Wednesday, December 1, 2010

हमको लिख्यो है कहा ...


(भारत-ओबामा संबंध की पड़ताल कर रहे हैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉक्टर प्रेम सिंह. डॉक्ट सिंह समाजवादी जन परिषद से जुडे है और सामाजिक मुद्दों पर उनकी बेलाग टिप्पणी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं औरअखबारों में छपती रहती है. चाय दुकान पर इस लेख को प्रकाशित करने की अनुमति देनेके लिए प्रेम सर को बहुत-बहुत धन्यवाद. चाय दुकान पर उनके विचार से हम लगातार अवगत होते रहेंगे.)

जगन्नाथदास रत्नाकर की रचना उद्धव शतक में उद्धव कृष्ण की पाती लेकर गोकुल में आते हैं तो कृष्ण के विरह में तड़पती गोपियों उन्हें घेर लेती हैं। सभी एक साथ जानना चाहती हैं कि उद्धव उनके लिए मथुरा से क्या संदेश लेकर आए हैं। गोपियों की उत्कंठा की एक बानगी देखिए. उझकि उझकि पद कंजन के पंजन पै, पेखि पेखि पाती छाती छोहन छबै लगी। हमको लिख्यो है कहा हमको लिख्यो है कहा, हमको लिख्यो है कहा कहन सबै लगी। एशिया के दौरे पर निकले ओबामा के पहले भारत आने के समाचार से शासक वर्ग उद्धव की गोपियों से भी ज्यादा बेहाल हो उठा। आखिर, दूत नहीं, साक्षात कृष्ण चले आए! चारों तरफ ओबामा-ओबामा की पुकार मच गई। सभी पूछने लगे, ओबामा की झोली में हमारे लिए क्या है, हमारे लिए क्या है?

जनता की नजर से यह सच्चाई छिपा ली गई कि ओबामा झोली भरने आए हैं। यह सच्चाई केवल इसलिए नहीं छिपाई गई कि ओबामा जो झोली भर कर जाएंगे उसमें से यहां के शासक वर्ग को हिस्सा-पत्ती लेना है, बल्कि इसलिए भी कि जनता को यह न पता चल जाए कि अपने देश के नागरिकों को मंदी और बेरोजगारी से उबारने के लिए वहां का राष्ट्रपति किस कदर दुनिया में भागा घूम रहा है। अगर उसने नागरिकों की समस्याएं दूर नहीं की तो सत्ता से उसका पत्ता साफ हो जाएगा।

पुराने जमानों में किसी चक्रवर्ती राजा की ऐसी धक और ध्वज नहीं होती होगी जैसी अमेरिका के राष्ट्रपति की होती है। ओबामा की कुछ ज्यादा ही रही। अमेरिका में उनकी यात्राा पर खर्च को लेकर विवाद उठ गया। यह आरोप लगा कि ओबामा की यात्रा पर 200 मिलियन डॉलर का भारी-भरकम खर्च किया गया है। व्हाइट हाउस ने इस आंकड़े को अशियोक्तिपूर्ण बताया। जो भी हो, दुनिया का धन-संसाधन खींचना है और रौब-दाब कायम रखना है तो काफिला भारी-भरकम और शानो-शौकत वाला होना चाहिए। ओबामा की खूबी यह रही कि इस सबके साथ गांधी-प्रशंसा का राग भी निभा ले गए।

भारत का शासक वर्ग ओबामा के प्रति संपूर्ण समर्पित हो गया। जो मंत्राी-मुख्यमंत्राी नागरिक जीवन में शासन का आतंक फैलाते हुए नागरिक जीवन को रौंदते चले जाते हैं, उन्हें समर्पण से पूर्व ओबामा के अमलों को अपना पहचान-पत्रा दिखाना पड़ा। कमी बस पाकिस्तान को खरी-खोटी नहीं सुनाने की महसूस की गई। वह ओबामा ने सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट दिए जाने की वकालत करके पूरी कर दी। सारा शासक वर्ग जैसे नशे में झूमने लगा। हालांकि विकीलीक्स के खुलासे से पता चला कि अमेरिका की विदेश सचिव हिलेरी क्लिटंन कहती हैं कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पाने का स्वनियुक्त दाावेदार है। बहरहाल, इस बार सांसदों ने ओबामा से हाथ मिलाने के लिए बिल क्लिटंन के वक्त जैसी आपा-धापी नहीं मचाई। इसमें शायद रंग का कुछ भेद रहा हो!

