“एक छोटा क़र्ज, एक
बचत खाता या एक बीमा पॉलिसी एक निम्न आय वाले परिवार के जीवन शैली में बड़ा
परिवर्तन ला सकता है। इसके जरिए परिवार के लोग अपने बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य,
आवास और शिक्षा जैसे बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकेंगे। इसकी
वजह से निम्न आय वाले परिवार फसल दुष्चक्र, बीमारी या मृत्यु जैसी आपदाओं से सही
तरीके से निपट सकेंगे और अपने भविष्य के लिए योजनाएं बना सकेंगे” --- कोफी अन्नानसंयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव के
मुंह से निकले इन शब्दों को भारत सरकार के वित्तीय समावेशन जैसे
कार्यक्रम के जरिए ही सही मायने में अमलीजामा पहनाया जा सकता है। भारत सरकार ने इस
दिशा में पहले चरण काम पूरा करने की अहम जिम्मेदारी सौंपी है देश के राष्ट्रीयकृत
बैंकों को। ओरियंन्टयल बैंक ऑफ कॉमर्स के साथ-साथ देश के तमाम बैंक देश के
आख़िरी आदमी तक पहुंचने के अनोखे मुहिम में जुट गए हैं। जिस तेजी और तरीके से देश
के तमाम राष्ट्रीय बैंक सरकार के इस मुहिम को कामयाब बनाने में जुटे हैं उससे
यकीनन आनेवाले समय में हमारा देश एक बेहद मज़बूत और स्वस्थ्य देश के तौर पर
उभरेगा। और इस पूरे मुहिम में राष्ट्रीय बैंक भी मज़बूत होंगे इसमें भी कोई
शक नहीं।
कैसे होंगे बैंक
मज़बूत?
1)
लगेगी कम पूंजी – इस योजना के तहत
गांवों तक पहुंचने के लिए बैंकों को ब्रान्च खोलने की ज़रूरत नहीं है। एक महंगी ग्रामीण शाखा की स्थापना करने के बजाय कोई बैंक किसी
ग्रामीण क्षेत्र में सिर्फ अपने एक 'बैंकिंग
संवाददाता' को नियुक्त करता है। वह बैंकिंग
संवाददाता कोई भी हो सकता है।उदाहरण के लिए आप किसी किराना
स्टोर के मालिक को ही ले लीजिए जिसे किसी बैंक ने एक बैंकिंग संवाददाता के रूप में
नियुक्त किया है। वह बैंकिंग संवाददाता 20,000 रुपये की लागत वाले 'नियर
फील्ड कम्युनिकेशंस' फोन, एक स्कैनर, एक थर्मल
प्रिंटर की मदद से ग्राहकों को बैंक संबंधी सूचनाओं का विवरण मुहैया कराता है।उस फोन में वायरलेस कनेक्शन होता
है जो वास्तव में बैंक के सर्वर से जुड़ा होता है। इसके जरिए ग्राहकों से जुड़े सभी
विवरणों को भेजा जाता है। लिहाजा, किसी
ग्रामीण शाखा की स्थापना में 3 से 4 लाख रुपये या उससे ज्यादा खर्च करने के बजाय बैंक महज 20,000 रुपये की नाममात्र की राशि पर ही वित्तीय समावेशन के काम को
अंजाम दे रहा है।तुलानात्मक रूप से बड़ी आबादी वाले गांवों
के लिए एटीएम जैसी मशीनों (कियोस्क) का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसके लिए
गांव के पढ़े-लिखे लोगों की मदद ली जा सकती है। इस तरह एक गांव के सभी परिवारों को
बैंक के जरिए जोड़ा जा रहा /सकता है।
2) शुरू हुआ बैंकों का कारोबार
– जिन बैंकों ने वित्तीय समावेशन के जरिए गांवों में जाकर ग्रामीणों के खाते
खोलने शुरू कर दिए हैं उनकी कमाई शुरू हो चुकी है। हो सकता है ये सुनकर आपको
एकबारगी यकीन न आए, लेकिन ये सौ-फीसदी सच है। मनरेगा और सामाजिक सुरक्षा पेंशन
योजना के तहत ग्राम-पंचायतों को मिलने वाली सरकारी सहायता राशि अब सीधे उन बैंकों
को मिल रही हैं, जिन्हें उस क्षेत्र के गांवों का दायित्व दिया गया है। और इसके
साथ ही राशि के बांटने के काम के जरिए बैंक को 2 फीसदी का कमीशन मिलना तय हो गया
है।
3) बढ़ेगा दायरा और व्यापार
