सुनने में थोड़ा अजीब ज़रूर लगा...लेकिन ख़बर दुरुस्त है...कांग्रेस अध्यक्ष ने लेख पूरी शिद्दत के साथ लिखा है (हिन्दुस्तान संपादकीय 11-01-2011)...सोनिया की इस अपील में एक तरह की जागृति को साफ तौर पर देखा जा सकता है...इस लेख से ये भी साफ हो चुका है...कि भारत को वो किसी दूसरे भारतीय से कम नहीं समझती हैं....जानती हैं...चाहती हैं....और ये भी
कि...वो एक संवेदनशील महिला पहले हैं...किसी पार्टी विशेष की अध्यक्ष और दुनिया की ताकतवर महिला बाद में...अपने लेख में सोनिया गांधी ने दलील देते हुए देश के धनकुबेरों से दान की परंपरा को बनाए रखने की अपील की है...एक हद तक अपील जायज़ भी लगती है...वाकई देश में (और देश के) धनकुबेरों की तादाद पिछले दो दशकों में काफी तेजी से बढ़ी है...जिसके लिए यकीनन उदारीकरण की नीति प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर से जवाबदेह है...लेकिन देश में विप्रो के मालिक अजीम प्रेमजी के 8,846 करोड़ रुपए के दान दिए जाने से पहले...दान की अहमियत शायद कुछ और थी...भले ही बिल गेट्स और वारेन बफेट सरीखे लोग पूरी दुनिया में घूम-घूमकर इससे कई सौ गुना ज्यादा का दान हर रोज़ कर रहे हों...लेकिन अपने देश में दान की नई गाथा अब शुरू हुई है...ऐसा नहीं है कि अब से पहले हमारे देश में धनकुबेर दान नहीं देते रहे हैं...अरे भाई साहब दान देते भी रहे हैं...और लेनेवाले दान लेते भी रहे हैं...दधिचि मुनि के इस देश में दान देने की ऐसी ठोस परंपरा रही है जिसके लिए उदाहरण और नज़ीर देने की ज़रूरत तो कतई नहीं है....और आज के युग में दान की महिमा इस कदर बढ़ी है कि इंसान क्या...कंपनियां तक दान देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं....क्या बड़ी, क्या छोटी...और क्या सरकारी और गैर-सरकारी हर तरह की कंपनियां दान के इस खेल की माहिर खिलाड़ी थीं...वजह दान से टैक्स में मिलने वाली रियायत...और मुफ़्त की
मक़बूलियत...जो आज भी बदस्तूर जारी है...यकीन न आए तो जरा किसी प्राइवेट या पब्लिक सेक्टर यूनिट का दरवाजा खटखटाएं...दान का खाता-बही संभालने वाले अधिकारी...कैसे बिदकते हैं...फिर देखिए !...किसी सवाल का जवाब.....अरे साहब...वो बिना आरटीआई के...आपसे बात तक नहीं करेंगे...एक बार सारी जानकारी...लेने के बाद ज़रा...उन संस्थानों में भी आरटीआई दाखिल
कर जानकारी मांगिए जहां-जहां दान दिया गया...और जानने की कोशिश कीजिए कि क्या दान की जितनी रकम...भेजी गई क्या उनके खाते में भी उतनी ही रकम गई है...आपको ख़ुद-ब-ख़ुद दान से जुड़ा सारा खेल...सारा माज़रा समझ में आ जाएगा...कहने का मतलब ये कि दान के नाम पर गैर-सरकारी कंपनियां और सरकारी कंपनियों के बाबू लोग जितनी मोटी कमाई हर साल करते हैं...इसमें कोई शक नहीं कि उस रकम से देश की चालीस फीसदी अतिपिछड़ी आबादी का उद्धार किया जा सकता है...
