक ठोस क़दम ध्वनि प्रदूषण कम करने के लिए भी बढाई जाए. इसकी शुरूआत तमाम शिक्षण संस्थानों से की जाए. उर्जा से भरपूर बच्चे और किशोर बिना लाउड स्पीकर के भी बेहतर प्रार्थना और राष्ट्रगान गा सकते हैं और हर दिन की एक अच्छी शुरूआत कर सकते हैं. देश की राजधानी दिल्ली इसका उदाहरण बने, इससे बेहतर बात भला और क्या होगी?

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