पूरे सत्ता प्रतिष्ठान ने एकमुश्त एक संदेश दिया : जो करेगा अमेरिका करेगा। और अमेरिका सब भला करेगा। अमेरिका हमेशा भला करता है। किसी को अमेरिका का किया कहीं कुछ बुरा लगता है तो उसे जानना चाहिए कि वह बुरा भले के लिए ही होता है। भारत का भला न जाने कब का हो जाता, अगर वह रूस के चक्कर में नहीं पड़ता। कोई बात नहीं। अमेरिका बड़ा कृपानिधान है। देर से आने का बुरा नहीं मानता। परिस्थितियां पूरी तरह पक चुकी हैं। भला भी पूरा होगा।

इस परिदृश्य का समाजशास्त्रीय विवेचन करें तो कह सकते हैं कि शासक वर्ग में जो अगड़ा सवर्ण है वह पूरा गुलाम बन चुका है और शूद्र पूरा पिछलग्गू। दलित दोनों को पीछे छोड़ने की दौड़ लगा रहा है। ऐसे माहौल में नवउदारवादी संपादक-पत्राकार, बुद्धिजीवी, कलाकार,खिलाड़ी कोई पीछे नहीं रहना चाहते। अमेरिका का नाम आते ही नवउदारवादी पत्राकार पूरे रंग में आ जाते हैं। यहां तो साक्षात अमेरिका आया हुआ था। इंडियन एक्सप्रैस ने ओबामा के गांधी-प्रेम को सबसे ज्यादा विज्ञापित किया। ऐसा नहीं है कि अखबार की टीम को गांधी से कोई प्रेम है। उसके एक लेखक भानुप्रताप मेहता दो साल पहले तीस जनवरी के अंक में लिख चुके हैं कि गांधी चुक चुका था, लिहाजा उनकी हत्या नहीं होती तो छिछालेदर होती। अखबार में ओबामा के गांधी-प्रेम का विज्ञापन समाजवाद की निंदा के लिए किया गया। अखबार का संपादक, जो एक ब्रोकर भी है, मुखपृष्ठ पर निकल आता है और बताता है, अमेरिका के साथ बराबर का सौदा हुआ है। गुलाम दिमाग बराबर हो जाता है! जो सौदे और दावतें हुईं, कोई कह सकता है यह उसी गांधी का देश है, ओबामा ने जिनके गुणगान की झड़ी लगाए रखी?हमें स्कूल के बच्चों के साथ ओबामा का वह वार्तालाप याद आ रहा था जिसमें ओबामा ने गांधी के साथ खाना खाने की इच्छा व्यक्त की थी। का चुनाव बताने के बाद उन्होंने बच्चों से हंस कर कहा, भोजन सचमुच में थोड़ा-सा होगा, वे ढेर सारा नहीं खाते थे। कोई कह सकता है इस देश के संविधन की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द लिखा हुआ है और सरकारों के लिए कुछ नीति-निर्देशक तत्व हैं? सौदों, दावतों और मौजमस्ती को देख कर कोई कह सकता है इस देश की अस्सी प्रतिशत गरीब जनता बीस रुपया रोज पर गुजारा करती है? लोकतंत्रा का गुणगान और उस पर विमर्श करने वाले नहीं पूछते तो गरीब क्या पूछ पाएगा कि यह कौन-सी नीति है और कैसा लोकतंत्र ? लेकिन वे तो ज्यादातर विमर्श-विनोद में मगन हैं

Monday, November 29, 2010

ये कैसा देशबंधु है?