- बैंकों की आमदनी का जरिया होते हैं - ग्राहक। जो बैंक को छोटे-बड़े बिजनेस देते
हैं। इस बात में कोई शक नहीं हमारे देश के ग्रामीणों की आय बेहद कम है, जिस वजह से
बैंक गांवों में जाने से कतराते रहे हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि
ग्रामीणों की आय भले ही कम है लेकिन उनकी संख्या नहीं। हमारा देश आज भी गांवों में
ही बसता है। इसलिए भी वित्तीय समावेशन के जरिए राष्ट्रीय बैंकों को
ज्यादा-से-ज्यादा लोगों से जुड़ने का मौका मिलेगा और साथ ही बढ़ेगा उनका व्यापार। आपको
जानकर हैरानी हो सकती है कि देश में 51.36 फीसदी ग्रामीण आबादी के पास बैंक
में खाते नहीं हैं। यानी वित्तीय समावेशन सभी बैंको के लिए असीमित व्यापार
के मौके सरीखा है क्योंकि इस योजना के जरिए भारत सरकार इन्हीं ग्रामीणों को
बैंकिंग से जोड़ना चाहती है। इस सरकारी योजना को तमाम बैंक बखूबी अंजाम भी दे रहे
हैं। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हम ओरियन्टल बैंक ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों में देख
सकते हैं। हमारे बैंक को (ओरियन्टल बैंक ऑफ कॉमर्स को) मार्च 2013 तक के लिए कुल
574 गांवों तक पहुंचने का लक्ष्य दिया गया है, जबकि हमारे बैंक ने महज एक साल में
300 से ज्यादा गांवों तक अपनी पहुंच बना ली है। कमोबेश तमाम बैंक कुछ इसी तरह के
उत्साहवर्द्धक नतीजे दे रहे हैं।
4) कोई प्रतिद्वन्दी नहीं
- बड़े व्यापार की संभावना शहरों में ज्यादा होती है इस बात से इनकार नहीं किया जा
सकता है। लेकिन इसके साथ जुड़ी एक सच्चाई ये भी है कि कारोबार बढ़ाने के लिए
बैंकों के बीच गला-काट प्रतियोगिता भी रहती है। वित्तीय समावेशन की सबसे अहम बात
यही है कि सरकार ने सभी बैंकों को अलग-अलग क्षेत्रों के गांव सौंपे हैं। जिससे हर
बैंक न सिर्फ अपने लक्ष्य को आसानी से पूरा कर सकता है बल्कि ज्यादा-से-ज्यादा
कारोबार की कोशिश भी कर सकता है।
5) दूसरे बैंकिंग उत्पादों के
लिए भी मिलेगा बाज़ार - आज
बैंकिंग जमा-ऋण के मूल व्यापार से कहीं आगे बढ़ चुका है। यकीनन आने वाले दौर में
इन गांवों में बीमा पॉलिसी जैसे बैंकिंग के दूसरे उत्पादों की बिक्री मुमकिन हो
सकेगी। जैसे-जैसे ग्रामीणों की जागरूकता और जानकारी बढ़ेगी वैसे-वैसे बैंकों को
अपने दूसरे उत्पादों को बेचने में सहूलियत बढ़ती जाएगी। और इन्हीं गांवों में
वित्तीय समावेशन के जरिए ही भविष्य में बैंकों के पास कमाई के दूसरे तमाम रास्ते
भी खुलेंगे इसमें भी कोई शक नहीं।
5) लोगों का भरोसा बढ़ेगा, साथ
ही बढ़ेगी ब्रांड वैल्यु - वित्तीय
समावेशन के जरिए समाज के सबसे पिछड़ों तक पहुंच बनाने वाले बैंकों का सिर्फ
भोगौलिक-आर्थिक दायरा ही नहीं बढ़ेगा साथ ही बढ़ेगा इन तमाम बैंकों पर लोगों का
भरोसा। नतीजतन वित्तीय समावेशन में शामिल सभी बैंकों के बाज़ार मूल्य पर भी इसका
सकारात्मक असर होगा।
पिछले दशक के दौरान भारत ने दुनिया में तेज़ी से
बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में ख़ुद को स्थापित किया है। लेकिन एक सच ये भी है कि इस दौरान अमीरों और ग़रीबों के बीच खाई बढ़ी है। भले ही विकास के
मामले में भारत नए प्रतिमान स्थापित कर रहा है, हर क्षेत्र में आशातीत लक्ष्य हासिल कर रहा है लेकिन विकास की यह गुणवत्ता सही मायनों में अगर समावेशी
नहीं है. तो विकास की
गति में स्थायित्व संभव नहीं है।
No comments:
Post a Comment