कि...वो एक संवेदनशील महिला पहले हैं...किसी पार्टी विशेष की अध्यक्ष और दुनिया की ताकतवर महिला बाद में...अपने लेख में सोनिया गांधी ने दलील देते हुए देश के धनकुबेरों से दान की परंपरा को बनाए रखने की अपील की है...एक हद तक अपील जायज़ भी लगती है...वाकई देश में (और देश के) धनकुबेरों की तादाद पिछले दो दशकों में काफी तेजी से बढ़ी है...जिसके लिए यकीनन उदारीकरण की नीति प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर से जवाबदेह है...लेकिन देश में विप्रो के मालिक अजीम प्रेमजी के 8,846 करोड़ रुपए के दान दिए जाने से पहले...दान की अहमियत शायद कुछ और थी...भले ही बिल गेट्स और वारेन बफेट सरीखे लोग पूरी दुनिया में घूम-घूमकर इससे कई सौ गुना ज्यादा का दान हर रोज़ कर रहे हों...लेकिन अपने देश में दान की नई गाथा अब शुरू हुई है...ऐसा नहीं है कि अब से पहले हमारे देश में धनकुबेर दान नहीं देते रहे हैं...अरे भाई साहब दान देते भी रहे हैं...और लेनेवाले दान लेते भी रहे हैं...दधिचि मुनि के इस देश में दान देने की ऐसी ठोस परंपरा रही है जिसके लिए उदाहरण और नज़ीर देने की ज़रूरत तो कतई नहीं है....और आज के युग में दान की महिमा इस कदर बढ़ी है कि इंसान क्या...कंपनियां तक दान देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं....क्या बड़ी, क्या छोटी...और क्या सरकारी और गैर-सरकारी हर तरह की कंपनियां दान के इस खेल की माहिर खिलाड़ी थीं...वजह दान से टैक्स में मिलने वाली रियायत...और मुफ़्त की
मक़बूलियत...जो आज भी बदस्तूर जारी है...यकीन न आए तो जरा किसी प्राइवेट या पब्लिक सेक्टर यूनिट का दरवाजा खटखटाएं...दान का खाता-बही संभालने वाले अधिकारी...कैसे बिदकते हैं...फिर देखिए !...किसी सवाल का जवाब.....अरे साहब...वो बिना आरटीआई के...आपसे बात तक नहीं करेंगे...एक बार सारी जानकारी...लेने के बाद ज़रा...उन संस्थानों में भी आरटीआई दाखिल
कर जानकारी मांगिए जहां-जहां दान दिया गया...और जानने की कोशिश कीजिए कि क्या दान की जितनी रकम...भेजी गई क्या उनके खाते में भी उतनी ही रकम गई है...आपको ख़ुद-ब-ख़ुद दान से जुड़ा सारा खेल...सारा माज़रा समझ में आ जाएगा...कहने का मतलब ये कि दान के नाम पर गैर-सरकारी कंपनियां और सरकारी कंपनियों के बाबू लोग जितनी मोटी कमाई हर साल करते हैं...इसमें कोई शक नहीं कि उस रकम से देश की चालीस फीसदी अतिपिछड़ी आबादी का उद्धार किया जा सकता है...
सोनिया जी सुन रहीं हैं आप...
चाय की दुकान से एक आम भारतीय
अभिषेक पाटनी
2 comments:
क्यों दें धनकुबेर दान ?
अंडरवर्ल्ड पर आधारित माइकल पुज़ो की नॉवेल गॉडफादर की शुरुआती लाइन ही कुछ यूं है...हर कामयाबी के पीछे एक अपराध ज़रूर है... (Behind every success there's an undiscovered crime.")...ये पंक्तियां थोड़ी डरावनी ज़रूर हैं...लेकिन हैं सौ फीसदी सही...भारतीय परिपेक्ष्य में तो ये और भी सटीक बैठती हैं...एक कंपनी के खुलने से लेकर उसके चलाने...और फिर बाज़ार से फायदा कमाने तक में किस-किस तरह के कुकर्म करने पड़ते हैं...इससे वही वाकिफ हो सकते हैं...जो इस धंधे को करीब से देख रहे हैं...चाहे धंधे के खिलाड़ी बन कर...या फिर खिलाड़ियों को नचाने वाले अधिकारी बनकर....खैर...जिस तरह से पूरा तंत्र खुद को जिस तरह से विकसित कर चुका है...उससे बाज़ार से मुनाफा कमाने के रास्ते बेहद आसान हो जाते हैं...बशर्ते मुनाफा की चाह में पूंजी लगाने वाला...घोषित नियमों को ताक पर रख कर अघोषित नियमों का पालन करे...