मेरा एक दोस्त देशबंधु नाम के अखबार में काम कर रहा है. सब एडिटर है. उसने मुझे बताया कि वो पिछले दो महीने से अपने रूम पर नहीं जा रहा है. वजह, मकान मालिक किराये के लिए पूछता है. और मेरे पास फूटी कौडी नहीं है. उसने बताया कि उसे पिछले 4 महीने से वेतन नहीं मिल रहा है.

दिल्ली एनसीआर से पिछले 2008 से निकलने वाले अखबार देशबंधु कई बार मीडिया की सुर्खियों में रहा. अपने गुणवत्ता की वजह से नहीं. अपने कर्मचारियों को पिछले चार महीनों से वेतन नहीं देने की वजह से. उक्त अखबार के एक कर्मचारी ने अपने नाम न छापने की शर्त पर चाय दुकान को बताया कि पिछले 2 महीने से अपने घर पर नहीं गया है. (दिल्ली में अपने कमरे पर) कभी किसी दोस्त के घर में तो कभी अपने परिचितों के पास रुका हुआ है. यह कहां का न्याय है? आप कर्मचारियों से अच्छा काम और आउटपुट की उम्मीद कर रहे हैं तो उनकी आधारभूत जरूरतों को भी पूरा करना जरूरी है. हद तो तब हुआ जब एक कर्मचारी की मां ने अखबार के मालिक को फोन कर डांट दिया. मगर अबखार का मालिक एक अनजान आदमी की तरह बैठा हुआ है. मीडिया में इतना भयंकर शोषण बाहरी लोगों को क्या पता. लोग मीडिया को इतना ग्लेमर की नजर से देखते हैं. युवा पीढी को तो मीडिया में नौकरी करने का क्रेज है. देशबंधु के एक कर्मचारी की बहन की शादी पर जाने के लिए पैसा मांगा तो कुछ महीनों के कुछ पैसे दिए गए. दो-तीन महीने का पैसा तो सबका लटका हुआ रहता है. इस अखबार के रायपुर हेडक्वार्टर में भी कई बार वेतन को लेकर कहासुनी हो चुकी हैं. इतना होने के बावजूद मालिक के उपर कोई असर नहीं हो रहा है. अखबार के संपादक खुद को इस शोषण से मुक्त करके निकल गए. बाकी लागों का क्या होगा, पता नहीं. वैसे अधिकतर कर्मचारी नौकरी छोडने का मन बना चुके है. इससे अच्छा तो अपने गांव वापस जाकर चाय की दुकान खोलना ज्यादा ठीक रहेगा.

