Thursday, December 6, 2012

जिंदल के जाल में ज़ी (05)

(अथ श्री जिंदल-गोयल कथा 05)सुभाष चन्द्र गोयल का ख़बरिया चैनल चाहे जो राजनैतिक नज़रिया रखता हो। वैचारिक धरातल पर ख़ुद गोयल साहब बनियों की पार्टी कहे जानेवाली भारतीय जनता पार्टी की तरफ झुकाव रखते हैं। लेकिन, बीजेपी विचारधारा के लिए झुकाव रखने के बावज़ूद कांग्रेस से गलबहियां करना अब सुभाषचन्द्र गोयल की मजबूरी हो गई है। क्योंकि दस्तूर तो ये है कि कांग्रेस के दो दिग्गजों की नाक की लड़ाई में फंसे का कुछ नहीं बचता। उसपर गोयल साहब को पेश की गई चुनौती बेदाग़ साबुत निकलने की है, जो कि बग़ैर कांग्रेसी दामन थामे, मुश्किल ही नहीं नामुमक़िन है। मौज़ूदा वक़्त में उनकी हालात निम्न या मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखनेवाली उस मर्दखोर लड़की की तरह हो गई है, जिसे अपनी शौक की वज़ह से मजबूरन वेश्या बन जाना पड़ता है (याद रहे, उच्च वर्ग में मर्दखोर या औरतखोर होना शौक, ज़रूरत और फैशन से कहीं बढ़कर स्टेट्स सिंबल है)। जबतक ख़ुद को कांग्रेस के हवाले कर सुभाषचन्द्र गोयलज़ी पाकीज़ा नहीं बन जाते तबतक तो ये मानना ही पड़ेगा कि ज़ी’, ‘जिंदल के जाल में ही अटका पड़ा है।

और अब एक संदेश किसी ख़ास के लिए -
सुन रहें हैं पुण्य प्रसून वाजपेयीज़ी चकले पर बैठ कर पान बेचनेवाले को दो पैसे ज़्यादा ज़रूर मिल जाते हों वो इज़्ज़त नहीं मिल पाती जिसका वो हक़दार होता है या जो इज़्ज़त आम रास्ते पर एक आम मज़दूर को यूं ही मज़दूरी के साथ मिल जाया करती है।  वैसे कहलाते तो आप ही प्रबुद्ध हैं यानी जानते भी ज़्यादा बेहतर ही होंगे।