खैर...हमारा मकसद किसी की कलई खोलना नहीं है...बल्कि हम तो ये बताना चाहते हैं...कि धनकुबेर बन चुके...लोगों को दान की परंपरा क्यों निभानी चाहिए खासकर भारत जैसे देश में... इस सवाल के एक नहीं कई कारण हैं...सबसे पहली वजह तो ये कि भारत में आज भी किसी उद्योग को खोलने के लिए लागत मूल्य से कहीं ज्यादा सहूलियतें दी जाती है...नैनो की फैक्ट्री लगाने के लिए गुजरात सरकार ने टाटा के लिए क्या-कुछ किया छिपा नहीं है....रियायत और फिर रियायत पर रियायत...सस्ती जमीन...सस्ती बिजली...सस्ता पानी...और क्या कुछ नहीं....मसलन...कच्चे माल के लिए सुविधा...सस्ते मज़दूर...खुला बाज़ार और दुनिया के किसी देश से कहीं सस्ती यातायात सुविधा...मतलब...एक इंडस्ट्रियलिस्ट को सिर्फ तय करना है कि वो किस क्षेत्र में पूंजी लगाने को इच्छुक है...बाकी ज़रूरतें ख़ुद-ब-ख़ुद पूरी होने लगती हैं...अब ऐसे में पूंजी लगाने वाले के हिस्से में गुजरते वक्त के साथ बचता क्या है...अरे भाई साहब...कहिए क्या नहीं बचता...मुनाफा..मुनाफा और मुनाफा...और इस मुनाफे के साथ-साथ स्थापित हो जाता है...एक अदृश्य साम्राज्य...ऐसे में...एक हद के बाद तो...धनकुबेर बन चुके...इन लोगों को तमाम एहसान के बदले थोड़ा एहसान तो जरूर करना चाहिए...वो भी तब जब सरकार दान के बदले....टैक्स में छूट जैसे फायदे दे रही हो....
एक आम भारतीय का हलफनामा
क्यों दें धनकुबेर दान ?
अंडरवर्ल्ड पर आधारित माइकल पुज़ो की नॉवेल गॉडफादर की शुरुआती लाइन ही कुछ यूं है...हर कामयाबी के पीछे एक अपराध ज़रूर है... (Behind every success there's an undiscovered crime.")...ये पंक्तियां थोड़ी डरावनी ज़रूर हैं...लेकिन हैं सौ फीसदी सही...भारतीय परिपेक्ष्य में तो ये और भी सटीक बैठती हैं...एक कंपनी के खुलने से लेकर उसके चलाने...और फिर बाज़ार से फायदा कमाने तक में किस-किस तरह के कुकर्म करने पड़ते हैं...इससे वही वाकिफ हो सकते हैं...जो इस धंधे को करीब से देख रहे हैं...चाहे धंधे के खिलाड़ी बन कर...या फिर खिलाड़ियों को नचाने वाले अधिकारी बनकर....खैर...जिस तरह से पूरा तंत्र खुद को जिस तरह से विकसित कर चुका है...उससे बाज़ार से मुनाफा कमाने के रास्ते बेहद आसान हो जाते हैं...बशर्ते मुनाफा की चाह में पूंजी लगाने वाला...घोषित नियमों को ताक पर रख कर अघोषित नियमों का पालन करे...
खैर...हमारा मकसद किसी की कलई खोलना नहीं है...बल्कि हम तो ये बताना चाहते हैं...कि धनकुबेर बन चुके...लोगों को दान की परंपरा क्यों निभानी चाहिए खासकर भारत जैसे देश में... इस सवाल के एक नहीं कई कारण हैं...सबसे पहली वजह तो ये कि भारत में आज भी किसी उद्योग को खोलने के लिए लागत मूल्य से कहीं ज्यादा सहूलियतें दी जाती है...नैनो की फैक्ट्री लगाने के लिए गुजरात सरकार ने टाटा के लिए क्या-कुछ किया छिपा नहीं है....रियायत और फिर रियायत पर रियायत...सस्ती जमीन...सस्ती बिजली...सस्ता पानी...और क्या कुछ नहीं....मसलन...कच्चे माल के लिए सुविधा...सस्ते मज़दूर...खुला बाज़ार और दुनिया के किसी देश से कहीं सस्ती यातायात सुविधा...मतलब...एक इंडस्ट्रियलिस्ट को सिर्फ तय करना है कि वो किस क्षेत्र में पूंजी लगाने को इच्छुक है...बाकी ज़रूरतें ख़ुद-ब-ख़ुद पूरी होने लगती हैं...अब ऐसे में पूंजी लगाने वाले के हिस्से में गुजरते वक्त के साथ बचता क्या है...अरे भाई साहब...कहिए क्या नहीं बचता...मुनाफा..मुनाफा और मुनाफा...और इस मुनाफे के साथ-साथ स्थापित हो जाता है...एक अदृश्य साम्राज्य...ऐसे में...एक हद के बाद तो...धनकुबेर बन चुके...इन लोगों को तमाम एहसान के बदले थोड़ा एहसान तो जरूर करना चाहिए...वो भी तब जब सरकार दान के बदले....टैक्स में छूट जैसे फायदे दे रही हो....
एक आम भारतीय का हलफनामा
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