Sunday, November 28, 2010

टाटा, टेप और भोपाल

रतन टाटा टेप मामले में सुप्रीम कोर्ट चले गए हैं. नीरा राडिया फोन-टैप लीक मामले में. अब तक देश की जनता इन्हें ईमानदार मानती रही है. लेकिन इनकी एक कहानी और भी है जिससे इनकी ईमानदारी, नियत पर शक होता है . हम भारतीयों की आदत है. पैसे वालों का लाख गुनाह हमें दिखता नहीं. और गुनहगार रतना टाटा जैसा आदमी हो तो बिल्कुल भी नहीं. टेप कांड में फंसे टाटा की एक और कहानी आप सुनिए. मीडिया में इसकी चर्चा जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हुई है. ये कहानी है टाटा के उन पत्रों की जो उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखे थे. भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े डाओ के मामले में. रतन टाटा आज से 4 साल पहले एक पत्र मनमोहन सिंह, तात्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को भेजते है. इस सुझाव के साथ कि भोपाल गैस कांड से प्रभावित स्थल के साफ-सफाई के लिए 100 करोड रूपयें का एक फंड या ट्रस्ट टाटा कंपनी और अन्य भारतीय उद्योगपति मिल-जुल कर तैयार कर सकते है. टाटा का तर्क था कि चूंकि डाओ केमिकल्स एक बहुत बडी कंपनी है और वह भारत में बहुत बडे पैमाने पर निवेश करना चाहती है इसलिए डाओ को 100 करोड रूपये जमा कराने की जवाबदेयता से मुक्त किया जाना चाहिए. गौरतलब है कि रतन टाटा के द्वारा उक्त पत्र लिखे जाने तक भी डाओ के 100 करोड रुपये देने का मामला अदालत में विचाराधीन था. अदालत में इस बात का तय होना बाकी था कि रुपया जमा कराने के लिए डाओ बाध्य है या नहीं. जाहिर है, रतन टाटा के इस प्रस्ताव के पीछे डाओ को 100 करोड रूपया जमा कराने की जवाबदेही से मुक्त कर देने की मंशा ही काम कर रही थी. ध्यान देने की बात है की जब रतन टाटा ने उक्त पत्र लिखे थे तब वो इंडो-यूएस सीईओ फोरम के को चेयर मैन भी थे. मतलब साफ़ है की वो यह काम कहीं न कहीं अमरीकी दबाव में भी कर रहे थे. टाटा के उक्त सुझाव के पीछे जो तर्क दिया है, उससे भी यह साबित होता है कि इन उद्योगपतियों के दिलो दिमाग पर पैसा किस कदर हावी है. जाहिर है, अभी का टेप कांड भी अपने-आप में कई कहानी को छुपाए हुए है जिसका सार्वजनिक होना नितांत आवश्यक है. ताकि मुखौटे पर मुखौटा चढ़ाए रतन टाटा जैसे लोगो की कहानी आम आदमी को पता लग सकें. उस आम आदमी को जो नैनो खरीद कर टाटा जैसो का बैंक बैलेंस बढाता है.

Friday, November 26, 2010

सुशील मोदी, मोतीहारी के वीरेंद्र सिन्हा से मिल लें



सुशील मोदी को पर्यावरण सुधारने की जिम्मेदारी दी गयी है. मोदी जी, आपका काम आसान हो सकता है. बशर्ते आप मोतीहारी के वीरेंद्र सिन्हा से एक बार मिल ले. मोतीहारी के बेलबनवा मोहल्ला के निवासी वीरेंद्र सिन्हा ने एक ऐसे प्रदूषण निरोधी यंत्र का आविष्कार किया है, जो जेनरेटर या किसी भी इंजन से नकलने वाले धुएं (कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड) और ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करता है. इस यंत्र को छोटे-बड़े सभी तरह के जेनरेटर सेट या धुआं उगलने वाली किसी भी इंजन सेट के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है.

बीआईटी मेसरा ने उनके इस अविष्कार की सघन जांच के बाद कहा है कि यह यंत्र इंजन से निकलने वाले कार्बन कण को अपने अंदर संग्रहित कर वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा को ब़ढाता है और ध्वनि प्रदूषण को 70 फीसदी तक कम कर देता है. इस यंत्र को छोटे-बड़े सभी तरह के जेनरेटर सेट या धुआं उगलने वाली किसी भी इंजन सेट के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है.

आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर पद्मश्री अनिल कुमार गुप्ता के अनुसार विरेंद्र कुमार सिन्हा का यह आविष्कार वायुमंडल को प्रदूषित होने से तो बचाता ही है, इस यंत्र में जमा कार्बन कणों का बाद में जूता पॉलिश बनाने, पेंट बनाने जैसे व्यवसायिक कार्यों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. नेशनल इनोवेशन फांउडेशन, गुजरात ने सिन्हा के इस आविष्कार का पेटेंट भी करवाया है. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आज़ाद ने सिन्हा के इस प्रयास की सराहना की है और वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने उन्हें पुरस्कार से नवाजा, लेकिन खुद उनके राज्य यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और स्थानीय प्रशासन की तऱफ से अब तक सिन्हा को न तो कोई सहायता मिली है और न ही सराहना. इसका एक प्रमाण यह है कि जब नेशनल इनोवेशन फांउडेशन ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस आविष्कार के बारे में सूचित किया और सिन्हा को सहायता देने की बात कही तो जवाब मिला कि सरकार के पास इस तरह की सहायता के लिए कोई प्रावधान नहीं है, जबकि मुख्यमंत्री यदि चाहे तो अपने कोष से ही मदद देकर सिन्हा के इस अविष्कार को कम से कम बिहार में प्रचारित-प्रसारित तो करवा ही सकते हैं, लेकिन बिहार की धरती ही कुछ ऐसी है, जहां की सरकार अपनी प्रतिभा को समय रहते पहचान पाने में अब तक नाकाम रही है.

सी पी ठाकुर अगले डिप्टी सीएम!


भाजपा के विधायक जो सवर्ण है. ठाकुर के स्वजातीय है. अच्छी संख्या में विधान सभा पहुच चुके है.
तो क्या अगले छह महीने या एक साल के भीतर सीपी ठाकुर अपने लिए डिप्टी सीएम का पद मांग सकते है? वैसे मुझे तो इस बात की संभावना दिखा रही है.
आपको दिख रही है क्या?

Thursday, November 25, 2010

फेसबुक चाटवाला

कमाल का आइि‍डया है भइयाजी. एक चाट दुकान जो कि‍स्‍मत बदल दे. हां जी. यह कौनू फोन का प्रचार-व्रचार नहीं एकदम सच्‍ची मुच्‍ची बात है. अबहीं हालही में तो हॉलीवुड का एक झकास सनीमा द सोशल नेटवर्क भारत मां रि‍लीज भवा है. फिल्म मा एक कॉलेज का स्टूडेंस अपनी गर्लफ्रेंड पर नजर राखें के खाति‍र और दोस्तन की जासूसी करन वास्‍ते एक सोशल नेटवर्क डेवलप करता है. बाद में यही बेवसाइट के जरिए वो कार्पोरेट वर्ल्ड की एक बड़ी लड़ाई में शामिल हो जाता है. खैर ये तो हुई फिरंगी बकैती, लेकिन आपको चाय दुकान का देसी स्वाद इस फिल्म में नहीं बल्कि फेसबुक चाटवाले की दुकान से मिली. इस हाइटेक इंडियन स्पाइसी ठेले में आपको इंटरनेट के सभी सोशल साइट के फ्लेवर मिलि‍हें. यकीन नहीं आवत तो खुद ही देख लो फुटुवा में.

अभी इसे नकल कहें या फिकरामस्ती, लेकिन आइडिया ससुरा जबरदस्त है. भगवान जाने, कब यह फेसबुक चाटवाला भारत का अगला अग्रवाल, बीकानेर या हल्दीराम बन जाए. फिलहाल तो यह अपने चाय जासूस के स्कैनर में है.

Tuesday, November 23, 2010

जीत मुबारक, लेकिन.....





नीतीश जी...यह जीत ऐतिहासिक है. बाकी राज्यों के लिए. हिंदुस्तान के लिए. क्योंकि जाति और धर्म की दीवार गिरी. लेकिन...एक दीवार अभी भी गिरनी बाकी है. यह दीवार बाधा है बिहार विकास के सम्पूर्ण विकास के रास्ते में. यह दीवार है अपराध की. अपराधियों की. बाहुबलियों की. जेडी (यूं) के ज्यादातर दागी उम्मीदवार(खुद बाहुबली या उनके रिश्तेदार) चुनाव जीत कर वापस आ रहे है. कानून-व्यवस्था के नाम पर मिले वोट की लाज रखा पाना नीतीश कुमार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. .बिहार के सम्पूर्ण विकास के लिए इन अपराधियों का सम्पूर्ण नाश करना होगा. जनता को आपसे उम्मीदे है. इसीलिए यह ऐतिहासिक जीत मिली है. और हां, याद रखियेगा, आपसे पहले जो शख्स यहां गद्धीनशीं था, उसे भी अपने खुदा होने का यकीं था.........एक बार फिर से मुबारकबाद.....

