Saturday, December 25, 2010

मीडिया के मतलबी महायोद्धा

यह  मीडिया में अवसाद का युग है। दूसरों को सवालों से परेशान करने वाला मीडिया आजकल ख़ुद सवालों से परेशान है। बात आप सभी जानते हैं। कौन से मसले और बहस खबरें बन रही हैं, यह भी सब समझ रहे हैं। ऐसे में खुद को संभालने वाला, मीडिया को बचाने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। सभी प्रोफेशनलिज्म का हवाला देकर अपना पल्ला छुड़ा रहे हैं। पहले बहस होती थी कि अब तो अखबारों और टीवी चैनलों को मालिक चैनल चला रहे हैं। मतलब यह कि मालिक संपादक बन गए और संपादक मालिक बन गए। तो ऐसे में मजबूर पत्रकार मजदूरी करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। यह रोना कई दिग्गज रो चुके हैं। पर, उन सभी घड़ियाली आंसू ही बहाए। दरअसल, जो अब तक पत्रकिरता के नाम पर कोलाहल मचाए हुए थे, उनका कच्चा-चिट्ठा सामने आ रहा है। जिनका नहीं आया है, वक्त-बेवक्त उनका कारनामा भी सामने आएगा। पर, बात ज़रा इससे अलग करूंगा। हम सभी या जो कोई भी पत्रकारिता के खत्म होने या उसके नैतिक पतन का रट्टा लगाते रहते हैं, तो मेरा सवाल यह है कि हम इसके अलावा क्या करते हैं। हमें भी मौक़ा मिलता है और चूकना हमारी फितरत है नहीं। जिन्हें अवसर नहीं मिलता, वह हाथ मलते रहते हैं और जब तक उन्हें कोई मौक़ा नहीं मिलता वह पत्रकारिता के क़ब्र तक पहुंचने का रोना लगाए और धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। इसमें वह भी शामिल हैं, जिनका ज़मीर कभी-कभी कब्र से जाग उठता है। और एक हुंकार भरकर फिर अपने ठिकाने की आगोश में चला जाता है।
दूसरी बात, यह कि पैसा सभी को चाहिए। सभी को अच्छी ज़िंदगी जीनी है। कोई त्याग और कुर्बानी शब्द तक का इस्तेमाल नहीं करता। करता भी है तो बस वीओ और ख़बरों में। पत्रकारिता की दुनिया में अगर लोगों को ऐशो-आराम भी चाहिए और नैतिकता भी, तो ऐसा अब होना बेहद मुश्किल है। ठीक उसी तरह जैसे ठाकुर और गब्बर को साथ-साथ रखना। यदि ठाकुर की आन-शान को रखना चाहते हैं तो जय को कुर्बानी देनी पड़ेगी। लेकिन, यहां जय भी अब आग पैदा करने के लिए गब्बर बन रहा है। तो चीजें बेहद आसानी से समझी जा सकती है। फिर भी निराशा की ज़िदगी हमें नहीं जीना है। हिंदुस्तानी तहज़ीब हमें मुसीबतों में रास्ता दिखाती है। तूफान में भी कस्ती को किनारा मिल ही जाता है। पर, यह है कि बस तूफान के थमने का इंतज़ार करिए बस। नहीं तो जो समंदर पर भी बांध बना सके वह आगे आए और भारतीय मीडिया को मझधार और भवंर से निकाले। फिलहाल न तो वासुदेव हैं जो कृष्ण को काली रात में नन्द के पास यमुना पार गोकुल छोड़ने जाए और न ही नल-नील हैं जो समुद्र पर सेतु बनाएँ। पत्रकारिता के बारे में बस एक बात और जो मेरे एक काबिल मित्र ने कभी कही थी वह यह कि वह यह पेशा पसंद करता है, क्योंकि उसे इसका काम और नेचर पसंद है। उसे खबरें लिखना पसंद है। वह इस दुनिया को पसंद करता है, क्योंकि इस दुनिया में जो कुछ भी करना पड़ता है उसे करने मेरे मित्र को मजा आता है। उसे खुशी मिलती है और एक बात यह कि वह इस दुनिया की चीजों को दूसरों से अलग करता है या कोशिश करता है। अब वह कहां तक सही है या गलत या फिर उसकी नैतिकता क्या बनती है? यह सब आप पर छोड़ता हूं। 

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