Monday, November 22, 2010

अब येदियुरप्पा की बारी....


येदियुरप्पा हटें या नहीं, कर्नाटक में भाजपा की सरकार जाए या बचे, लेकिन अच्छी बात यह है कि लंबे समय बाद सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्‌दा बन कर उभरा है. पिछले कुछ समय से ऐसा लगने लगा था जैसे भ्रष्टाचार को हम अपनी नियति मान चुके हैं. घोटालों और रिश्तखोरी की खबरें आती थीं और फिर गायब हो जाती थीं. लेकिन ताजा घटनाक्रमों ने यह बता दिया है कि यह मुद्‌दा अभी मरा नहीं है और आम लोग अभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने का दम रखते हैं.


पहले शशि थरूर, फिर अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाडी और इसके बाद ए राजा. क्या अगला नंबर कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा का है? लग तो यही रहा है कि जमीन घोटालों के आरोपों से घिरे येदियुरप्पा को भी जाना ही होगा. हालांकि, उन्होंने बगावती तेवर अपना लिए हैं और भाजपा उन्हें हटाने के मामले में किसी तरह की जल्दबाजी नहीं करना चाहती, लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी जिस तरह भ्रष्टाचार के मामलों पर केंद्र की यूपीए सरकार पर एक के बाद एक हमले कर रही है, येदियुरप्पा के सामने बचाव के रास्ते कम ही बचे हैं. भाजपा के साथ समस्या यह है कि उसके पास कर्नाटक में उनका कोई विकल्प नहीं है. मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में जिन नेताओं के नाम आ रहे हैं, वे या तो पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं या फिर उन्हें पार्टी विधायकों का समर्थन हासिल नहीं है. येदियुरप्पा यदि अपनी बात पर अड़े रहे तो भाजपा को दक्षिण भारतीय राज्यों में अपनी पहली सरकार की बलि भी देनी पड़ सकती है. पार्टी ऐसा होने नहीं देना चाहती और इसीलिए कोई भी फैसला लेने से पहले पूरी तरह संतुष्ट हो जाना चाहती है, लेकिन मौजूदा हालात में इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. यदि येदियुरप्पा नहीं हटे तो भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की मुहिम एक ढकोसला बन कर रह जाएगा.

Friday, November 19, 2010

गद्दी छोड़ो की राहुल बाबा आते है


अभी-अभी सोनिया जी का बयान आया है.."देश की अर्थव्यवस्था बढी....नैतिक मूल्य गिरे...देश में भ्रष्टाचार उफान पर है....सरकार को ज्यादा प्रभावी होने की जरूरत है".
मतलब.........सोचिये.........
मेरा मन इस बयान का अर्थ तो यही समझ रहा है की...........बस बहुत हुआ मनमोहन सिंह जी....गद्दी छोड़ो की राहुल बाबा आते है......इससे बेहतर मौका फिर मिले न मिले.....आपका मन क्या कहा रहा है....

Thursday, November 18, 2010

संपादक की सोच और इत्तेफाक


लेख की शुरुआत एक खबर से। पटना से दिल्ली आ रहा था। मगध एक्सप्रेस से। रास्ते में टाइम पास करने के लिए एक अखबार खरीद लिया। प्रभात खबर खरीदा। सोचा हरिवंशजी का कुछ बेहतरीन पढ़ने को मिलेगा। मैं निराश नहीं हुआ। जापान के बारे में उन्होंने लिखा था। लेख में बताया गया था कि किस तरह एक जीर्ण-शीर्ण सा देश विकसित बना। प्रभात खबर के संपादक हरिवंशजी ने जापानियों की जीवटता का बेहतरीन जिक्र किया। एक किस्सा कुछ यूं था कि वहां ट्रेनें डॉट में चलती हैं मतलब सेकेंड्स पर. मसलन, 10 बजकर 20 मिनट 15 सेकेंड पर खुलेगी तो वह इसी टाइम पर खुलेगी। एक बार कुछ तकनीकी खराबी की वजह से एक ट्रेन 11 से 12 मिनट लेट हो गई। देशव्यापी मुद्दा बन गया। हमारे यहां भ्रष्टाचार भी देशव्यापी मुद्दा नहीं बन पाता। खैर, ट्रेन लेट होने की वजह की सफाई मंत्री समेत रेल बोर्ड के अधिकारियों को देना पड़ा। वह खुद राष्ट्रीय चैनल पर आए और इस देरी के लिए देश से माफी मांगी और जिम्मेदारी लेते हुए सभी ने इस्तीफा दे दिया। यह है जापानी जनता, नेता और अधिकारियों का अनुशासन। इसी अनुशासन ने जापान को जापान बनाया। अब बात खुद की यात्रा की। जब मैं घर से चला था तो मेरी गाड़ी 6 बजकर दस मिनट पर थी। बमुशि्कल से 10 मिनट पहले मैं स्टेशन पहुंचा। हालांकि, घर से तीन घंटा पहले चला था। मुझे काफी देर भी होती तो तकरीबन 5.30 तक पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन नहीं। दरअसल, लालगंज से हाजीपुर और हाजीपुर से पटना के बीच उम्मीद से अधिक ट्रैफिक का सामना करना पड़ा। उस वक्त मैं घबरा तो बिल्कुल नहीं, रहा था कि गाड़ी छुट जाएगी। पर हां, यह जरूर सोच रहा था कि बिहार में वाकई काफी पैसा आया है। पिछले दिनों धनतेरस के मौके पर रिकॉर्ड गाड़ियों की खरीदारी हुई थी। तो ट्रैफिक तो बढ़ना ही था। खुशी इस बात से हुई कि अफरा-तफरी भरे ट्रैफिक को संभालने के लिए पुलिस लगी थी जो पहले नहीं होता था। पहले मंजर यह होता कि हर कोई अपनी मर्जी से चला जा रहा है। कोई किसी को रोकने वाला नहीं है। इससे बहुत बड़ा कोओस हो जाता था। नौबत तो मारपीट तक की आ जाती थी। पर, अब ऐसा नहीं है। इसके लिए आप बदलते बिहार को शुक्रिया कह सकते हैं, साथ में सीएम नीतीशजी को भी। हां तो काफी मशक्कत से पटना स्टेशन पहुंचा। जल्दबाजी में इधर-उधर भागता हुआ पहुंचा तो पता चला जिस ट्रेन से जाना है वह 10-15 मिनट नहीं, दो घंटे देर से खुलेगी। यह सोचकर काफी झुंझलाहट हो रही थी कि अब इतना वक्त मैं कैसे बिताऊंगा। तभी यह अखबार खरीदा-प्रभात खबर। उसमें हरिवंशजी ने एक देश के महान बनने की कहानी का उदाहरण भी ट्रेन के समय से दिया था। जहां एक तरफ ट्रेनों का लेट होना बेहद मामूली बात है तो दूसरी ओर इसकी वजह से मंत्री तक को इस्तीफा देना पड़ता है। यहां तो अरबों का घोटाला करने वाले मंत्री भी इस्तीफा देने से पहले सरकार गिराने की धमकी देते हैं और गठबंधन धर्म के नाम पर प्रधानमंत्री खामोश रहते हैं। यह है अंतर। बताता चलूं कि मेरी ट्रेन 4 घंटा 12 मिनट देर से खुली। और जिसे दिल्ली सुबह 11.30 तक पहुंचाना था तो वह शाम 6.30 सात घंटा देर से पहुंची। जय हिंद।